देवदासी हिंदू मंदिरों में विभिन्न सेवाओं के लिए (प्राय: नृत्य के लिए) अर्पित की गई युवतियाँ देवदासी कहलाती थीं। इन युवतियों को मंदिर की सफाई करना, दीप जलाना तथा देवमूर्तियों के संमुख भक्तिपूर्वक गायन और नृत्य करना आदि निश्चित कार्य करने पड़ते थे। यह प्रथा प्राचीन है, और कभी संभवत: पूरे भारत में प्रचलित थी; संसार के अन्य भागों (प्राचीन बेबीलोनिया, साइप्रस, फोनीशिया, ग्रीस, मेसोपोटामिया और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों) में भी इसका प्रचलन था। किंतु उत्तर भारत में इसके प्रचलन का विवरण या प्रमाण इतिहास में कम मिलता है। दक्षिण भारत में विशेषतया तामिलनाड और कर्नाटक में यह प्रथा अब भी चल रही है, यद्यपि १९३० के बाद इसका प्रचार घट गया है। आंध्र में केवल विजिगापट्टम के एक मंदिर में ही देवदासियाँ रहती हैं। उड़ीसा में बहुत समय पहले ही यह प्रथा समाप्त हो गई थी। किंतु एक फ्रांसीसी यात्री बर्नियर के लिखित विवरणों से ज्ञात होता है कि पुरी में यह किसी समय प्रचलित थी। तैलंग देश में देवदासी बननेवाली कुमारियाँ 'बसवा' और महाराष्ट्र में 'मुरली' कहलाती थीं। भक्तिकाल में देवी देवताओं की वंदना और पूजा में आमोद प्रमोद को भी स्थान दिया जाने लगा। संभवत: इसी काल से मंदिरों में नर्तकियों का अर्पित होना आरंभ हुआ।
प्राचीन हिंदू ग्रंथों में सात प्रकार की देवदासियों का उल्लेख मिलता है; यथा (१) दत्ता, जो स्वयं ही अपने को किसी मंदिर को अर्पित कर देती है, (२) विक्रीता जो मंदिर की सेवाओं के लिए स्वयं को बेच देती है (३) भृत्या, जो अपने परिवार के पोषण के लिए दासी का कार्य करती है, (४) भक्ता, जो केवल भक्तिभाव से मंदिर में प्रवेश करती है (५) हृता, जिसको हरण करके मंदिर में भेंट कर दिया जाता था (६) अलंकारा, राजा और सामंत जिस युवती को योग्य और अपेक्षित परंपरा में पूर्ण दीक्षित समझते थे उसे अलंकृत कर मंदिर में अर्पित कर देते थे और (७) रुद्रगणिका या 'गोपिका', जो नियमित वृत्ति या वेतन पर नाचने गाने का काम करती थी।
मंदिर के अन्य सेवकों की भाँति देवदासियों को भी निर्वाह के हेतु-भूमि दी जाती थी। यह प्रथा कानून द्वारा भी मान्य थी। देवदासियों तथा उनकी संतानों की निश्चित जाति हो जाती थी, तथा अन्य हिंदू जातियों की भाँति उनके उत्तराधिकार, रीतिरिवाज तथा लोकाचार के अलग नियम होते थे। कालांतर में इस प्रथा में सामाजिकता की अतिशयता से आचार संबंधी शिथिलता प्रवेश करने लगी और कला के साथ साथ देवदासियों में भी आचार विषयक शिथिलता व्याप्त हो गई। यहाँ तक कि जनमत इसके उन्मूलन के लिए तत्पर हुआ। १९२४ में भारतीय दंड विधान की धाराओं ३७२ और ३७५ का देवदासियों की प्रथा पर भी लागू करने की दृष्टि से संशोधन किया गया। १९२७ में मद्रास विधान परिषद् ने सर्वसम्मति से एक विधेयक पारित किया, जिसमें 'ईमानदार' देवदासियों की दासतामुक्ति की व्यवस्था थी। इसके बाद हिंदू मंदिरों में स्त्रियों की सेवा के लिए अर्पित कर देने की प्रथा को कानूनी रूप से समाप्त करने का कदम उठाया गया और देवदासियों के रूप में काम करनेवाली स्त्रियों को विधिम्मत विवाह करने की सुविधाएँ दी गईं। अनेक देशी राज्यों ने १९३० में इस प्रथा को समाप्त करने के लिए वैधानिक तरीके अपनाए। फिर भी इसके चिन्ह अवशिष्ट हैं, क्योंकि कुछ जातियों में छोटी बालिकाओं को मंदिर की सेवा हेतु भेंट करने की प्रथा अभी तक प्रचलित है। इस प्रथा का प्रभाव कहाँ तक था इसका पता बंबई की वेश्याओं के समाजशास्त्रीय पर्यवेक्षण से चलता है जहाँ कुल वेश्याओं में से एक तिहाई पहले देवदासियाँ थीं। इनकी संख्या एक सौ से भी अधिक थी। पहले ये विभिन्न देवताओं को समर्पित थीं।
(हरेकृष्ण महताब)