दूतकाव्य संस्कृत काव्य की एक विशिष्ट परंपरा जिसका आरंभ भास तथा घटकर्पर के काव्यों और महाकवि कालिदास के मेघदूत में मिलता है, तथापि, इसके बीज और अधिक पुराने प्रतीत होते हैं। परिनिष्ठित काव्यों में वाल्मीकि द्वारा वर्णित वह प्रसंग, जिसें राम ने सीता के पास अपना विरहसंदेश भेजा, इस परंपरा की आदि कड़ी माना जाता है। स्वयं कालिदास ने भी अपने 'मेघदूत' में इस बात का संकेत किया है कि उन्हें मेघ को दूत बनाने की प्रेरणा वाल्मीकि 'रामायण' के हनुमानवाले प्रसंग से मिली है। दूसरी और इस परंपरा के बीज लोककाव्यों में भी स्थित जान पड़ते हैं, जहाँ विरही और विरहिणियाँ अपने अपने प्रेमपात्रों के पति भ्रमर, शुक, चातक, काक आदि पक्षियों के द्वारा संदेश ले जाने का विनय करती मिलती हैं।

'घटकर्पर' काव्य में केवल २२ पद्य उपलब्ध हैं, जिनमें आकाश में घिरे मेघ को देखकर एक विरहिणी ने अपने विरह की व्यंजना कराई है। भावानुभूति के साथ इस काव्य की अन्यतम विशेषता पादांत यमक अलंकार का प्रयोग है। शैलीशिल्प की दृष्टि से यह अति लघु काव्य भी संस्कृत साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बना चुका है और कहा जाता है कि इस कृति के सौंदर्य के करण कवि ने अन्य कवियों को यह चुनौती दी थी कि जो भी कवि इससे अधिक उत्कृष्ट रचना कर देगा, रचयिता (घटकर्पर) उसके घर फूटे घड़े से पानी भरने को तैयार है। इसी प्रतिज्ञा के कारण रचयिता की उपाधि, 'घटकर्पर' हो गई और हमें उसके वास्तविक नाम का पता नहीं चलता। कुछ विद्वान् इस रचना को कालिदास कृत मानते हैं, किंतु यह सिद्ध हो चुका है कि यह कालिदास की रचना नहीं है। 'घटकर्पर' का समय अनिर्णीत है, वैसे आनुश्रुतिक परंपरा के अनुसार 'घटकर्पर' भी विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। केवल इतना कहा जा सकता है कि इस काव्य क रचना कालिदास (४ थी शताब्दी ईसवी) से पुरानी है।

इस परंपरा की सशक्त कृति महाकवि कालिदास का 'मेघदूत' है, जिसमें कुबेर के द्वारा रामगिरि पर्वत पर निर्वासित यक्ष, कामार्त होकर, अचेतन मेघ के माध्यम से दूर अलकापुरी में स्थित अपनी प्रिया के पास यह संदेश भेजता है कि वह किसी तरह निर्वासन अवधि के बचे-खुचे महीने और गुजार दे, और फिर वे शरद की चाँदनी से धुली रातों में अपने सारे अरमान पूरे करेंगे ही। 'मेघदूत' में लगभग ११५ पद्य हैं, यद्यपि अलग अलग संस्करणों में इन पद्यों की संख्या हेर-फेर से कुछ अधिक भी मिलती है। डॉ. एस. के. दे के मतानुसार मूल 'मेघदूत' में इससे भी कम १११ पद्य हैं, शेष बाद के प्रक्षेप जान पड़ते हैं। 'मेघदूत' की लोकप्रियता भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से ही रही है। जहाँ एक ओर प्रसिद्ध टीकाकारों ने इसपर टीकाएँ लिखी हैं, वहाँ अनेक संस्कृत कवियों ने इससे प्रेरित होकर अथवा इसको आधार बनाकर कई दूतकाव्य लिखे। भावना और कल्पना का जो उदात्त प्रसार मेघदूत में उपलब्ध है, वह भारतीय साहित्य में अन्यत्र विरल है। यह काव्य दो खंडों में विभक्त है। 'पूर्वमेघ' में यक्ष बादल को रामगिरि से अलकापुरी तक के रास्ते का ब्यौरा देता है और 'उत्तरमेघ' में यक्ष का यह प्रसिद्ध विरहदिग्ध संदेश है, जिसे कालिदास ने प्रेमीहृदय की भावना को उड़ेल दिया है। कुछ विद्वानों ने इस कृति को कवि की व्यक्तिव्यंजक (आत्मपरक या सब्जेक्टिव) रचना माना है। महाभारत के 'नलोपाख्यान' नामक आख्यान में नल तथा दमयंती द्वारा इसको दूत बनाकर परस्पर संदश प्रेषण की जो कथा आई है, वह भी दूतकाव्य की परंपरा का ही अनुसरण है। कवि जिनसे (९वीं शती ईसवी) 'मेघदूत' की तरह ही मंदाक्रांता छंद में तीर्थकर पार्श्वनाथ के जीवन से संबद्ध चार सर्गों का एक काव्य 'पार्श्वाभ्युदय' लिखा जिसमें मेघ के दौत्य के रूप में मेघदूत के शताधिक पद्य समाविष्ट हैं। १५वीं शताब्दी में 'नेमिनाथ' और 'राजमती' वाले प्रसंग को लेकर 'विक्रम' कवि ने 'नेमिदूत' काव्य लिखा, जिसमें मेघूदत' के १२५ पद्यों के अंतिम चरणों को समस्या बनाकर कवि ने नेमिनाथ द्वारा परित्यक्त राजमती के विरह का वर्णन किया है। इन्हीं दिनों अन्य जैन कवि 'चरित्रसुंदर गणि ने शांतरसपरक जैन काव्य 'शीलदूत' की रचना की। इन दो कृतियों के अतिरिक्त विमलकीर्ति का 'चंद्रदूत', अज्ञात कवि का 'चेतोदूत' और मेघविजय उपाध्याय का 'मेघदूत समस्या' इस परंपरा के अन्य जैन काव्य हैं।

दूतकाव्य या संदेशकाव्य की परंपरा को आगे बढ़ाने में अनेक संस्कृत कवियों ने महत्वपूर्ण योग दिया है। इस संबंध में सर्वप्रथम बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के दरबारी कवि क्षमापति धोयी का जिक्र करना आवश्यक होगा। इसके बाद संस्कृत दूतकाव्यों को चार परंपराओं में विभक्त किया जा सकता है : (१) शुद्ध साहित्यिक परंपरा, इसके अंतर्गत वे काव्य आते हैं, जिनमें कवि ने किसी माध्यम से विरही अथवा विरहिणी के संदेश को अपने इष्ट व्यक्ति तक शुद्ध शृंगारी और कलात्मक रूप में पहुँचाया है। इस परंपरा में श्रीरुद्र न्यायवाचस्पति का 'पिकदूत', 'वादिराज' का 'पवनदूत', 'हरिदास' का 'कोकिलदूत', सिद्धनाथ विद्यावागीश का 'पवनदूत' कृष्णनाथ न्यायपंचानन का 'वातदूत', अजितनाथ न्यायरत्न का 'बकदूत', रघुनाथ दास का 'हंस दूत' आदि रचनाएँ हैं। इनमें से अधिकांश रचनाएँ १८वीं और १९वीं शती की हैं। (२) दूसरी परंपरा में वे दूतकाव्य आते हैं, जो रामकथा को लेकर लिखे गए हैं। इनमें हनुमान अथवा अन्य किसी दूत के माध्यम से सीता के प्रति राम का वियोगसंदेश काव्यबद्ध मिलता है। इस परंपरा का प्रथम दूतकाव्य वेदांतदेशिक (१४ वीं शती), का 'हंससंदेश है, जिसमें राम ने हंस के द्वारा सीता के पास संदेश भेजा है। इसी परंपरा में अज्ञात लेखक का 'कपिदूत', रुद्रवाचस्पति का 'भ्रमरदूत', वासुदेव का 'भ्रमरसंदेश', कृष्णचंद्र तर्कलंकार का 'चंद्रदूत' प्रसिद्ध हैं। (३) तीसरी परंपरा उन दूतकाव्यों की है, जिसमें कृष्णकथा को लेकर गोपियों का संदेश उद्धव, भ्रमर अथवा अन्य माध्यम से कृष्ण तक पहुँचाया गया है। इस परंपरा में बंगाल के गौड़ीय वैष्णव कवियों का विशेष हाथ रहा है। माधव कवींद्र भट्टाचार्य ने 'उद्धव दूत', तथा रूप गोस्वामी ने 'उद्धवसंदेश' और 'हंसदूत' दो रचनाएँ लिखी हैं। 'उद्धवदूत' में कोई गोपी उद्धव के द्वारा कृष्ण के पास विरह संदेश पहुँचाती है, तो 'हंसदूत' में हंस के माध्यम से गोपियों ने अपनी विरह वेदना मथुरा में कृष्ण तक पहुँचाने की चेष्टा की है। 'उद्धवसंदेश' में कृष्ण उद्धव को मथुरा से गोपियों के पास गोकुल भेजते हैं। स्मृति के रूप में वे अपनी बाल तथा कैशोर अवस्था की अनुभूतियों का स्मरण करते हैं और उद्धव को गोपी गोपियों और विशेषत: राधा का परिचय देते हैं जिनके पास उसे कृष्ण का संदेश ले जाना है। ये तीनों काव्य गौड़ीय वैष्णव परंपरा के साहित्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं। (४) चौथी परंपरा उन दूतकव्यों की है, जिनकी शैली दूतकाव्यों से मिलती है, किंतु विषयवस्तु शृंगार रसपरक न होकर शांत रसपरक है। इन काव्यों का लक्ष्य आध्यात्मिक अथवा नैतिक संदेश देना है। इस परंपरा की पहली कड़ी अवधूत रामयोगी (१३वीं शती) का 'सिद्धदूत' है। इसी कोटि में कवि विष्णुदास का 'मनोदूत' और कालीप्रसाद का 'भक्तिदूत' आते हैं।

प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य में कुछ फुटकर गाथाएँ और दोहे क्रमश: हाल और हेमचंद्र के मिल जाएँगे, जिनमें किसी माध्यम से विमुक्त प्रणयी ने अपने प्रिय के पास कुछ संदेश भिजवाने की चेष्टा की है। समग्र काव्यकृति के रूप में मध्य भारतीय आर्यभाषा के साहित्य में केवल एक कृति ऐसी है, जो मेघदूत की परंपरा में आती है, और यह है अपभ्रंश कवि उद्दहमाण का 'संदेशरासक'। १२वीं शती में मुल्तान के एक जुलाहे अद्दहमाण ने रासक गीतिकाव्यों की शैली में एक काव्य की रचना की जिसमें विरहिणी नायिका खंभात जाते हुए किसी पथिक से अपने प्रिय के पास संदेश ले जाने के लिए प्रार्थना करती है। इस काव्य में नायिका के सौंदर्यवर्णन के अतिरिक्त रमणीय षड्ऋतु वर्णन और नायिका की विरहदशा की मार्मिक अभिव्यंजना उपलब्ध है।

हिंदी में 'ढोला मारू रा दूहा' में कुछ दोहे ऐसे हैं, जिनका स्वरूप दूतकाव्य शैली का है। इसके अतिरिक्त हिंदी प्रेमाख्यान काव्यों में ऐसे स्थल उपलब्ध हैं, जहाँ विरही प्रणयी ने अपने प्रिय के प्रति किसी माध्यम से संदेश पहुँचाने की चेष्टा की है। इस संबंध में जायसी के 'नागमतीविरह वर्णन' में उपलब्ध कुछ स्थलों का संकेत किया जा सकता है। इसी तरह हिंदी कृष्णकाव्य (उद्धवशतक, प्रियप्रवास आदि) में भ्रमरगीत परंपरा के अंतर्गत दूतकाव्य या संदेशकाव्य के कुछ बीज मिल जाएँगे।

मलयालम में दूतकाव्य या संदेशकाव्य की शैली का सूत्रपात केरल वर्मा के 'नीलकंठसंदेश' से होता है, जिन्होंने कारागार से अपनी पत्नी के पास नीलकंठ के द्वारा संदेश भेजा।

सं.ग्रं. - कृष्णामाचारी : हिस्ट्री ऑव संस्कृत, लिटेचर; डॉ. एस.के.डे. : मेघदूत (संपादित) डॉ. योहेन हेवर्लिन : काव्यसंग्रह (संपादित)।(भोलाशंकर व्यास)