द्विजेश, बलरामप्रसाद मिश्र माघ कृष्ण एकादशी, संवत् १९२९ वि. को ग्राम मिश्रौलिया, बस्ती (उ.प्र.) में जन्म तथा माघ शुक्ल तृतीया संवत् २०१५ वि. (१० फरवरी सन् १९५९) को काशी में स्वर्गवास हुआ।
फारसी में अबुल फज़ल तथा संस्कृत में सिद्धांत कौमुदी का अध्ययन घर पर किया। अंग्रेजी मिशन हाई स्कूल, बस्ती में पढ़ी। गायन के गोस्वामी प्रतिमदास तथा सितारवादन के गुरु उस्ताद इमदाद खाँ थे।
खाने खिलाने तथा पहनने ओढ़ने में विशेष रुचि थी। चौदह रतन की चटनी तथा नौ गिरह की चोली का छकलिया अचकन आपनी मौलिक उद्भावना थी। टोपी और कुर्ता प्राय: अपने ही हाथ से सीते थे। मुकदमे में इतनी रुचि थी कि उच्च न्यायालय तक अपनी बहस स्वयं करते थे।
आपकी भाषा पूर्वी अवधी मिश्रित टकसाली ब्रज थी। आपके काव्य का बहुलांश देवपक्ष से ही सबंधित है। द्विजेश जी की उक्तियाँ अत्यंत सटीक तथा प्राणवंत हैं।
'गंगावतरण' पर लिखे अंतिम चरण की भाषा तथा उसका प्रवाह आपके, सच्चे कृतित्व का प्रमाण है-
फेंटति फबनि सीम मेटति सरस्वती को
भानुजा को भेंटति, समेटति चली गयी।।
हिंदी के मूर्धन्य आचार्यों ने एक स्वर से आपको केशव के आचार्यत्व तथा पद्माकार के काव्य का समन्वयभूत नवीन संस्करण कहा है।
जीवन के मध्यान्ह काल में आप उर्दू शायरी की ओर भी मुड़े। हिंदी के संस्कारों तथा मान्यताओं को कुशल रचनाकार की तरह उर्दूं के शिल्प में आपने पिरोया। हस्ती पर लिखी कुछ पंक्तियाँ प्रमाणस्वरूप दी जा रही हैं-
एक दम के दमामें से है बकती हस्ती।
एक गुल की तरह गिल से गमकती हस्ती।
पानी से 'जैश' जलती है यह मिस्लेचिराग।
यो चर्ख के चर्खे में चमकती हस्ती।।
अभी मात्र हिंदी छंदों का एक संकलन 'द्विजेश दर्शन' नाम से प्रकाशित है जिसपर सरकार द्वारा पुरस्कार मिल चुका है। शेषरचनाएँ प्रकाशनार्थ विचराधीन हैं। (प्रेमशंकर मिश्र.)
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