देशीभाषा 'देशी' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द 'देश' से है और इस अर्थ में अन्य शब्द 'देश्य' तथा देशीय भी प्रयुक्त मिलते हैं। यह विशेषण भाषा के अतिरिक्त शब्दावली, नृत्यपद्धति तथा संगीतपद्धति के लिए भी प्रयुक्त मिलता है। इस प्रकार 'देशी' और 'देश्य' विशेषण से युक्त 'देशी भाषा', 'देशी शब्द', 'देशी नृत्य' तथा 'देशी संगीत' इन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग भारतीय वाङ्मय में उपलब्ध है। शास्त्रीय अथवा परिनिष्ठित से भिन्न प्रणाली तथा पद्धति का संकेत करने के लिए भी यह शब्द भारतीय वाङ्मय में प्रयुक्त होता है। तौर्यत्रिक (गान, वादन तथा नृत्य) के संबंध में संगीतशास्त्र के ग्रंथों में यह सकेत मिलता है कि देशी पद्धति वह है, जो 'मार्ग' (शास्त्रीय अथवा परिनिष्ठित) पद्धति से भिन्न है और जिसमें तत्तद् देशीय जनता की रुचि के अनुरूप लोकप्रचलित पद्धति का निर्वाह पाया जाता है। इस प्रकार 'देश' और अंगरेजी के 'फोक' शब्द का समानार्थक है। इसी तरह भाषा अथवा शब्द के अर्थ में भी 'देशी' शब्द का तात्पर्य उस प्राकृत वाग्व्यापार तथा उसकी निजी शब्दावली से है, जिसका प्रयोग जनसामान्य में पाया जाता है।

भाषा तथा शब्द के सबंध में 'देशी', 'देश्य', 'देशीमत', 'देशी प्रसिद्ध' इन चार शब्दों का प्रयोग संस्कृत तथा प्राकृत के वैयाकरणों ने किया है। भरत ने 'नाट्यशास्त्र' में शब्दों की तीन कोटियों का संकेत किया है- तत्सम, तद्भव तथा देशीमत (नाट्यशास्त्र १७/३)। यहाँ भरत का तात्पर्य स्पष्टत: उन शब्दों से हे जो अनिर्णीत स्त्रोत से जनवाग्व्यापार में आ गए थे। अन्यत्र भरत ने 'देशभाषा' शब्द का भी प्रयोग किया है (नाट्यशास्त्र १७/४६-४८), किंतु यहाँ 'देशभाषा' से तात्पर्य संस्कृत से इतर सभी प्राकृत विभाषाएँ हैं। आगे चलकर महाराष्ट्री के जैन कवि पादलिप्त ने अपनी 'तरंगवती कथा' की भाषा को, जो वस्तुत: (जैन) महाराष्ट्री है 'देसी वयण' कहा है। छठी शती ईसवी के प्राकृत वैयाकरण चंड में भाषा या विभाषा के लिए इस शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किंतु संस्कृतेतर तथा प्राकृतेतर शब्दों का उसने 'देशी प्रसिद्ध' संज्ञा दी है।

नवीं शती ईसवी के लगभग से 'देशी' शब्द अपभ्रंश के समानार्थक रूप में प्रचलित हो गया था। स्वयंभू ने 'पउम चरिउ' में 'देशी भाषा' को वह सरिता माना है जिसके दोनों किनारे संस्कृत और प्रकृत हैं और जो कवियों के दुष्कर धनशब्द के शिलाखंडों से सुशोभित हैं। भाषा के अर्थ में पुष्पवंत ने भी 'महापुराण' में 'देशी' शब्द का प्रयोग किया है। अन्यत्र 'देशी' शब्द का प्रयोग पद्मदेव के 'पासाणाह चरिउ' तथा लक्ष्मणदेव के 'णेमिणाह चरिउ' में मिलता है। ऐसा जान पड़ता है, जहां संस्कृत तथा प्राकृत के वैयाकरण, प्राकृत के वैयाकरण, प्राकृत के बाद विकसित भाषास्थिति को अपभ्रष्ट कहकर हीन संज्ञा से अभिहित करते थे, वहां अपभ्रंश के कवि इस हीनता को हटाने के लिए अपने आपको गौरव के साथ देशी भाषा का कवि घोषित कर रहे थे।

देशी शब्द का प्रयोग भाषा तथा शब्दसंपत्ति के सबंध में संस्कृत आलंकारिकों और संस्कृत-प्राकृत-वैयाकरणों ने भी किया है। रुद्रट ने अपने 'काव्यालंकार' में 'देश्य' या 'देशी' शब्द उन्हें माना है, जिनकी प्रकृति-प्रत्यय-मूलक व्युत्पत्ति का पता नहीं है (काव्यालंकार ६/२७)। आगे चलकर हेमचंद्र ने इस प्रकार के शब्दों का एक कोश 'देशीनाममाला' के नाम से निबद्ध किया। इस ग्रंथ के भूमिका भाग में हेमचंद्र ने बताया है कि जो शब्द व्याकरण से नहीं सिद्ध हैं, संस्कृत कोशों में ही प्रसिद्ध हैं, जिन शब्दों की सिद्धि अभिधा शक्ति के अतिरिक्त गौणी और लक्षणा शक्ति से भी संभव नहीं है, ऐसे शब्द जो केवल देश-विशेष में प्रचलित हैं और संख्या में अनंत हैं देशी कहलाते हैं (देशी नाममाला १/३-४)। इस प्रकार हेमचंद्र के अनुसार संस्कृत के तत्सम और प्राकृत व्याकरण के ध्वनिपरिवर्तन नियमों के आधार पर बने तद्भव शब्दों से इतर अपरिज्ञात व्युत्पत्तिक शब्द देशी हैं। इधर की खोजों ने यह सिद्ध किया है कि हेमचंद्र ने 'देशी नाममाला' में जितने देशी शब्द संकलित किए हैं उनमें से कई के मूलस्त्रोत संस्कृत के जान पड़ते हैं और शेष शब्दों को द्राविड़ स्त्रोत से आया हुआ माना जाने लगा है। इन स्त्रोतों से आए शब्दों के अतिरिक्त कुछ अनुकरणात्मक शब्द हैं और शेष ऐसे भी हैं जो देशी भाषा ने स्वयं गढ़े हैं। मराठी के प्रसिद्ध संत कवि ज्ञानेश्वर ने 'ज्ञानेश्वरी' की भाषा को 'देशी बंध' घोषित किया है। इन्हीं दिनों हिंदी के प्रसिद्ध कवि विद्यापति ने अनी अवहट्ट रचना 'कीर्तिलता' की भाषा को 'देसिल वयन' की संज्ञा दी है।

आधुनिक अर्थ में देशी भाषा से आशय देश में प्रचलित उन भाषाओं में से किसी एक से है जिनका उद्गम एवं विकास प्राकृत अथवा अपभ्रंश से हुआ हो अथवा जिनका उद्भव स्थानीय बोलियों के आधार पर प्राय: स्वतंत्र रूप से हुआ हो। भारतीय संविधान के अनुसार भारत में इस तरह की १४ देशी भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है। इनमें से हिंदी, मराठी, गुजराती, बँगला, उड़िया आदि प्रथम (आर्यभाषाओं के) वर्ग में तथा तमिल, तेलुगु, कन्नड आदि द्वितीय (द्राविड़) वर्ग में आती हैं।

सं.ग्रं.- भरत : नाट्यशास्त्र; रुद्रट : काव्यालंकार; हेमचंद्र : देशीनाममाला; विद्यापति : कीर्तिलता; डा. गजानन वासुदेव पगारे : हिस्टारिकल ग्रामर ऑव अपभ्रंश।

(भोलशंकर व्यास)