द्विजेंद्रलाल राय हिंदी जगत् में आप डी.एल. राय के नाम से प्रसिद्ध हैं। वह नाटककार के अतिरिक्त कवि भी थे। नाटक मैं कला तथा निस्पृह सौंदर्य की दृष्टि से, न कि भावुकता की दृष्टि से, वह कई बार रवींद्रनाथ से आगे निकल गए, ऐसा बहुत से समालोचक मानते हैं। रवींद्र के समसामयिक होते हुए भी उनकी शैली संपूर्ण रूप से रवींद्र के प्रभाव से मुक्त थी।

नाटककार के रूप में द्विजेंद्रलाल का दान सर्वोपरि रहा। उनके नाटक पाठ्य ही नहीं, बल्कि खेले जाने येग्य भी थे, जो नाटक का सब से बड़ा और वास्तविक गुण है। उनके नाटक भारत के मध्य युग को लेकर लिखे गए। साहित्य द्वारा देशप्रेम के प्रचार का सूत्रपात बँगला में यदि बंकिमचंद्र ने किया, तो यह मानना पड़ेगा कि उनके बाद इस क्षेत्र में द्विजेंद्रलाल का दान सब से अधिक रहा।

उनका पहला नाटक 'कल्कि अवतार' (१८९५) मुक्त छंद में लिखा गया था। इसमें कई हास्य रस के गीत हैं जो बेजोड़ हैं। पौराणिक कथानक पर लिखे हुए 'पाषाणी' (१९००) सीता (१९०२) भी कविता में लिखे हुए नाटक हैं। बहुतों के अनुसार 'सीता' उनका सर्वोत्तम नाटक है। इसके बाद 'ताराबाई' (१९०३) और सोहराब रुस्तम (१९०८) लिखे गए। ताराबाई राजस्थान के गौरवमय इतिहास पर आधारित है। दोनों में बहुत से गीत हैं। बाद को द्विजेंद्रलाल ने अपने नाटक को छंदों के मोह से मुक्त कर दिया और वह गद्य नाटक लिखने लगे। 'मेवाड़ पतन' तथा 'शाहजहाँ' (१९१०) इस युग की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं और इनका अभिनय हजारों बार हुआ होगा और अब भी यदा कदा होता रहता है। द्विजेंद्रलाल ने बँगला नाटक को धार्मिक गतानुगतिकता और रोगग्रस्त भावुकता से निकालकर देशभक्ति तथा हिंदू मुस्लिम एकता के क्षेत्र में ला दिया, साथ ही कला की दृष्टि से वह बहुत ही श्रेष्ठ रहे। डॉ. सुकुमार सेन ने द्विजेंद्रलाल को जितना बड़ा साहित्यकार माना, उससे वह कहीं ऊँचे थे। द्विजेंद्रलाल अपने युग के बँगला रंगमंच के सब से सफल नाटककार और वह बहुत बड़े कवि भी रहे।

वह भी बंकिमचंद्र की तरह डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। वह ब्रिटिश सरकार की तरफ से खेती में विशेषज्ञ बनने के लिए विलायत भेजे गए थे। वहाँ उन्होंने यूरोपीय संगीत का अध्ययन किया। उनके देशभक्तिपूर्ण तथा अन्यान्य संगीतों में कई बार यूरोपीय संगीत का सुर दिया गया।

सं.ग्रं.- सुकुमार सेन : हिस्ट्री ऑव बेंगाली लिटरेचर; मंन्मथनाथ गुप्त : बँगला साहित्य दर्शन।

(म्मन्मनाथ गुप्त)