देवनागरी (नागरी) भारत ही नहीं समस्त विश्व में संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के माध्यम से फैली हुई है। यद्यपि भारत तथा विदेशों में भी संस्कृतादि के ग्रंथ बँगला, गुजराती, तेलुगु, ग्रंथलिपि और रोमन आदि लिपिसंकेतों के माध्यम से लिखे जाते हैं; तथापि मैक्सम्यूलर तथा अनेक अन्य विदेशी विद्वानों के प्रयास से भारत से बाहर विश्व के प्राय: सभी विकसित एवं अध्ययनशील देशों में भारती विद्या (इंडोलॉजी) और संस्कृत की विद्वन्मंडली में इस लिपि का प्रचार हो गया है। देवनागरी के आरंभिक रूप से भारत की अनेक लिपियों का - जिनमें बँगला, राजस्थानी (राजपूताना) कैथी, महाजन, मैथिली और उड़िया आदि हैं - देशकाल क्रमानुसार विकास हुआ है। मराठी भाषा भी प्राय: इसी देवनागरी लिपि में आज लिखी जाती है। उसके केवल कुछ वर्णों में हिंदी की 'देवनागरी' लिपि से थोड़ा बहुत आकृतिभेद है। वर्तमान स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा 'हिंदी' लिपि में लिखी जाती है, यही भारत की राष्ट्रलिपि है।
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से इस लिपि को अक्षरात्मक (सिलेबिक) लिपि कहते हैं। लिपि के विकाससोपानों की दृष्टि से 'चित्रात्मक', 'भावात्मक' और 'भावचित्रात्मक' लिपियों के अनंतर 'अक्षरात्मक' स्तर की लिपियों का विकास माना जाता है। पाश्चात्य और अनेक भारतीय भाषाविज्ञानविज्ञों के मत से लिपि की अक्षरात्मक अवस्था के बाद अल्फाबेटिक (वर्णात्मक) अवस्था का विकास हुआ। सबसे विकसित अवस्था मानी गई है ध्वन्यात्मक (फोनेटिक) लिपि की। 'देवनागरी' को अक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि इसके वर्ण- अक्षर (सिलेबिल) हैं- स्वर भी और व्यंजन भी। 'क', 'ख' आदि व्यंजन सस्वर हैं- अकारयुक्त हैं। वे केवल ध्वनियाँ नहीं हैं अपितु सस्वर अक्षर हैं। अत: ग्रीक, रोमन आदि वर्णमालाएँ हैं। परंतु यहाँ यह ध्यान रखनेकी बात है कि भारत की 'ब्राह्मी' या 'भारती' वर्णमाला की ध्वनियों में व्यंजनों का 'पाणिनि' ने वर्णसमाम्नाय के १४ सूत्रों में जो स्वरूप परिचय दिया है- उसके विषय में 'पंतजलि' (द्वितीय शती ई.पू.) ने यह स्पष्ट बता दिया है कि व्यंजनों में संनियोजित 'अकार' स्वर का उपयोग केवल उच्चारण के उद्देश्य से है। वह तत्वत: वर्ण का अंग नहीं है। इस दृष्टि से विचार करते हुए कहा जा सकता है कि इस लिपि की वर्णमाला तत्वत: ध्वन्यात्मक है, 'अक्षरात्मक' नहीं।
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से 'देवनागरी' लिपि की वर्णमाला विश्व में परंपरागत सभी वर्णमाला लिपियों की अपेक्षा पूर्णतर है। आज 'रोमन' वर्णमाला को अनेक सांकेतिक चिन्हों (डायक्रिटिकल मार्क्स) और नवलिपिसंकेतों के अनुयोग द्वारा, सर्वभाषालेखन के उद्देश्य से पूर्णतम बनाने की चेष्टा की गई है। उसमें विश्व की सभी भाषाओं को- उनके शुद्धोच्चारणानुसार लिखने की क्षमता बताई जाती है, फिर भी वहाँ भाषा की एक उच्चार्य ध्वनियों के लिए अनेक लिपिसंकेतों का प्रयोग (यथा 'ख्', के लिए) आवश्यक होता है। परंपरागत लिपियों की तुलना में 'देवनागरी' निश्चय ही पूर्णतर है। वैज्ञानिक लिपि की तुला के अनुसार किसी भी भाषा की लिपि के लिए मुख्यत: दो बातें आवश्यक हैं : (क) भाषा में जितनी उच्चारण ध्वनियाँ हो उन सबके लिए अलग अलग लिपिचिन्ह हों; और (ख) प्रत्येक लिपिचिन्ह द्वारा केवल एक उच्चारणध्वनि का बोध हो और एक उच्चारणध्वनि का बोध करानेवाला केवल एक लिपिचिन्ह होना चाहिए। इस कसौटी के अनुसार 'देवनागरी' की वर्तमान वर्णमाला में कुछ त्रुटियाँ हैं, कुछ स्वरों के लिपिचिन्हों का अभाव होने से एक एक लिपिचिन्ह द्वारा अनेक उच्चारण ध्वनियों का बोध कराया जाता है। उच्चारण के मूल रूपों में परिवर्तन के कारण 'श्', 'ष्', आदि एकाध लिपिचिन्ह अनावश्यक जान पड़ते हैं। फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि परंपरागत सभी अन्य लिपियों की अपेक्षा 'देवनागरी' लिपि अधिक पूर्ण और अधिक वैज्ञानिक है।
'देवनागरी' या 'नागरी' नाम का प्रयोग 'क्यों' प्रारंभ हुआ और इसका व्युत्पत्तिपरक प्रवृत्तिनिमित्त क्या था- यह अब तक पूर्णत: निश्चित नहीं है। (क) 'नागर' अपभ्रंश या गुजराती 'नागर' ब्राह्मणों से उसका संबंध बताया गया है। पर दृढ़ प्रमाण के अभाव में यह मत संदिग्ध है। (ख) दक्षिण में इसका प्राचीन नाम 'नंदिनागरी' था। हो सकता है 'नंदिनागर' कोई स्थानसूचक हो और इस लिपि का उससे कुछ संबंध रहा हो। (ग) यह भी हो सकता है कि 'नागर' जन इसमें लिखा करते थे, अत: 'नागरी' अभिधान पड़ा और जब संस्कृत के ग्रंथ भी इसमें लिखे जाने लगे तब 'देवनागरी' भी कहा गया। (घ) सांकेतिक चिन्हों या देवताओं की उपासना में प्रयुक्त त्रिकोण, चक्र आदि संकेतचिन्हों को 'देवनागर' कहते थे। कालांतर में नाम के प्रथमाक्षरों का उनसे बोध होने लगा और जिस लिपि में उनको स्थान मिला- वह 'देवनागरी' या नागरी कही गई। इन सब पक्षों के मूल में कल्पना का प्राधान्य है, निश्चयात्मक प्रमाण अनुपलब्ध हैं।
नागरी : उद्भव और विकास - प्राचीन भारत की दो लिपियों में 'खरोष्ठी' दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी और 'ब्राह्मी' बाएँ से दाएँ। प्राय: यहाँ के पश्चिमोत्तर सीमाप्रदेशों (पंजाब, कश्मीर) में ही प्राचीन काल में खरोष्ठी का प्रचार था। दूसरी लिपि 'ब्राह्मी' का क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। भारतीयों की परंपरागत मान्यता के अनुसार संस्कृत भाषा (ब्राह्मी या भारती) और ब्राह्मीलिपि का प्रवर्तन सृष्टिकर्ता 'ब्रह्मा' द्वारा आरंभिक युग में हुआ। कदाचित् इस कल्पना या मान्यता का आधार 'ब्राह्मी' नाम है। 'ब्राह्मी तु भारतीय भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती द्वारा 'अमरकोश' ने 'ब्राह्मी' पद के अर्थबोध की व्यापक दृष्टि का संकेत किया है। यह शब्द 'सरस्वती' का भी और 'भाषा' (मुख्यत: संस्कृत भाषा) का भी अभिधान है। पर इन पौराणिक और परंपरागत सिद्धांतों में पूर्व और पश्चिम के आधुनिक इतिहासवेत्ता आस्था नहीं रखते। 'वेद' या 'वैदिक वाङ्मय' के लिए प्रचलित 'श्रुति' शब्द के आधार पर अनेक पाश्चात्य पंडितों ने सिद्धांत निकाला है कि 'दशोपनिषत्काल' तक निश्चय ही भारत में लेखनविद्या या लिपिकला का अभाव था। वैदिक वाङ्मय का अध्यापन गुरु शिष्य की मुख परंपरा और स्त्रवण परंपरा से होता था। लिपि का अभाव ही उसका मुख्य कारण था। 'पाणिनि' ई.पू. चतुर्थ शताब्दी का माननेवाले 'मैक्समूलर' के मत से उस समय तक लिपि का अभाव था। 'बर्नेल' के अनुसार (अशोक) लिपि का उद्भव फिनीशिया वासियों से लिखना सीखने के बाद उन्हीं की लिपि से हुआ। यूरोप की भी प्राय: अधिकांश लिपियाँ उसी लिपि से विकसित मानी गई हैं। भारत में इसका प्रवेश ई.पू. ५०० से ४०० तक के बीच हुआ। उक्त मत से असहमति प्रकट करते हुए 'बूलर' का कहना है कि भारत में प्राचीन लिपि का विकास 'सामी' (सेमिटिक) लिपि से हुआ है, जिसके अक्षरों का प्रवेश ई.पू. ८०० के आस पास (संभवत:) हुआ था। ई.पू. ५०० के लगभग अथवा उससे भी पूर्व भारतीयों द्वारा ब्राह्मी के विकास और निर्माण का कार्य बड़े श्रम से संपन्न हो गया था। 'बूलर' ने लिपि-विद्या-संबंधी ग्रंथ में कहा है कि कुछ नव्यतम प्रमाणों के आधार पर भारत में लिपि के प्रवेश का समय ई.पू. १०वीं शती या उससे भी पूर्व स्थिर किया जा सकता है।
अशोक के शिलास्तंभ अभिलेखों से स्पष्ट है कि ई.पू. चतुर्थ शताब्दी तक लिपिकला भारत में काफी विकसित हो चुकी थी। पिपरावा, बडली, सोहगौरा, महस्थान आदि में उपलब्ध अशोक पूर्व युगीन लघु लेखों के आधार पर भारत में लिपिप्रयोग का कार्य ई.पू. ५वीं शती के पूवार्ध तक चला जाता है। प्राचीन यूनानी यात्री लेखकों के अनुसार कागज की और ई.पू. चतुर्थ शती में भारत को लेखन कला की अच्छी जानकारी थी। बौद्ध वाङ्मय के आधार पर ई.पू. ४०० या उसके भी पहले ई.पू. छठीं शती तक उस जानकारी की बात प्रमाणित है। स्वयं 'पाणिनि' के धातुपाठ में लिपि और लिबि धातु हैं। डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अनेक शास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर सिद्ध किया है कि 'पाणिनि' और 'यास्क' से भी अनेक शताब्दी पूर्व भारत में अनेक लिखित ग्रंथ थे और लेखन कला का प्रयोग भी होता था। बूलर, 'बॉटलिक' और 'रॉथ' ने भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से भारत में लिपिकला की प्राचीनता स्वीकार की है। कोलब्रुक कनिंघम, गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि भी भारत में लेखनकला का व्यवहार 'बुद्ध से अनेक शताब्दी पूर्व' मानते हैं।
ब्राह्मी की उत्पत्ति को विद्वानों का एक वर्ग अभारतीय मानता है। दूसरा वर्ग भारतीय। डिके असीरीयाई कीलाक्षरों से संबंद्ध 'सामी' से, (२) 'कुपेरी' चीनी लिपि से, (३) डा. साहा आदि 'अरबी लिपि' से (४) 'सेनार्ट', 'विल्सन' आदि ग्रीक लिपि से, (५) बूलर, बेवरर, टेलर आदि व्यापारियों द्वारा उनकी 'मेसोपोटामिया' और 'आरमयिक' लिपियों से इसका संबंध बताते हैं। ग्रीक का भी इसी से संबंध है। अत: विलियम और बेवर के मत भी इसी पक्ष के पोषक हैं।
दूसरे वर्ग के लोग इसका विकास स्वतंत्र रूप में भारतीय सीमा के भीतर ही मानते हैं। इधर हड़प्पा और मोहेंजोदड़ों से उपलब्ध मुद्राओं के लेखखंडों के आधार पर सिंधुघाटी सभ्यता की लिपि से 'ब्राह्मी' की उत्पत्ति बताते हैं। कुछ साहसिक विद्वानों ने सुमेरी, सिंधुघाटी और वैदिक आर्य- तीनों सभ्यताओं को एक मूल स्त्रोत से विकसित मानकर किसी एक लिपि से अथवा प्राचीनतम सुमेरी लिपि से ब्राह्मी के उद्भव का अनुमान किया है। पर यह मत अभी गंभीरत: विचारणीय है। सिंधुघाटी की लिपि ब्राह्मी और खरोष्ठी दोनों से विचित्र और भिन्न लगती है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अधिकांश भारतीय पंडितों के मतानुसार 'देवनागरी' का विकास उस 'ब्राह्मी' से हुआ है जो ई.पू. हजारों वर्षों से भारत में प्रचलित थी और जिसका विकास स्वयं भारत में और भारतीयों द्वारा हुआ था।
लगभग ई. ३५० के बाद ब्राह्मी की दो शाखाएँ लेखन शैली के अनुसार मानी गई हैं। विंध्य से उत्तर की शैली उत्तरी तथा दक्षिण की (बहुधा) दक्षिणी शैली। (१) उत्तरी शैली के प्रथम रूप का नाम 'गुप्तलिपि' है। गुप्तवंशीय राजाओं के लेखों में इसका प्रचार था। इसका काल ईसवी चौथी पाँचवीं शती है। (२) कुटिल लिपि का विकास 'गुप्तलिपि' से हुआ और छठी से नवीं शती तक इसका प्रचलन मिलता है। आकृतिगत कुटिलता के कारण यह नामकरण किया गया। इसी लिपि से नागरी का विकास नवीं शती के अंतिम चरण के आसपास माना जाता है। 'राष्ट्रकूट' राजा 'दंतदुर्ग' के एक ताम्रपत्र के आधार पर दक्षिण में 'नागरी' का प्रचलन संवत् ६७५ (७५४ ई.) में था। वहाँ इसे 'नंदिनागरी' कहते थे। राजवंशों के लेखों के आधार पर दक्षिण में १६वीं शती के बाद तक इसका अस्तित्व मिलता है। देवनागरी (या नागरी) से ही 'कैथी', 'महाजनी', 'राजस्थानी', और 'गुजराती' आदि लिपियों का विकास हुआ। प्राचीन नारी की पूर्वी शाखा से दसवीं शती के आसपास 'बँगला' का आविर्भाव हुआ। ११वीं शताब्दी के बाद की 'नेपाली' तथा वर्तमान 'बँगला', 'मैथिली', एवं 'उड़िया', लिपियाँ इसी से विकसित हुई। भारतवर्ष के उत्तर पश्चिमी भागों में (जिसे सामान्यत: आज कश्मीर और पंजाब कहते हैं) ई. ८वीं शती तक 'कुटिललिपि' प्रचलित थी। कालांतर में ई. १०वीं शताब्दी के आस पास 'कुटिल लिपि' से ही 'शारद लिपि' का विकास हुआ। वर्तमान कश्मीरी, टाकरी (और गुरुमुखी के अनेक वर्णसंकेत) उसी लिपि के परवर्ती विकास हैं।
दक्षिणी शैली की लिपियाँ प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उस परिवर्तित रूप से निकली है जो क्षत्रप और आंध्रवंशी राजाओं के समय के लेखों में, तथा उनसे कुछ पीछे के दक्षिण की नासिक, कार्ली आदि गुफाओं के लेखों में पाया जाता है। (भारतीय प्राचीन लिपिमाला)।
इस प्रकार निम्नलिखित बातें सामने आती हैं - (१) मूल रूप में 'देवनागरी' का आदिस्त्रोत ब्राह्मी लिपि है। (२) यह ब्राह्मी की उत्तरी शैलीवाली धारा की एक शाखा है। (३) गुप्त लिपि के उद्भव के पूर्व भी अशोक ब्राह्मी में थोड़ी बहुत अनेक छोटी मोटी भिन्नताएँ कलिंग शैली, हाथीगुंफा शैली, शुंगशैली आदि के रूप में मिलती हैं। (४) गुप्तलिपि की भी पश्चिमी और पूर्वी शैली में स्वरूप अंतर है। पूर्वी शैली के अक्षरों में कोण तथा सिरे पर रेखा दिखाई पड़ने लगती है। इसे सिद्धमात्रिका कहा गया है। (५) उत्तरी शाखा में गुप्तलिपि के अंनतर कुटिल लिपि आती है। मंदसोर मधुवन, जोधपुर आदि के 'कुटिललिपि' कालीन अक्षर 'देवनागरी' से काफी मिलते जुलते हैं। (६) कुटिल लिपि से ही 'देवनागरी' से काफी मिलते जुलते हैं। (७) 'देवनागरी' के आद्यरूपों का निरंतर थोड़ा बहुत रूपांतर होता गया जिसके फलस्वरूप आज का रूप सामने आया। (८) कुछ स्वरध्वनियों के लिए तथा कुछ विदेशी व्यंजनध्वनियों के लिए 'देवनागरी' में सुधार अपेक्षित है।
विश्व की अनेक प्रमुख लिपियों में ध्वनियों के नाम भिन्न हैं और उनके उच्चारणात्मक ध्वनिमूल्य भिन्न हैं। नागरी में दोनों में कोई अंतर नहीं है। इसकी वर्णमाला का वर्णक्रम अत्यंत वैज्ञानिक और भाषावैज्ञानिक है। ध्वनियों का वर्गीकरण क्रम भी बड़ा वैज्ञानिक है। आरंभ में स्वरध्वनियाँ- (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं अ:उ १३) हैं। तदनंतर स्थानानुसारी वर्गक्रम से २७ स्पर्श व्यंजन (कवर्ग- क्, ख्, ग्, घ्, ङ्, चवर्ग- च्, छ्, ज्, झ्, ङ् टवर्ग- ट्, ठ्, ड्, ढ्, (ढ़) ण्; तवर्ग- त्, थ्, द्, ध्, न्; पवर्ग- प्, फ्, ब्, भ्, म्उ २७) हैं, तत्पश्चात् अंतस्थ- (य् र् ल् व् ४) तदनंतर ऊष्मध्वनियाँ (श्, ष्, स्उ ३) और 'ह्' हैं। इनके अतिरिक्त अंग्रेजी, फारसी, अरबी भाषाओं के संपर्क से क़्, ख़्, ग़््ा, ज़्, फ़्, आदि भी प्रयोग में आने लगे हैं। '्ह्रस्व एकार' और 'ओकार' भी हिंदी में हैं- जिनके लिए परंपरित वर्णमाला में ध्वनिचिन्ह नहीं हैं। फारसी आदि के प्रभाव से 'औरत' और 'ऐसा' आदि के आद्यस्वरोच्चारणार्थ भी पृथक् ध्वनिसंकेत नहीं हैं। ्ह्रस्व 'ऐ' और 'औ' के लिए भी लिपिचिन्ह अपेक्षित हैं। अंग्रेजी के भी एकाध स्वर हिंदी में बोले जाते हैं। पर तदर्थ निश्चित लिपिचिन्ह की कमी है। 'ऋ' 'ऋ' का उच्चारण 'रि' या 'री' सा है। इन सब वैज्ञानिक सुधारों की अपेक्षा रहने पर भी नागरी लिपिमाला आज भी विश्व की परंपरागत लिपियों में अपेक्षात्मक दृष्टि से उत्कृष्टतर है।
(करुणापति त्रिपाठी)