ध्रुवीय ज्योति (Aurora), यह मेरुज्योति, वह रमणीय दीप्तिमय छटा है जो ध्रुवक्षेत्रों के वायुमंडल के ऊपरी भाग में दिखाई पड़ती है। उत्तरी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को सुमेरु ज्योति (aurora borealis), या उत्तर ध्रुवीय ज्योति, और दक्षिणी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को कुमेरु ज्योति (aurora australis), या दक्षिण ध्रुवीय ज्योति, कहते हैं। प्राचीन रोमवासियों और यूनानियों को ये घटनाएँ मालूम थीं और उन्होंने इस दृश्य का बड़ा ही रोचक और विस्तृत वर्णन किया है। दक्षिण गोलार्धवालों ने कुमेरु ज्योति का कुछ स्पष्ट कारणों से वैसा व्यापक और रोचक वर्णन नहीं किया है, जैसा उत्तरी गोलार्धवलों ने सुमेरु ज्योति का किया है। इनका जो कुछ वर्णन प्राप्य है उससे इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि दोनों के विश्ष्टि लक्षणों में समानता है।
सुमेरु ज्योति के अनेक रूप होते हैं। स्टॉर्मर (Stormer) ने इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया है :
(क) किरणसंरचना प्रदर्शित करनेवाली ज्योति - इसके अंतर्गत कॉरोना (कांतिचक्र) किरण और तथाकथित परिच्छद (draparies) हैं।
(ख) किरणसंरचना न प्रदर्शित करनेवाली ज्योति - इसके अंतर्गत समांग चाप (homogeneous arcs), समांग पट्ट (bands), और स्पंदमान (pulsating) पृष्ठ हैं। वेगॉर्ड (Vegord) ने ज्योति को (अ) शांत और (ब) चल रूपों में वर्गीकृत किया है। अंतरराष्ट्रीय भूपृष्ठ तथा भूभौतिक संघ (International Geodetic and Geophysical Union) द्वारा स्वीकृत प्रतीकों के साथ विविध ज्योतियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है :
उपर्युक्त वर्णित विविध प्रकार की ज्योतियों में संरचनायुक्त या संरचनाविहीन चाप, पट्ट और परिच्छद ही अधिक सामान्य हैं, जबकि स्पंदमान पृष्ठ और किरणें बहुत कम दिखाई पड़ती हैं।
मेरुज्योति की विशेषताएँ - चुंबकीय निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर मेरुज्योति की आवृत्ति क्रमश: बढ़ती जाती है और ध्रुवीय क्षेत्रों में सर्वाधिक होती है। ऊँचाई के साथ मेरुज्योति के वितरण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मेरु ज्योति की घटना ९० और १३० किमी. के बीच होती है। स्टॉर्मर के अनुसार मेरुज्योति की निम्नसीमा ८० किमी. की ऊँचाई है। चाप, पट्ट और
क. मेरु ज्योतीय, ख. भौमधारा तथा ग. चुंबकीय
सक्रियताओं के आलेख, जिनसे इनमें सादृश्य पाया जाता है।
परिच्छद क्षैतिज दिशा में चुंबकीय याम्योत्तर के लगभग समकोण की दिशा में फैलते हैं और किरणधाराएँ चुंबकीय बलरेखाओं के साथ साथ न्यूनाधिक क्षैतिज दिशाओं में फैलती हैं। वास्तविक दिशा स्थान पर निर्भर करती है। यह महत्व की बात है कि किरणधारा के विकिरणविंदु का चुंबकीय शिरोविंदु से संपतन (coincidence) होता है। मेरुज्योतीय सक्रियता में दैनिक और मौसमी परिवर्तन देखे जाते हैं। आधी रात के ठीक पहले स्पष्ट दैनिक प्रमुख उच्चतम और प्रात: दुर्बल उच्चतम सक्रियता होती है। निम्न अक्षांशों की वार्षिक आवृत्ति में दो उच्चतम सक्रियताएँ होती हैं जिनका विषुवों (equinoxes) से संपतन होता है। ज्यों-ज्यों हम मेरुज्योतीय क्षेत्र की ओर बढ़ते हैं ये उच्चतम सक्रियताएँ एक दूसरे के निकट आती जाती हैं और उच्चतम सक्रियता मध्य जाड़े में होती है। मेरुज्योतीय सक्रियता सुज्ञात ११ वर्षीय और सक्रियता का अनुसरण करती है और जब बड़े-बड़े सूर्य धब्बों के समूह सूर्य के केंद्रीय याम्योत्तर के निकट से गुजरते हैं, उसी समय इस घटना के होने की प्रवृत्ति होती है। चुंबकीय विक्षोभ के समान ही २७ दिनों बाद पुन: मेरुज्योतीय सक्रियता की प्रवृत्ति देखी जाती है। क्यूरी (Currie) एवं एडवर्ड (Edward) के अनुसार निर्मित चित्र ऊपर दिया है, जिस से मेरुज्योतीय, चुंबकीय और भौमधारा सक्रियताओं में साम्य का पता चलता है। पार्थिव चुंबकीय विक्षोभ और ध्रुवीय प्रकाश दोनों ही दृश्य घटनाओं का मूल तीव्र वेग से आविष्ट सूर्य की कणिकाओं को माना जाता है। इन दृश्य घटनाओं की व्याख्या के लिए अनेक सिद्धांत प्रतिपादित हुए हैं, जिनमें चैपमैन (Chapman) और फेरारो (Ferraro) का सिद्धांत, जिसे बाद में मांर्टिन (Martyn) ने पल्लवित किया, सर्वाधिक संतोषप्रद और महत्वपूर्ण है।(किरणचंद चक्रवर्ती)