देवकीनंदन खत्री का जन्म सन् १८६१ ई. में मुजफ्फरपुर में हुआ था जो आपके नाना नानी का निवासस्थान था। आपके पिता लाला ईश्वरदास अपनी युवावस्था में लाहौर से चलकर काशी आए थे और यहीं रहने लगे थे। उनका विवाह मुजफ्फरपुर में हुआ था, और गया जिले के टिकारी राज्य में अचछा कारबार था। कुछ दिनों बाद उन्होंने महाराज बनारस से चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठीका ले लिया था। इसी सिलसिले में देवकीनंदन की युवावस्था अधिकतर उक्त जंगलों में ही बीती थी। इन्हीं जगंलों और उनके खंडहरों से आपको वह स्फूर्ति मिली थी जिसने आपसे चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, भूतनाथ ऐसे ऐयारी और तिलस्मी उपन्यासों की रचना कराई थी जिन्होंने आपको हिंदी साहित्य में अमर बना दिया। यद्यपि आपके उपन्यासों में बहुत कुछ उस प्रकार की बातें मिलती हैं जिस प्रकार की बातें उर्दू के अमीर हम्जा और तिलिस्म होशरुबा सरीखे किस्से कहानियों में मिलती हैं, फिर भी इसमें कुछ संदेह नहीं कि आपके सभी उपन्यासों का सारा रचनातंत्र बिलकुल मौलिक और स्वतंत्र है, और इसमें तिलस्मी तत्व के सिवा उक्त ग्रंथों का कुछ भी अंश नहीं है। इस तिलस्मी तत्व में आपने अपने चातुर्य और बुद्धि-कौशल से ऐयारीवाला वह तत्व भी मिला दिया था जो बहुत कुछ भारतीय ही है। यह परम प्रसिद्ध बात है कि १९वीं शताब्दी के अंत में लाखों पाठकों ने बहुत ही चाव और रुचि से आपके उपन्यास पढ़े और हजारों आदमियों ने केवल आपके उपन्यास पढ़ने के लिए हिंदी सीखी। अब भी बहुत से ऐसे पाठक मिलेंगे जिन्होंने आपके उपन्यासों का बीसियों बल्कि पचासों बार पारायण किया हो। यही कारण है कि हिंदी के सुप्रसिद्ध उपन्यास लेखक श्री वृंदावनलाल वर्मा ने आपको हिंदी का 'शिराज़ी' कहा है।

आपका पहला और परम प्रसिद्ध उपन्यास चंद्रकांता सन् १८८८ ई. में काशी में प्रकाशित हुआ था। उसके चारो भागों के कुछ ही दिनों में कई संस्करण हो गए थे जिससे उत्साहित होकर आपने चंद्रकांता संतति, लिखना आरंभ कर दिया जिसके कुल २४ भाग हैं। दस वर्षो में ही बहुत अधिक कीर्ति और यश संपादित कर चुकने पर और अपनी रचनाओं का इतना अधिक प्रचार देखने पर सन् १८९८ ई में आपने अपने निजी प्रेस की स्थापना की। आप सदा से स्वभावत: बहुत ही 'लहरी' अर्थात् मनमौजी और विनोदप्रिय थे। इसीलिए आपने अपने प्रेस का नाम भी 'लहरी प्रेस' रखा था। आपके उपन्यासों में कई ऐयारों और पात्रों के जो नाम आए हैं वे सब आपने अपनी मित्रमंडली में से ही चुने थे और इस प्रकार आपने अपने अनेक घनिष्ट मित्रों और संगी साथियों को अपनी रचनाओं के द्वारा अमर बना दिया था। आपकी अन्यान्य रचनाओं के नाम हैं 'अनूठी बेगम', 'काजल की कोठरी' 'कुसुम कुमारी' 'गुप्त गोदना' और 'नरेंद्र मोहिनी'। आपकी सभी कृतियों में मनोरंजन की जो इतनी अधिक कुतूहलवर्धक और रोचक सामग्री मिलती है उसका सारा श्रेय आपके अनोखे और अप्रतिम बुद्धिबल का ही है। हिंदी के औपन्यासिक क्षेत्र का आपने आरंभ ही नहीं किया था, उसमें आपने बहुत ही उच्च, उज्वल और बेजोड़ स्थान भी प्राप्त कर लिया था। भारतेंदु के उपरांत आप प्रथम और सर्वाधिक प्रकाशमान् तारे के रूप में हिंदीवालों के सामन आए थे। खेद है कि आपने अधिक आयु नहीं पाई और प्राय: ५२ वर्ष की अवस्था में ही काशी में १ अगस्त, १९१३ को आप परलोकवासी हो गए।((पद्मश्री) रामचंद्र वर्मा कोाकार)