धर्मसंघ एक ऐसी संस्था है जिसके सदस्य जीवन भर के लिए निर्धनता, तथा (चर्च द्वारा अनुमोदित नियमसंग्रह के अनुसार) आज्ञापलन का व्रत लेते हैं। धर्मसंघ में प्राय: १८-२० की उम्र में प्रवेश हुआ करता है। एक अथवा दो साल तक नव शिष्य रहने के बाद सदस्य प्राय: तीन वर्ष तक व्रत लेता और इस अवधि के अंत में, यदि संघ तथा सदस्य दोनों की ओर से संतोष हो तो, धर्मसंघीय जीवन भर के लिए उपर्युक्त तीन व्रत लेता है। धार्मिक विश्वास एक होने पर भी संघों की अपनी अपनी विशेष साधना होती है। वेनेदिक्ती संघ में ईश्वर की पूजनपद्धति का, फ्रांसिस्की संघ में निर्धनता का, दोमिनिकी संघ में प्रार्थना तथा विद्या का, जैसुइट संघ में आज्ञापालन का विशेष ध्यान रखा जाता है। दे. फ्रांसिस्की, 'दोमिनकी', 'जेसुइट।
रोमन काथलिक चर्च, प्राच्य चर्च और ऐंग्लिकन समुदाय में इस प्रकार के धर्मसंघ पाए जाते हैं। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् कुछ प्रोटेस्टैंट संप्रदायों में भी धर्मसंध के सदृश संस्थाओं की स्थापना हुई जिनके सदस्य अपने यहाँ के संप्रदाय की धर्मसेवा करते हैं। दे. 'चर्च का इतिहास'।
�ोमन काथलिक धर्म में सबसे अधिक धर्मसंघ होते हैं। आजकल लगभग तीन लाख पुरुष और १२ लाख स्त्रियाँ धर्मसंघीय हैं और दुनिया भर में फैलकर अधिकांश किसी शिक्षासंस्था, अस्पताल अथवा मिशन में मानवता की सेवा करते हैं।