धर्मसुधार, यूरोपीय १६वीं शताब्दी के प्रारंभ में समस्त पश्चिमी यूरोप धार्मिक दृष्टि से एक था - सभी ईसाई थे, सभी रोमन काथलिक चर्च के सदस्य थे, उसकी परंपरगत शिक्षा मानते थे और धार्मिक मामलों में उसके अध्यक्ष अर्थात् रोम के पोप का शासन स्वीकार करते थे। यूरोपीय धर्मसुधार अथवा रिफॉरमेशन १६वीं शताब्दी के उस महान् आंदोलन को कहते हैं जिसके फलस्वरूप पाश्चात्य ईसाइयों की यह एकता छिन्न भिन्न हुई और प्रोटेस्टैंट धर्म का उदय हुआ। चर्च के इतिहस में समय समय पर सुधारवादी आंदोलन होते रहे किंतु वे चर्च के धार्मिक सिद्धातों अथवा उसके शासकों को चुनौती न देकर उनके निर्देश के अनुसार ही नैतिक बुराइयों का उन्मूलन तथा धार्मिक शिक्षा का प्रचार अपना उद्देश्य मानते थे। १६वीं शताब्दी में जो सुधार का आंदोलन प्रवर्तित हुआ वह शीघ्र ही चर्च की परंपरागत शिक्षा और उसके शासकों के अधिकार, दोनों का विरोध करने लगा। धर्मसुधार का यह नवीन स्वरूप समझने के लिए यूरोप की तत्कालीन परिस्थिति पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है।

(१) ईसा द्वारा प्रवर्तित काथलिक चर्च के प्रति ईसाइयों में जो श्रद्धा का भाव शताब्दियों से चला आ रहा था वह कई कारणों से कम हो गया था। १४वीं शताब्दी में एक फ्रांसीसी पोप का चुनाव हुआ था, जो जीवन भर फ्रांस में ही रहे। इसके फलस्वरूप बाद में ४० वर्ष तक दो पोप विद्यमान थे, एक फ्रांस में और एक रोम में, जिससे समस्त काथलिक संसार दो भागों में विभक्त रहा। आठवीं शताब्दी में फ्रैंक जाति के काथलिक राजा ने इटली पर आक्रमण करने वाली लोंवार्ड सेना को हराकर इटली का मध्य भाग पोप के अधिकार में दे दिया और इस प्रकार रोमन काथलिक चर्च के परमाधिकारी धर्मगुरु के अतिरिक्त एक साधारण शासक भी बन गए। इस कारण जर्मनी और फ्रांस के राजा सहज ही चर्च के मामलों में और विशेषकर पोप के चुनाव में हस्तक्षेप करने का प्रयास करते रहे। १४वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह चुनाव इटली के अभिजात वर्ग की प्रतियोगिता का मैदान बन गया था जिससे व्यक्ति की योग्यता पर कम, उसके वंश पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि उस समय नितांत अयोग्य पोपों का चुनाव हुआ और रोम के दरबार में नैतिकता तथा धर्म की उपेक्षा होने लगी। अत: रोम के चर्च के प्रति श्रद्धा का घट जाना नितांत स्वाभाविक था। असंतोष का एक और कारण यह था कि समस्त चर्च की संस्थाओं पर उनकी संपत्ति के अनुसार कर लगाया जाता था और रोम के प्रतिनिधि सर्वदा घूमकर यह रूपया वसूल करते थे।

चर्च के केंद्रीय संगठन की इस दुर्दशा के अतिरिक्त विभिन्न धर्मप्रांतों की परिस्थिति भी संतोषजनक नहीं थी। इस समय समस्त पश्चिमी यूरोप लगभग सात सौ धर्मप्रांतों में विभक्त था। उनके शासक बिशप कहलाते थे। ये बिशप सामंत थे जो राजा द्वारा प्राय: अभिजात वर्ग में से चुने जाते थे, दरबार के सदस्य थे और जर्मनी में बहुधा अपने क्षेत्र के राजनीतिक शासक भी थे। अत: बहुत से बिशप राजनीति में अधिक, धर्म में कम रुचि लेते थे और अपने धर्मप्रदेश का धार्मिक प्रशासन विश्वविद्यालय के उच्च अधिकार प्राप्त पुरोहितों के हाथ में छोड़ देते थे। गाँवों में बसनेवाले अधिकांश साधारण पुरोहित अर्धशिक्षित थे। प्रवचन देने में असमर्थ थे और प्राय: गरीब भी थे। साधारण पुरोहितों की यह दयनीय दशा १६वीं शताब्दी के यूरोपीय काथलिक चर्च की सब से बड़ी कमजोरी थी। भ्रमण करनेवाले फ्रांसिस्को आदि धर्मसंधियों के अतिरिक्त जनसाधारण को (जो दो तिहाई निरक्षर था) धार्मिक शिक्षा देनेवाला कोई नहीं था। इससे सर्वत्र अंधविश्वास फैल गया और कर्मकांड को अनावश्यक एवं असंतुलित महत्व दिय जाने लगा।

१३वीं शताब्दी में काथलिक धर्मविज्ञान (थिओलोजी) ने अरस्तू की ईसाई व्याख्या तथा स्कोलैस्टिक फिलोसोफी के सहारे धर्मसिद्धांतों का युक्तियुक्त प्रतिपादन किया था किंतु १५वीं शताब्दी में धर्म की मूलभूत समस्याओं पर से ध्यान और चिंतन हट गया था। विश्वविद्यालयों में धर्मपंडित गौण प्रश्नों के विषय में अपने मतभेदों को अधिक महत्व देने लगे थे जिससे काथलिक धर्मविज्ञान इतन निष्प्राण हो गया था कि कुछ साधकों की यह धारणा दृढ़ हो गई थी कि धर्मविज्ञान साधना में बाधक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि चर्च के सभी क्षेत्रों में सुधार की अपेक्षा थी और धर्मसुधार का आंदोलन अनिवार्य हो गया था। १४वीं शताब्दी में अँग़्रोज विक्लिफ (Wycliffe) और बाद में बोहीमिया के न हुस जॉ (Hus) सिखलाने लगे थे कि चर्च का संगठन, उसके संस्कार आदि यह सब मनुष्यों का आविष्कार है; ईसाइयों के लिए बाइबिल ही पर्याप्त है। उस समय भी उन विचारों को अधिक सफलता नहीं मिली किंतु उनका लूथर पर प्रभाव स्पष्ट ही है। स्पेन में टोलीडो के आर्बबिशप सिमेनेस (१४९५-१५१७ ई.) ने चर्च के अनुशासन के अंदर धर्मसुधार आंदोलन प्रवर्तित किया जिससे वहाँ का वातावरण पूर्ण रूप में बदल गया किंतु पश्चिमी यूरोप में चर्च की परिस्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हो पाया था।

जब लूथर ने रोम के विरुद्ध आवाज उठाई उनको एक और कारण से अपूर्व सफलता मिली। यूरोप में उस समय सर्वत्र प्राचीन यूनानी तथ लैटिन साहित्य की लोकप्रियता के साथ साथ एक नवीन सांस्कृतिक आंदोलन प्रारंभ हुआ जिसे रिनेसाँ अथवा नवजागरण कहा गया है। इसके फलस्वरूप लोगों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भाव उत्पन्न हुआ। मुद्रण के आविष्कार के कारण इसी समय से बाइबिल की मुद्रित प्रतियाँ अधिक सरलतापूर्वक सुलभ होने लगी थीं, जिससे लोगों को अपनी ओर से धर्म के विषय में सोचने और बाइबिल को अपनी निजी व्याख्या करने की प्रवृत्ति को भी प्रोत्साहन मिलने लगा था।

(२) यूरोपीय धर्मसुधार का ऐतिहासिक विकास इस प्रकार है : इसका आरंभ १५१७ ई. में लूथर के विद्रोह से हुआ था। उन्होंने किन परिस्थितियों में अपना आंदोलन प्रवर्तित किया था और चर्च के किन परंपरागत सिद्धांतो का विरोध करके किस प्रकार एक नया धर्म चलाया था, इसका वर्णन विश्वकोश में अन्यत्र किया गया है (दे. लूथर)। उस समय समस्त जर्मनी लगभग चार सौ स्वतंत्ररूप राज्यों में विभक्त था। उनके अधिकांश शासकों ने काथलिक सम्राट् चार्ल्स के विरोध में लूथर को सरंक्षण प्रदान किया और अपनी प्रजा को लुथर के चर्च में मिला दिया। शीघ्र ही स्कैंडिनेविया के समस्त ईसाई भी लूथरन धर्म में सम्मिलित हुए। स्विटजरलैंड में धर्मसुधार के दो नेता सर्वप्रधान थे - जूरिक में ज्विंगली (Zwingli, 1424-1436 ई.) और जनीवा में कैलविन (१५०९-१५६४ ई.), दोनों के अनुयायी बाद में एक ही केलविनिस्ट चर्च में सम्मिलित हो गए। यह संप्रदाय हालैंड, स्कॉटलैंड तथा फ्रांस के कुछ भागों में भी फैल गया। स्कॉटलैंड में इसका नाम प्रेसबिटरीय धर्म रखा गया है (दे. प्रेसबिटरीय धर्म) फ्रांस में पहले लूथर का प्रभाव पड़ा किंतु बाद में वहाँ के अधिकांश प्रोटेस्टैट धर्मावलंबी, जो यूगनी कहलाते हैं, कैलविन के अनुयायी बन गए। उनका संगठन एक राजनीतिक दल के रूप में से बहुत समय तक सक्रिय रहा (दे. यूगनो)। इंग्लैंड के राजा ने प्रारंभ ही से लूथर का विरोध किया था। उन्होंने एक ग्रंथ भी लिखा था जिसमें उन्होंने धर्म के मामलों में पोप के ईश्वरदत्त अधिकार का प्रतिपादन किया। यद्यपि हेनरी जीवन भर अपने राज्य में प्रोटेस्टैंट सिद्धान्तों का प्रचार रोकने का प्रयास करते रहे, फिर भी उन्होंने व्यक्तिगत कारणों से १५३१ ई. में इंग्लैंड का चर्च रोम से अलग कर दिया, इस प्रकार ऐंग्लिकन समुदाय प्रारंभ हुआ था। हेनरी के उत्तराधिकारियों के समय में उस चर्च पर प्रोटेस्टैंट विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा जिससे आजकल वह प्रोटेस्टैंट धर्म की तीन प्रमुख शाखाओं (लूथरन, कैलविनिस्ट और ऐंग्लिकन) में से एक माना जाता है किंतु वास्तव में ऐंग्लिकन समुदाय की उत्पत्ति, विकास और प्रचार का अपना अलग इतिहास है (दे. ऐंग्लिकन समुदाय)। इन तीन संप्रदायों के अतिरिक्त धर्मसुधार आंदोलन के फलस्वरूप प्रोटेस्टैंट धर्म के और बहुत से उपसंप्रदायों का उद्भव हुआ जिनका यहाँ पर उल्लेख करना अनावश्यक है। अपेक्षाकृत अधिक महत्व रखनेवाले संप्रदायों का किंचित् विवरण कोश में अन्यत्र दिया गया है (दे. प्रोटेस्टैंट धर्म)।

(३) इस सिंहावलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि लूथर द्वारा प्रवर्तित सुधार आंदोलन ने विभिन्न रूप धारण कर समस्त यूरोप को हिला दिया। प्रांरभ में चर्च का सुधार इस आंदोलन का उद्देश्य था किंतु वह शीघ्र ही चर्च की परंपरागत शिक्षा तथा चर्च की संगठनात्मक एकता पर प्रहार करने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि यूरोप के ईसाईसंसार की एकता शताब्दियों के लिए छिन्न भिन्न हो गई, शासन की दृष्टि से पूर्ण रूप से स्वतंत्र संप्रदायों का उद्भव हुआ, जो एक ही ईसा और बाइबिल को मानते हुए भी अनेक मूलभूत धर्म सिद्धांतों के विषय में भिन्न भिन्न मतों का प्रतिपादन करते हैं।

राजनीतिक दृष्टि से धर्मसुधार का परिणाम बहुत ही व्यापक रहा। यूरोप की उत्तरमध्यकालीन परिस्थिति ऐसी थी कि शासकों ने भी अनिवार्य रूप से इस धार्मिक आंदोलन में सक्रिय भाग लिया है। वे अपनी प्रजा को अपने ही धर्म में सम्मिलित करने अथवा बनाए रखने के उद्देश्य से युद्ध करने के लिए तैयार हो गए। इस प्रकार यूरोप के इतिहास में धर्म के नाम पर अनेक युद्धों की चर्चा है, जैसे, जर्मनी में ३० वर्षीय युद्ध (थरटी ईअर्स वॉर, Thirty years war) फ्रांस में युगनो युद्ध और हॉलैंड में सम्राट् चार्ल्स पंचम के विरुद्ध सफल स्वतंत्रता संग्राम।

ऊपर इसका उल्लेख हो चुका है कि काथलिक चर्च में समय समय पर सुधार आंदोलनों का प्रवर्त्तन होता रहा है किंतु १६वीं शताब्दी के विद्रोहात्मक धर्मसुधार से काथलिक चर्च को विशेष रूप से प्रेरणा मिली। इस शताब्दी में पोप के रूप में प्रतिभाशाली व्यक्तियों का चुनाव हुआ जिन्होंने चर्च के शासन में फिर अध्यात्म को प्राथमिकता दिला दी है जिससे समस्त काथलिक संसार में पोप का पद पुन: पूर्णरूपेण सम्मानित हो सका। बिशपों की सामंतशाही को समाप्त कर दिया गया और चारों और साधुस्वभाव व्यक्तियों की नियुक्ति से जनता के सामने बिशप का प्राचीन आदर्श उभरने लगा, जो अपनी प्रजा का धर्मगुरु एवं आध्यात्मिक चरवाहा (नेता) है। ट्रेंट नामक नगर में चर्च की १९वीं विश्वसभा का आयोजन हुआ जिसमें चर्च के नए संगठन के अतिरिक्त विशेष रूप में साधारण पुरोहितों के शिक्षण का प्रबंध किया गया। अत: चर्च की सभी श्रेणियों में सुधार हुआ और जनसाधारण में धार्मिक शिक्षा का उचित प्रचार हो सका। इस कार्य में धर्मसंधियों ने दूसरे पुरोहितों का हाथ बँटाया है। १६वीं शताब्दी में जेसुइट आदि कई धर्मसंघों की स्थापना हुई तथा प्राचीन (विशेषकर फ्रांसिस्की तथा कार्मेलाइट) धर्मसंघों में सुधार लाया गया जिससे वे सबके सब समय की आवश्यकताओं के अनुसार धर्म की सेवा कर सकें। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म सुधार का संभवत: सबसे गहरा एवं हितकरी प्रभाव पुराने काथिलक चर्च पर ही पड़ा।

(४) यूरोपीय धर्मसुधार का व्यापक प्रसार एवं गहरा प्रभाव देखकर अनायास ही मन में यह प्रश्न उठता है कि इस अपूर्व सफलता का क्या रहस्य है। इस सफलता के अनेक कारणों की कल्पना की गई है :

१५वीं शताब्दी के आरंभ में काथलिक चर्च की दयनीय दशा और इसके कर्णधारों की निष्क्रियता, चर्च की संपति हड़पने को उत्सुक राजनेताओं की सहायता, नवजागरण के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आंदोलन, मुद्रण के आविष्कार से प्रचार की नई सुविधाएँ। यह सब आलोच्य आंदोलन के लिए सहायक सिद्ध हुआ किंतु इसकी सफलता का रहस्य अन्यत्र ढूँढना चाहिए।

धर्मसुधार के प्रवर्तक सात्विक और धार्मिक भाव से प्रेरित थे और वे अपने प्रतिभाशाली सहयोगियों में भी धार्मिक नवजागरण की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न करने में समर्थ हुए। इनके विचार में उस नवजागरण का एकमात्र उपाय यह प्रतीत होता था कि मनुष्य अपने पुण्य कर्मों पर भरोसा न रखकर ईसा के प्रति आत्मसमर्पण करे और बाइबिल में सुरक्षित ईसा के सुसमाचार पर विश्वास करे। उन्होंने बाइबिल को अपने आंदोलन का आधार बना लिया, बाइबिल में जो शक्ति निहित है उसी के द्वारा उन्हें सफलता मिली है।

आजकल ईसाई संसार में १६वीं शताब्दी की घटनाओं पर तटस्थ दृष्टि से विचार किया जा रहा है। काथिलक यूरोपीय धर्मसुधार की रचनात्मक उपलब्धियों को स्वीकार करते हैं और प्रोटेटैंस्ट समझने लगे हैं कि चर्च की तत्कालीन बुराइयों का विरोध करना कितना ही आवश्यक क्यों न था, उसकी एकता छिन्न भिन्न करने से ईसाई धर्म को बहुत हानि हुई है। द्वितीय महायुद्ध के बाद ईसाई एकता के आंदोलन को अत्यधिक महत्व दिया जाने लगा है और धर्मसुधार के दुष्परिणाम को दूर करने की अभिलाषा बढ़ती जा रही है।

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