धनुष
और बाण
धनुष की सहायता
से बाण चलाना
निस्संदेह बहुत
प्राचीन कला है,
जिसका चलन आज
भी है। आहार और
आत्मरक्षा के लिए
संसार के सभी
भागों में अन्य हथियारों
की अपेक्षा धनुष
बाण का प्रयोग
सर्वाधिक और
व्यापक हुआ है।
आदिकाल से लेकर
१६वीं शताब्दी तक
धनुषबाण मनुष्य
के निरंतर सहायक
रहे हैं; यहाँ
तक कि जब अग्न्यस्त्रों
ने इनकी उपयोगिता
समाप्त कर दी,
तब भी खेल, शौक
और मनोरंजन
के रूप में इनका
प्रयोग चलता
रहा है।
धनुष - यह दूर तक मार करनेवाला अस्त्र है, जिसका उपयोग सहस्रों वर्षों से होता आ रहा है। इसके प्रसार का इतिहास अज्ञात है। सांस्कृतिक प्रगति में भाप और आग उत्पन्न करने की कला के आविष्कार का जो महत्व है, वही महत्व धनुष के आविष्कार का भी है। यह आविष्कार आज के लगभग ३० से ५० सहस्राब्दी पहले हुआ। धनुष का आविष्कार कैसे हुआ, यह अनुमान का विषय हो सकता है, लेकिन इसका जन्म पूर्व में हुआ, यह निर्विवाद है। इसे एशिया माइनर के यूनानियों और अरबों ने संभवत: ईरान मार्ग से भारत से प्राप्त किया। विश्व के प्राचीनतम साहित्य संहिता और ब्राह्मणों में इंद्र के वज्र और धनुष बाण का उल्लेख मिलता है। प्राचीन समय में सैन्य विज्ञान का नाम ही धनुर्वेद था, जिससे सिद्ध होता है कि उन दिनों युद्ध में धनुष बाण का कितना महत्व था। नीतिप्रकाशिका में मुक्तवर्ग के अंतर्गत १२ प्रकार के शस्त्रों का वर्णन है, जिनमें धनुष का स्थान प्रमुख है।
धनुष बाण की तीन सुविधाएँ स्पष्ट हैं, जिनमें यह समझ में आता है कि इसका आविष्कार और प्रयोग प्राचीन काल में कैसे संभव हो सका। इसके उत्पादन में खर्च कम पड़ता है, इसके परास की दूरी पर्याप्त होती है और बाण शीघ्रता से छोड़ा जा सकता है।
धनुष
के सामर्थ्य का
अनुमान उस शक्ति
से लगाया जाता
है, जिससे विस्थापित
होने पर वह
अपने को स्वाभाविक
स्थिति कर लेता
है और दूसरे
उस दूरी से जो
उसका विस्थापन
है। विस्थापन की
दूरी स्वयं धनुर्धर
के सामर्थ्य पर
निर्भर करती
है। धनुष के प्रभावी
परास की अनुमानित
दूरी २०० से लेकर
२५० गज तक कही गई
है।
धनुष मनुष्य का संभवत: पहला आविष्कार है, जिसमें ऊर्जा को धीरे धीरे संचित और अल्पकाल के लिए संगृहीत करके नियंत्रण एवं निर्देशपूर्वक एकाएक निर्मुक्त किया जा सकता है। अनेक गज की दूरी पर स्थित लक्ष्य पर अधिक यथार्थता से प्रहार किया जा सकता है। अग्न्यस्त्रों को छोड़कर अन्य किसी मिसाइल से इतनी यथार्थता से प्रहार नहीं किया जा सकता है।
प्राचीन संस्कृत साहित्य में धनुष के अनेक नाम मिलते हैं, जैसे सारंग, कोदंड, कार्मुक, धनु, चाप आदि। यह कहना कठिन है कि ये शब्द एक ही प्रकार के धनुष को व्यक्त करते हैं, या भिन्न भिन्न प्रकार के धनुषों के नाम हैं।
अग्निपुराण में धनुष का सांगोपांग वर्णन मिलता है। धनुष का दंड इस्पात, सींग या काठ का बना हो सकता है। धनुष की डोरी बांस या अन्य वृक्षों के तंतुओं से बनी हो सकती थी। कौटिल्य ने मुर्वा, मुंजघास, अर्क, सन, गवेधु और स्नायु के तंतुओं का उल्लेख किया है। लकड़ी के धनुष का दंड छह फुट रखा जाता था और निम्नश्रेणी में यह डेढ़ फुट कम रहता था। मूठ पर मोटे पदार्थ लपेटे जाते थे जिससे दंड स्थिर रहे और पकड़ने में सहूलित हो। इस्पात के बने धनुष की मूठ छोटी पकड़ की होती थी और उसका मध्यभाग सुंदरियों की भृकुटि के समान होता था। यह खंड खंड करके, या एक ही साथ, बनाया जाता था और इसमें स्वर्ण जड़ा जाता था। धनुष का दंड बनाने में भैंस, गैंडा या शरभ के सींग तथा चंदन, साल, बेंत, ककुभ या धवल की लकड़ी प्रयुक्त होती थी। इनमें बाँस सर्वोत्कृष्ट समझा जाता था। अर्जुन का सुप्रसिद्ध गांडीव धनुष संभवत: बाँस का ही बना था। धनुष को दंड सोने, चाँदी या ताँबे का भी हो सकता है। कौटिल्य ने चार प्रकार के धनुषों का वर्णन किया है : १. पनई (Palmyra) से निर्मित कार्मुक, २. बाँस से निर्मित कोदंड, ३. डार्नवुड का बना द्रुण और ४. हड्डी या सींग से बना धनुष। श्रीकृष्ण का धनुष सींग का था।
कोदंडमंडन में धनुष के विभिन्न लक्षणों का वर्णन मिलता है। उसमें डोरी के भारी या हल्की होने के अनुसार १८ प्रकार के धनुषों का उल्लेख है। उनके विभिन्न भार और मापें भी दी गई हैं। योगिन् के धनुष या चाप का भार २०० पल, धनुर्विद्या के प्रशिक्षार्थी का ३ पल, नरकुल के बने धनुष का भार ४४० पल, युद्ध के लिए ७०० पल का धनुष और दूरप्रहार के लिए ९५० या १,००० पल का धनुष होता था। बहुत भारी धनुष प्रभावशाली ढंग से प्रयुक्त नहीं हो सकता था। इनके अतिरिक्त कोदंडमंडन में देवताओं के दिव्य धनुषों का वर्णन भी मिलता है।
असम की खस जाति आज भी सरल धनुषबाण का प्रयोग करती है। नागा लोग गोली धनुष का प्रयोग करते हैं। १२वीं शताब्दी में यूरोप में कलदार-धनुष (cross bow) का प्रायोग होता था, जो रोमन अस्त्रक्षेपक बैलिस्टा (ballista) का छोटा रूप था। लंबे धनुष की तुलना में इसमें दो अच्छाइयाँ थी, एक तो यह कि इसमें लक्ष्य का वेधन अधिक यथार्थता से होता था और दूसरे इस धनुष के उपयोग में उतनी शक्ति नहीं खर्च होती थी, जितनी अंग्रेजों के धनुषों में। कलदार धनुष लंबाई और भार में बढ़ता गया और इसका स्वरूप जटिल होता गया। अंत में, अग्न्यस्त्रों के व्यवहार में आने पर इसका अंत हो गया। हिंदचीन में आज भी एक प्रकार के कलदार धनुष का प्रचलन है, जिसका उत्पत्तिस्थान मंगोलिया कहा गया है।
बाण - बाण का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद संहिता में मिलता है। इषुकृत् और इषुकार शब्दों का प्रयोग सिद्ध करता है कि उन दिनों बाण-निर्माण-कार्य व्यवस्थित व्यवसाय था। ऋग्वेदकालीन लोहार केवल लोहे का काम ही नहीं करता था, बाण भी तैयार करता था। बाण का अग्र भाग लोहार बनाता था और शेष बाण-निर्मातानिकाय बनाता था।
ऐतरेय ब्राह्मण (ई. पू. ६०० वर्ष) में देवताओं के धनुष का रोचक वर्णन मिलता है। देवताओं ने सोमयज्ञ के उपसद् में एक धनुष तैयार किया। धनुष का अग्रभाग अग्नि, आधार सोम, दंड विष्णु, और पंख वरुण था।
बाण का नाम शर कैसे पड़ा, इसका वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। जब वृत्रासुर पर इंद्र ने वज्र चलाया तब वज्र के चार खंड हो गए - स्फाय, यूप, रथ और अंतिम भाग शर के रूप में धरती पर गिर पड़ा। टूटने के कारण इनका नाम शर पड़ा। उसमें यह भी लिखा है कि बाण का शीर्ष वैसा ही है जैसे यज्ञ के लिए अग्नि।
अग्निपुराण में बाण के निर्माण का वर्णन है। यह लोहे या बाँस से बनता है। बाँस सोने के रंग का और उत्तम कोटि के रेशोंवाला होना चाहिए। बाण के पुच्छभाग पर पंख होते हैं। उसपर तेल लगा रहना चाहिए, ताकि उपयोग में सुविधा हो। इसकी नोक पर स्वर्ण भी जड़ा होता है।
हरिहरचतुरंग के अनुसार बाण तालतृण के दंत, शृंग या शारभ द्रुम (साल या वेणु) के बनते थे। विष्णुधर्मोत्तर में उनके धातु के, शृंग के तथा दारु (बाँस) के बने होने का उल्लेख है। इससे सिद्ध होता है कि ज्यों ज्यों समय बीतता गया पुरानी चीजें छोड़ दी गई। धातु का उपयोग महत्व का है और युद्धकला का अंतिम विकास है।
अग्निपुराण में उत्कृष्ट, सामान्य और निकृष्ट तीन प्रकार के बाणों की पहचान दी है। बाण को निर्मुक्त करने के लिए उसके पंखदार सिरे को अँगूठे की सहायता से पकड़ना चाहिए। उत्कृष्ट बाण के दंत की माप १२ मुष्टि (१ मुष्टि संभवत: १ पल के बराबर थी), सामान्य
चित्र २. तीर छोड़ने के ढंग
१. प्राथमिक, २. आनुषंगिक,
३. भूमध्यसागरीय तथा ४. मुगल।
की ११ मुष्टि और निकृष्ट की १० मुष्टि होती थी। मनु ने भी इन आयुधों का उल्लेख किया है। कालिदास ने तेज, गहरे और दृढ़ दंडों का वर्णन किया है : वेणु, शर, शलाका, दंडसार और नाराच। कुछ बाणों पर लोहे की नोक की, कुछ पर काटने के लिए अस्थि की नोक की और कुछ पर छेदने के लिए लकड़ी की नोक की व्यवस्था रहती थी। जो धनुर्धर आधे अंगुल मोटी धातु की पट्टी को अथवा चमड़े की २४ परतों को बेध देता था, वह अत्यत कुशल माना जाता था।
(गोकुलदास अग्रवाल)