धनुर्विद्या किसी निश्चित लक्ष्य पर धनुष की सहायता से बाण चलाने की कला को धनुर्विद्या (Archery) कहते हैं। विधिवत् युद्ध का यह सबसे प्राचीन तरीका माना जाता है। धनुर्विद्या का जन्मस्थान अनुमान का विषय है, लेकिन ऐतिहासिक सूत्रों से सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग पूर्व देशों में बहुत प्राचीन काल में होता था। संभवत: भारत से ही यह विद्या ईरान होते हुए यूनान और अरब देशों में पहुँची थी।
भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिककाल से ही प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी। संहिताओं और ब्राह्मणों में वज्र के साथ ही धनुष बाण का भी उल्लेख मिलता है। कौशीतकि ब्राह्मण में लिखा है कि धनुर्धर की यात्रा धनुष के कारण सकुशल और निरापद होती है। जो धनुर्धर शास्त्रोक्त विधि से बाण का प्रयोग करता है, वह बड़ा यशस्वी होता है। भीष्म ने छह हाथ लंबे धनुष का प्रयोग किया था। रघुवंश में राम और लक्ष्मण के धनुषों के टंकार का वर्णन और अभिज्ञानशाकुंतलम् में दुष्यंत के युद्धकौशल का वर्णन सिद्ध करता है कि कालिदास को धनुर्विद्या की अच्छी जानकारी थी। भारत के पुराणकालीन इतिहास में धनुर्विद्या के प्रताप से अर्जित विजयों के लिए राम और अर्जुन का नाम सदा आदर से लिया जाएगा। विलसन महोदय का कथन सच है कि हिंदुओं ने बहुत ही परिश्रम और अध्यवसाय पूर्वक धनुर्विद्या का विकास किया था और वे घोड़े पर सवार होकर बाण चलाने से सिद्धहस्त थे।
धनुषबाण की एक विशेषता यह थी कि इसका उपयोग चतुरंगिणी सेना के चारों अंग कर सकते थ। भारत में धनुष की डोरी जहाँ कान तक खींची जाती थी वहाँ यूनान में सीने तक ही खींची जाती थी।
अग्निपुराण में धनुर्विद्या की तकनीकी बारीकियों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। बाएँ हाथ में धनुष और दाएँ हाथ में बाण लेकर, बाण के पंखदार सिरे को डोरी पर रखकर ऐसा लपेटना चाहिए कि धनुष की डोरी और दंड के बीच बहुत थोड़ा अवकाश रह जाए। फिर डोरी को कान तक सीधी रेखा से अधिक खींचना चाहिए। बाण छोड़ते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। किसी वस्तु विशेष पर बाण का लक्ष्य करते समय त्रिकोणात्मक स्थिति में खड़े रहना चाहिए। धनुर्विज्ञान में इसके अतिरिक्त अन्य स्थितियों का भी उल्लेख है, जो निम्नलिखित हैं :
(क) समपद या खड़ी स्थिति, में पैर, हथेली, पिंडली और हाथ के अँगूठे एक दूसरे से घने सटे रहते हें।
(ख) वैशाख स्थिति में पंजों के बल खड़ा रहा जाता है, जाँघे स्थिर रहती हैं और दोनों पैरों के बीच थोड़ी दूरी रहती है।
(ग) मंडल में वृत्ताकार या अर्धवृत्ताकार स्थिति में खड़ा रहा जाता है। इस स्थिति में वैशाख स्थिति की अपेक्षा पैरों में अधिक अंतर रहता है।
(घ) आलीढ़ स्थिति में दाईं जाँघ और घुटने को स्थिर रखकर बाएँ पैर को पीछे खींच लिया जाता है।
(ङ) प्रत्यालीढ़ उपर्युक्त स्थिति से विपरीत स्थिति है।
(च) स्थानम् में अंगुलियों के बराबर स्थान घेरा जाता है, अधिक नहीं।
(छ) निश्चल स्थिति में बाएँ घुटने को सीधा रखा जाता है और दाएँ घुटने को मुड़ा हुआ।
(ज) विकट स्थिति में दायाँ पैर सीधा रहता है।
(झ) संपुट में दोनो टाँगें उठी हुई और घुटने मुड़े होते हैं।
(ञ) स्वस्तिक स्थिति में दोनों टाँगें सीधी फैली होती हैं और पैर के पंजे बाहर की ओर निकले होते हैं।
बाण चलाते समय धनुष को लगभग खड़ी स्थिति में पकड़ते हैं, जैसा आज भी होता है, और तदनुसार ही अंग को ऊपरी या निचला
ऊपर के दो चित्रों में लक्ष्यविंदु द्वारा बेघने की रीति दिखाई गई है। तीर यदि टागेंट के केंद्र से नीचे बेघता है, तो लक्ष्यविंदु टार्गेट की ओर और वह यदि केद्र से ऊपर पड़ता है, तो लक्ष्यविंदु धनुर्धारी की ओर
खिसकना चाहिए। नीचे के चित्र में धनुष में वीक्षण-मक्खी बाँधकर लक्ष्य बेधना दिखाया है। यह मक्खी धनुष पर इधर उधर आवश्यकतानुसार हटाई जा सकती है। अ तीर का मार्ग, ब दृष्टिरेखा तथा स
लक्ष्यविंदु और (नीचे के चित्र में) वीक्षणमक्खी
(bowsight)।
कहा जाता है। धनुष के सिरों पर सींग या लकड़ी से अधिक मजबूत और टिकाऊ किसी अन्य पदार्थ को जड़कर, सिरों को दृढ़ बनाया जात हा है। डोरी को मजबूती से चढ़ाने के लिए सिरों पर खाँचा होता है। बाण को छोड़ने से पहले उस प्रत्यंचा पर रखकर साधने के लिए बाण पर भी खाँचा बना रहता है। प्रत्यंचा खींचते समय धनुष की पीठ उत्तल और पेट अवतल होता है। धनुष के मध्यभाग में, जो दृढ़ होता है और मोड़ा नहीं जा सकता, धनुष की मूठ होती है। मूठ के ठीक ऊपर एक ओर अस्थि, सीग या हाथीदाँत की बाणपट्टिका जड़ी होती है। बाण को पीछे की ओर तानने पर पट्टिका पर बाण फिसलता है और बाण को छोड़ने से पहले इसी पर उसका सिरा स्थिर होता है। प्रत्यंचा के दोनों सिरों पर फंदे होते हैं, जिनसे वह दोनों सिरों पर दृढ़ता से आबद्ध होती है। निर्मुक्त धनुष को मोड़कर, फंदे को ऊपर सरकाकर, ऊपरी खाँचे में गिराने की क्रिया को धनुष कसना कहते हैं। धनुष को प्राय: इतनी लंबी डोरी से कसते हैं कि कसने की ऊँचाई, यानी डोरी से मूठ के भीतरी भाग तक की दूरी, धनुर्धर के खुले अँगूठे सहित मुट्ठी के बराबर हो। धनुर्धर के डीलडौल पर निर्भर यह दूरी छह और सात इंच के बीच होती है। जिस समय धनुष का उपयोग नहीं करना होता है उस समय इसकी विपरीत क्रिया करके धनुष को ढीला कर देते हैं और इस प्रकार उपयोग के समय ही धनुष तनाव की स्थिति में रहता है।
नीतिप्रकाशिका में धनुष की निम्नलिखित चालों का वर्णन है :
१. लक्ष्यप्रतिसंधान, २. आकर्षण, ३. विकर्षण, ४. पर्याकर्षण, ५. अनुकर्षण, ६. मंडलीकरण, ७. पूरण, ८. स्थारण, ९. धूनन, १०. भ्रामण, ११. आसन्नपात, १२. दूरपात, १३. पृष्ठपात तथा १४. मध्यमपात।
ऐरियन (Arrian) ने भारतीय सैनिकों को युद्ध के लिए संनद्ध करने की एक विधि का वर्णन किया है, जिसमें पैदल सैनिकों के पास धनुष अवश्य होता था। धनुष को धरती पर रखकर, बाएँ पैर से दबाकर, वे बाणों को छोड़ते थे। जो बाण प्रयुक्त होते थे, वे लगभग तीन गज लंबे होते थे। ऐरियन का कथन है कि इस रीति से छोड़े गए बाणों के प्रभाव को रोकना संभव नहीं था। ढाल या कवचपट्ट या अन्य कोई प्रबल परिरक्षा उन्हें प्रभावहीन नहीं कर सकती थी।
(जयदेव बंधु)