देवीभागवत अठारहों महापुराणों में 'भागवत' के नाम से जिस एक महापुराण की गणना की गई है वही किन्हीं के मत से श्रीमद्भागवत है तथा किन्हीं के मत से 'देवी भागवत' के नाम से प्रसिद्ध है। जहाँ वैष्णव लोग भगवान् विष्णु के अंशभूत भगवान् श्रीकृष्ण के माहात्म्य वर्णन से युक्त श्रीमद्भागवत् की महापुराण होने का महत्व प्रदान करते हैं, वहीं शाक्त लोग शक्ति अर्थात् भगवती दुर्गा के माहात्म्य का वर्णन करनेवाले देवी भागवत को ही महापुराण मानते हैं। ऐसा लगता है कि हमारे देश के इन दो प्रमुख संप्रदायों - वैष्णव तथा शाक्तों ने एक दूसरे की स्पर्धा में उक्त मत प्रकट किए होंगे। इन दोनों पुराणों की रचनाप्रक्रिया तथा शैली में अद्भुत समानता है। इन दोनों ही भागवत पुराणों में न केवल १२-१२ स्कंध ही हैं वरन् इनके श्लोकों की संख्या भी १८,००० है। मत्स्य, नारदीय तथा पद्म पुराण में भागवत पुराण की जो विषयानुक्रमणी दी गई है तथा जो लक्षण बताए गए हैं, वे सब के सब श्रीमद्भागवत में मिलते हैं और देवीभागवत के उपलब्ध संस्करण से उनका मेल नहीं बैठता। इतना ही नहीं, नारदीय पुराण ने स्पष्ट रूप से श्रीमद्भागवत को ही महापुराण की कोटि में स्वीकार किया है। किंतु मत्स्य महापुराण में भागवत की जो विषय सूची दी गई है, उसके अनुसार 'सारस्वतकल्प प्रसंग' श्रीमद्भागवत में नहीं है। किंतु शिवपुराण के उत्तरखंड में देवीभागवत को ही महापुराण की कोटि में रखने का आग्रह किया गया है। 'देवीयामल' नामकग्रंथ के अनुसार जिस पुराण में देवी के नाना अवतार, देवी का रहस्य और चरित तथा राधा की उपासना का वर्णन हो उसे ही भागवत पुराण समझना चाहिए। चित्सुख के 'भागवत्कथा संग्रह' में भी कुछ ऐसे ही लक्षणों का वर्णन है जो देवी भागवत में तो मिलते हैं, किंतु श्रीमद्भागवत में नहीं मिलते। इस प्रकार भागवत के रूप में श्रीमद्भागवत् तथा देवी भागवत दोनों ही को महापुराण मानने के संबंध में परस्पर विरोधी मतों की बहुलता है। भागवत नामक एक उपपुराण भी है किंतु भाषा, विषय विन्यास एवं पांडित्यपूर्ण शैली की उत्कृष्टता के कारण श्रीमद्भागवत का भारतीय विद्वत्समाज में आदरणीय स्थान है। उसके कारण अधिकतर लोग उसे ही 'भागवत' महापुराण मानते हैं। यों देवीभागवत का भी शाक्तों के साथ भारतीय स्मार्त धर्मानुयायियों के बीच बड़ा आदर है।

महापुराणों में क्रम के अनुसार देवीभागवत अथवा भागवत का पाँचवा स्थान है और सभी पुराण इस सबंध में एकमत हैं। वर्णित माहात्म्य के अनुसार भोग एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाले इस देवीभागवत पुराण की पुण्यकथा महर्षि वेदव्यास ने स्वयं महाराज जनमेजय को सुनाई थी। ये महाराज जनमेजय कोई दूसरे नहीं, उन्हीं पांडव वंशीय राजा परीक्षित के पुत्र थे, जिन्हें व्यास देव के पुत्र शुकदेव ने श्रीमद्भागवत की कथा सुनाई थी। देवीभागवत की एक कथा के अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम की सविधि समाप्ति के अनंतर शुकदेव जी के अपने पिता व्यासदेव के समीप आवे पर पिता ने उन्हें विवाह करके गृहस्थाश्रम की दीक्षा लेने की प्रेरणा दी। किंतु जन्मकाल से ही संसार में सर्वत्र व्याप्त दु:ख, चिंता एवं रोग दोष से संतप्त शुकदेव जी ने अपने पिता की इस इच्छा के पालन में आनाकानी की। व्यासदेव ने उन्हें देवीभागवत के अध्ययन का आदेश दिया। शुकदेव ने पिता की आज्ञा का पालन किया, फिर भी उन्हें वह वास्तविक शांति नहीं मिली, जिसकी खोज में वे दिन रात व्यग्र रहते थे। व्यास जी ने शुकदेव को विदेहराज जनक के दरबार में जाने का आदेश दिया। वहाँ पहुँचने पर महाराज जनक ने शुकदेव की सभी शंकाओं एवं चिंताओं का निराकरण किया, जिससे उनके चित्त का बड़ी शांति मिली। तदनंतर जनक के यहाँ से सुप्रसन्न होकर वह अपने पिता के समीप पहुँचे और पितरों की कन्या पीवरी से अपना विवाह किया। इस विवाह से शुकदेव को चार पुत्र तथा एक कन्या हुई। किंतु जन्म से ही विरागी शुकदेव ने इसके बाद गृहस्थी का जीवन एवं परिवार के साथ अपने पिता का संग भी छोड़ दिया। कैलास पर्वत की एक गुफा में पहुँचकर उन्होंने ऐसी समाधि ली कि फिर नहीं उठे और परमात्मा में लीन हो गए। अपने युवापुत्र के इस असामयिक तिरोधान से व्यासदेव अत्यंत विचलित हो उठे और उनकी अगाध ज्ञानराशि भी पुत्र की ममता में व्यर्थ बन गई। वे स्वयं कैलास पहुँचे और कैलास के अधीश्वर शंकर जी को अपनी उत्कट आराधना से सप्रसन्न किया। शंकर जी से उन्होंने केवल यही इच्छा प्रकट की कि पुत्र का दर्शन मिले। शंकर जी ने व्यास का बहुत कुछ समझाया दर्शन मिले। शंकर जी ने व्यास को बहुत कुछ समझाया बुझाया किंतु जब वे अपने निश्चय से विचलित नहीं हुए, शुकदेव की छाया का दर्शन कराकर उनका शोकावेग दूर किया।

इस प्रकार संसार की दुर्निवार माया ममता से व्यास जैसे वेद वेदांगों के व्याख्याता को भी अत्यंत अधीर एवं पीड़ित होने की भूमिका के साथ देवीभागवत की पुण्यकथा का आरंभ हुआ है। संपूर्ण संहिता में यद्यपि सैकड़ो अवांतर कथाएँ हैं, किंतु देवीभागवत का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है - आद्या शक्ति दुर्गा की महिमा का वर्णन तथा उनकी आराधना एवं पूजा के विविध विधानों का सांगोपांग निरूपण। इस महापुराण के अनुसार भगवती दुर्गा ही परम तत्व हैं। निर्गुण तथा सदैव सर्वत्र विद्यमान रहनेवाली देवी की देश और काल की सीमा से बाँधा नहीं जा सकता। भगवती दुर्गा सर्वव्यापिका है, निर्विकार है, कल्याणी हैं। योगसाधन द्वारा गम्य हैं और सबको धारण करनेवाली हैं। जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति से परे तुरीयावस्था मेंस दैव अवस्थित भगवती की सात्विकी, रासी एवं तामसी शक्तियाँ ही क्रमश: महालक्ष्मी, महासरस्वती तथा महाकाली के रूप में प्रकट होती हैं तथा जो निर्गुण तथा दुर्गम शक्ति भगवती देवी का दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध है वही निर्गुण एवं व्यापक शक्तिमान् परमात्मा भी है और जो परमात्मा है वही शक्ति भी है। दोनों एक ही तत्व हैं (दे., देवीभागवत, तृतीय स्कंध, ६ तथा ७ अध्याय)।

इसी प्रकार संपूर्ण देवीभागवत में स्थान स्थान पर भगवती दुर्गा के विविध स्वरूपों तथा माहात्म्यों का विपुल वर्णन है। इसमें दुर्गा की आराधना एवं पूजा के भी विविध प्रकार बतलाए गए हैं। मूल प्रकृति से आरंभ होकर यह वर्णन मणिद्वीप की देवी भुवनेश्वरी तक पहुँचता है। दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती तथा सावित्री ये पाँच देवी के विविध रूपों में प्रमुख माने गए हैं तथा नवें स्कंध से लेकर अंत के चार स्कंधों में मुख्यतया इन्हीं से सबंधित कथाएँ दी गई हैं। इसी प्रकार गंगा, तुलसी, षष्ठी, मंगलचंडिक, काली, स्वाहा, स्वधा, पुष्टि, तुष्टि, संपत्ति आदि रूप भी भगवती दुर्गा के ही हैं। यही क्यों, इस चराचर जगत् में जितनी भी दृश्यमान् शक्तियाँ हैं, वे सब भगवती के ही प्रतिरूप हैं। देवी भागवत में देवी दृष्टि से शक्ति के विविध रूपों की उपासना की विपुल चर्चा की गई है और इसपर परवर्ती तंत्र शास्त्रों का भी व्यापक प्रभाव स्पष्टतया दिखाई पड़ता है।

(रामप्रताप त्रिपाठी)