देकार्त, रेने (Descartes, Rene, १५९६-१६५० ई.) फ्रांसीसी गणितज्ञ का जन्म ३१ मार्च, १५९६ ई. को हेग में हुआ था। २१ वर्ष की आयु में शिक्षा समाप्त कर ये ओरेंज के राजकुमार मोरिस की सेना में भर्ती हो गए। यहाँ पर प्राप्त अवकाश को ये गणित के अध्ययन में व्यतीत किया करते हैं। इन्होंने कई युद्धों में भी भाग लिया। सेवॉय के ड्यूक के साथ हुए युद्ध में प्रदर्शित वीरता के कारण इनका लेफ्टिनेंट जनरल की उपाधि प्रदान की गई, परंतु इन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया और पेरिस में तीन वर्ष तक शांतिपूर्वक दर्शनशास्त्र की साधना करते रहे। प्रकृति के भेदों की गणित के नियमों से तुलना करने पर इन्होंने आशा प्रकट की कि दोनों के रहस्यों का ज्ञान एक ही प्रकार से किया जा सकता है। इस भाँति इन्होंने तत्वज्ञान में 'कार्तेज़ियनवाद' का आविष्कार किया।
गणित को इनकी सर्वोत्तम देन है वैश्लेषिक ज्यामिति। १६३७ ई. में प्रकाशित इनके 'दिस्कूर द ला मेतौद्' (Discours de la Methode) में ज्यामिति पर भी १०६ पृष्ठ का एक निबंध था। इन्होंने समीकरण सिद्धांत के कुछ नियमों का भी अविष्कार किया, जिनमें 'चिन्हों का नियम' अत्यंत प्रसिद्ध है। ११ फरवरी, १६५० को इनकी मृत्यु हो गई।
सं.ग्रं.- सी. ऐडम एवं पी. टैनरि : अय्ब्र दे देकार्त, १३ खंड, पैरिस, १८९७-१९११। (रामकुमार)
देकार्त का दर्शन - देकार्त वर्तमान ज्ञानमीमांसा का प्रवर्तक माना जाता है। उसने दार्शनिक चिंतन में गणितीय पद्धति के उपयोग का मार्ग अपनाया। देकार्त ने उन सभी अनुभवों पर जो प्रत्ययों की भाँति स्पष्ट और प्रांजल नहीं हैं संदेह (Doubt) से विचार करना प्रारंभ किया। केवल प्रत्ययों तथा उनकी भाँति प्रांजल अनुभवों को उसने स्वत:सिद्ध माना। उसने प्रत्ययों के तीन भेद किए। (१) अंतर्जात (Innate), जो सहज और स्वयंभूत होते (२) अस्थानिक (Adventitious), जो बाहर से ग्रहण किए जाते हैं, और (३) कल्पित जो मस्तिष्क में ही उत्पन्न होते हैं। अपनी पद्धति से देकार्त ने प्रथम सत्य 'विचारक अंतरात्मा' (Thinking Self) स्थिर किया। शेष सब कुछ का अस्तित्व उसके लिए संदिग्ध (Doubtful) है। विचारक अंतरात्मा से वह अपना अस्तित्व सिद्ध करता है (Cogito ergo Sum मैं विचार करता हूँ, इसलिए मैं अस्तित्ववान हूँ) देकार्त्त के लिए यह निष्कर्ष तर्कजन्य नहीं वरन् मानस की प्रत्यक्ष अनुभूति है। द्वितीय सत्य उसके लिए ईश्वर-सर्वोच्च सत्ता- है। ईश्वर भी मानसिक अनुभूति या अंतर्जात प्रत्यय है। वह बाह्य संसार की सत्यता के लिए ईश्वर के निर्माता रूप का सहारा लेता है। संपूर्ण पदार्थ के उसने तीन भेद किए हैं (१) रचित आत्मा (Created Spirit) मनुष्य की लौकिक आत्मा, जो शरीर से विचारक तत्व के रूप में जुड़ी रहती है (२) स्वयंभू आत्मा (Uncreated Spirit) या ईश्वर; जो दिक्-काल-निरपेक्ष, निर्विकार और सर्वशक्तिसंपन्न है। उसके अस्तित्व का अनुभव स्पष्ट रूप से किया जा सकता है, किंतु हम उसके रूप को नहीं जान सकते। वह रचयिता और विश्व का प्रयोजक कारण है। और (३) पिंड (Bodies), पदार्थ जो प्रत्यय से स्वतंत्र, तथा विस्तार (कन्द्यड्ढदद्मत्दृद) गुण से युक्त होता है। ईश्वर भौतिक विश्व की गति का प्रेरक और नियंत्रक है। विश्व के निर्माण और विकास में पदार्थ (matter) और चित् (्थ्रत्दड्ड) दो तत्व योग देते हैं और यह क्रिया यंत्रवत् होती है।