देय तथा प्राप्य खाता (Account Payable and Account Receivable) किसी संस्थान में जमा ऐसा व्यापारिक अग्रिम जिसके मद में जमाकर्ता को न तो कोई माल दिया गया हो और न उसकी कोई व्यापारिक सेवा की गई हो उस संस्थान के लिय देय धन है। यह रकम संस्थान में देय खाते में अंकित की जाती है। स्वामी, साझेदारों, संचालकों तथा कर्मचारियों द्वारा संस्थान को दिया गया ऋण इस खाते में प्रविष्टि नहीं पाता। वह एक अलग देय ऋणखाते में अंकित किया जाता है। देय खाता व्यापारिक अग्रिम का खाता है। वह संस्थान के लिए देय तो है पर वह ऋण नहीं है इसलिए इसकी स्वतंत्र स्थिति है। व्यापार से संबद्ध अग्रिम जमा राशि मात्र का इसमें अंकन होता है। ठीक यही स्थिति संस्थान द्वारा दिए गए व्यापारिक अग्रिम की है। वह धनराशि जो अग्रिम के रूप में अन्य किसी व्यापारिक संस्थान को दी गई हो और उसके मद में न तो कोई माल आया हो और न अन्य व्यापारिक सेवा ली गई हो संस्थान के प्राप्य खाते में डाली जाती है। जिसके नाम यह राशि प्राप्य खाते में डाली जाती है वह संस्थान अपने यहाँ इस रकम को देय खाते में डालता है।
देय तथा प्राप्य खाता बहियाँ (Account payable Ledger or Account Receivable Ledger) - संस्थान की ये सहायक खाता बहियाँ है। देय खाता बही में संस्थान के सभी देय खाते तथा प्राप्य खाता बही में उसके सभी प्राप्य खाते अंकित रहते हैं। यदि खातों की संख्या अधिक हुई तो एक से अधिक खाता बहियाँ वर्णानुक्रम या भौगोलिक आधार पर सुविधानुसार भी ये बहियाँ रखी जाती है। संस्थान के समान्य खाते में भी देय तथा प्राप्य धन का आलेख रहता है। इन खाता बहियों की अलग व्यवस्था श्रमविभाजन के सहज लाभ के कारण की जाती है क्योंकि इसके द्वारा वित्त विभाग को बाँट कर तथा अलग स्वतंत्र रूप से भी काम करने में सहायता मिलती है। साथ ही श्रम और समय की बचत होती है। हिसाब किताब के मिलान में भी इससे सहायता मिलती है क्योंकि संस्थान के सामान्य खाते से इन बहियों के खाते का संतुलन समय समय पर होता रहता है जिससे भूल चूक की छानबीन भी आसानी से हो जाती है। बड़े व्यापारिक संस्थानों में इन सहायक बहियों का उपयोग व्यापक पैमाने पर किया जाता है।(सुधाकर पांडेय)