धर्म जगत् के सकल नानात्मक रूप व्यापारों की संज्ञा 'धर्म' है। प्राणी के उद्भव से लेकर उसके विकासक्रम की सभी अवस्थाओं में धर्म की व्यापकता सिद्ध है। क्षुद्र प्राणियों (जीवों) का धर्म उनकी भौतिक (अथवा शारीरिक एवं बौद्धिक) प्रकृति तक सीमित है, परंतु मनुष्य में धर्म केवल भौतिक अंशों में ही सीमित न रहकर उसके जीवन का संपूर्ण क्रम बन जाता है; वही उसके कर्त्तव्यों का संचालन करता है जैसा कि भारत के प्राचीन मंत्रदृष्टाओं को मान्य था। यह समझना कि धर्म दर्शन, 'रिलिजन' अथवा संस्कार से पृथक् सदाचार या सामाजिक कर्त्तव्यशास्त्र का कोई विधान है, यथार्थ नहीं है। उसका दर्शन और रिलिजन के साथ अविभाज्य संबंध है। सदाचार और रिलिजन का यह संबंध केवल हिंदू धर्म की बात नहीं है। महत् तत्व (Supreme Being) में आस्था रखनेवाले सभी धर्मों का यह रहस्य है। प्राय: समस्त लौकिक धाराणाओं का संबंध धर्म से है। फिर भी यह केवल लौकिक कर्तव्यशास्त्र ही नहीं है। भारतीय लौकिक धाराणाओं के बीच अबाध गति से बहनेवाली कर्त्तव्य की धारा धर्म है। यह ध्यान देने की बात है कि भारतभूमि में विकसित होनेवाले सभी दार्शनिक मत और संप्रदाय धर्म की इस मूल व्याख्या को स्वीकार करते हैं। धर्म जैसा हिंदुओं के लिए है, वैसा ही बौद्धों, वैष्णवों, वीरशैवों (पाशुपतों), जैनों तथा भारतीय दर्शन के अंतर्गत आनेवाले सभी वर्गों के लिए हैं।
विदेशों में इस प्रवाद का खंडन किया जाना चाहिए कि धर्म से तात्पर्य उन सब रीतियों और आचारों से है जिनका हिंदू मात्र पालन करते हैं अथवा जिनका पालन करने से वे विरत रहते हैं। धर्म की मर्यादाओं का हिंदू लोग आज उसी प्रकार पालन कर रहे हैं जैसे यूरोप और अमरीका में ईसाई आचार का पालन उन महाद्वीपों में हो रहा है। प्राय: सर्वत्र धर्म का अनुशासन मानने और संतों की वाणी का सच्चा सदुपयोग करने में लोग असमर्थ दिखाई देते हैं। फिर भी धर्म कोई पुराशास्त्र नहीं है। आज भी समाज को टूटने से धर्म ही बचा रहा है।
धर्म से समुत्पन्न कर्तव्य ईश्वर के प्रति, पूर्वजों के प्रति, स्त्री और बच्चों के प्रति, माता पिता के प्रति, शिक्षक के प्रति एवं अपने ग्राम अथवा देश की सामान्य जनता के प्रति तथा जीवमात्र के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। जो कुछ हमारा कर्तव्य अपने प्रति है, वही सब उपर्युक्त के प्रति भी है। प्रकृति जहाँ हमारे ऊपर शासन करती है और उसके विपरीत जाने की क्षमता मनुष्य में नहीं है, धर्म उसमें संयम की व्यवस्था करता है। इससे धर्म का यह स्वरूप स्पष्ट हो जाता है कि वह हमारे लिए आत्मसंयम के विधेयात्मक औन निषेधात्मक सभी अंगों का विवेचन करता है। संयम द्वारा ही मनुष्य निम्न जीवों से वैशिष्ट्य प्राप्त करता है।
धर्म का सबसे बड़ा सिद्धांत है कि हमें हर दशा में अपना कर्तव्य करना चाहिए; परंतु केवल भोग अथवा स्वार्थ की भावना से नहीं। यह सिद्धांत गीता में कई बार प्रतिपादित हुआ है और ऐसा ही एतद्विषयक उपनिषद् आदि वैदिक ग्रंथों में मिलता है। जो व्यक्ति नि:स्वार्थभाव से परमतत्व के निमित्त अपने समग्र कार्य अर्पित कर अपना कर्तव्य करता है, वह तृष्णा के उस बंधन से नहीं बँधता जिससे 'पुनर्जन्म' का उसे भागी बनना पड़े। धर्म के सब संप्रदाय ऐसा मानते हैं कि कर्मफल का त्याग कर कर्म को कर्तव्य मानकर करना ही सवोपयोगी है।
संसार के सभी धर्मों में ईश्वर को महत् अदृश्य शक्ति माना गया है। हिंदू भी यही मानते हैं। सभी धर्म ईश्वर को सर्वव्यापी और अंतर्यामी मानते हैं। हिंदू धर्म इस मत का सबसे बड़ा समर्थक है। अतएव हिंदू जाति इस मत को सिद्धांत रूप में मानती है। ईश्वर की आराधना करते समय उसे कुछ अर्पित करने में यही भाव है कि वह प्राणिमात्र के भीतर निवास करता है और सबकी सुनता है। इस विश्वास ने संसार की किसी भी वस्तु के भीतर प्रतीक रूप में श्रद्धा एवं विनय के साथ ईश्वर को प्राप्त करने की पद्धति ढूँढ निकाली है। इसे समझाने के लिए पूजा, अर्चन और विविध संध्योपासन की प्रक्रियाएँ प्रयुक्त होती हैं जिनके द्वारा किसी मूर्ति के भीतर ईश्वर का आधान किया जाता है; मूर्ति पत्थर की हो या काष्ठ की अथवा केवल मुट्ठीभर घास, ईश्वर की सगुणोपासना के लिए पर्याप्त है।
ईश्वरोपासना में लगे हुए सभी व्यक्ति जानते हैं कि उसकी पूजा कितनी दुस्तर है और संसार कितना प्रपंचमय है। ऐसी स्थिति में मूर्तियों और प्रतीकों से चित्त की एकाग्रता में आवश्यकता सहायता मिलती है। और सच बात यह है कि मूर्ति में ईश्वर आवास की कल्पना हिंदू के लिए अपरिहार्य है। वह यह अच्छी तरह जानता है कि वहाँ ईश्वर अवश्य है। मूर्तियों और प्रतीकों में वह स्वयं व्यंजित होता हैं। हिंदुओं की मूर्तिपूजा के पीछे यही रहस्य है। जो लोग ऐसा मानते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी है किंतु मूर्ति में नहीं हैं वे भ्रम में है।
'ईशावास्य उपनिषद्' में दो मंत्र ऐसे हैं जिनपर संपूर्ण धर्म आश्रित हैं। जो व्यक्ति अन्य व्यक्ति को अपने भीतर और स्वयं को अन्य के भीतर देखता है (आत्मवत् सर्वभूतेषु) वह शुद्ध अंत:करणवाला व्यक्ति रागद्वेष से नहीं बँधता, इस प्रकार जो व्यक्ति ज्ञानवान् है उसे न मोह होता है और न शोक। अद्वैत वेदांत का यही सार है जो दर्शन के क्षेत्र से धर्म के क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया गया है। धर्म से यहाँ तात्पर्य व्यावहारिक जीवन से है।
कुछ लोग हिंदुओं को भाग्यवादी मानते हैं और ऐसा समझते हैं कि वे मानवीय पुरुषार्थ की महत्ता से विमुख हैं। परंतु उक्त मत सर्वथा गलत है। हिंदू धर्म का यह विश्वास है कि कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं होता; इसी से पुरुषार्थ भी आ जाता है। उसकी स्थापना यह है कि मनुष्य को धर्मवत् आचरण करना चाहिए। यों पाश्चात्य तत्वज्ञों में से भी कई ऐसा मानते हैं कि मनुष्य के कर्म पूर्वावधारित (Pre-destined) हैं जिससे वह कुछ भी करने में स्वतंत्र नहीं है। हिंदू धर्म भी यह मानता है, परंतु वह पुरुषार्थ को भी आवश्यक बतलाता है। जो पुरुषार्थ धर्म पर आश्रित होता है वह निष्फल नहीं होता। मनुष्य को अपना विहित कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। वह अपने भाग्य का विधायक है। कर्मवाद का यह सिद्धांत ही है कि प्रत्येक किए गए कार्य का परिणाम होता है और मनुष्य नए कर्मों द्वारा उन परिणामों में हेर फेर अथवा विशेष परिवर्तन कर देने का भी अधिकारी है। यद्यपि यह कहना सरल नहीं है कि मनुष्यत स्वत: कोई कार्य करता है अथवा उसके सभी कर्म पूर्वविनिश्चित क्रमानुसार होते हैं। हिंदू दर्शन और समकालिक पाश्चात्य दर्शन का यह एक महान रहस्य है। यह हमारी स्वयंवेद्य अनुभूति (feeling) का विषय है कि हम स्वतंत्रतापूर्वक अपने कार्य करें और केवल वही कार्य करें जो हमें अच्छा जान पड़े। संसार के विभिन्न धर्मों के समान हिंदू धर्म का भी यह एक विधान है। संसार ईश्वर का खेल है, परंतु हमें इस खेल में धर्मानुसार सक्रिय भाग लेना चाहिए; क्योंकि वह ईश्वर का खेल है, हमारा नहीं। हमारे लिए वह यथार्थ जीवन है। हिंदू धर्म इस प्रकार हमें उत्तरदायित्व की शिक्षा देता है।
हिंदू धर्म में सत्ता की अविच्छिन्न परंपरा मानी गई हैं। उसके आधार पर प्राणियों को अनेक योनियों में जन्म ग्रहण करना पड़ता है ; किंतु प्रत्येक योनि का संबंध पिछली किसी योनि से होता है। जैसे भौतिक विज्ञान में शक्ति अथवा द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता वैसे ही आत्मा अमर है। आत्मा की अमरता यह प्रमाणित करती है कि कर्मफल के अनुसार मनुष्य पिछली योनि के पुण्य अपुण्य (लाभ अथवा हानि) के साथ जन्म ग्रहण करता है और नए जन्म में अपना निर्वाण ढूँढता है। यदि कभी किसी व्यक्ति को किसी के ऊपर आक्रोश हो और वह सहसा मृदुता का अपना कर्तव्य भूल जाए, उसे सोचना चाहए कि वह व्यक्ति किसी पिछले जन्म का उसका स्वजन या पूर्वपरिचित भी संभव है जो उसकी मैत्री या दया का पात्र है।
आचार की मृदुता और प्रार्थना अथवा प्रायश्चित द्वारा ईश्वर से क्षमा माँगने की मर्यादा ईसाइयों में बहुत पाई जाती है, परंतु वैसी निष्ठा हिंदुओं में भी है। ईसाइयों में यदि ईश्वर की दया जीसस की मूर्ति में पतिबिंवित है, हिंदुओं में महामाया (आद्याशक्ति) की प्रतिमा के सामने आत्मनिवेदन की पद्धति पाई जाती है। महामाया के रूप में हिंदुओं को एक ऐसी दिक्कालव्यापी देवी (माँ) मिली है जो सर्वभूत हितरता, जगद्धात्री है। उसका प्रसाद अनुकंपा है।
हिंदू धर्म इस बात पर विशेष ध्यान देता है कि हमारा जीवन सदाचारमय हो। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में मनुष्य किस प्रकार सदाचार्व्रात का पालन करे, धर्म इसका निर्देश करता है। भौतिक सुखों अथवा आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने में मनुष्य को धर्म की मर्यादा में अटूट विश्वास रखना चाहिए। समाज को सुसंबद्ध रखने में धर्म बड़ा सहायक है। धर्म ने ही हमारे समक्ष 'वसुधैव कुटुंबकम्' का आदर्श रखा है। वही हमारी अंतरात्मा है जिसकी आवाज हमें बल प्रदान करती है। वह स्वानुभति सॉक्रेटीज़ की भाषा में 'डियामॉन' और हिंदू धर्म में ईश्वर है। ((भरतरत्न) चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य )�