दुर्गावती, रानी महोबा के चंदेल राजा शालिवाहन की पुत्री थीं। इनका विवाह गढ़कटंग (गढ़ामंडला) के राजा दलपत शाह से हुआ था। विवाह के चार वर्ष पश्चात् दलपत शाह स्वर्गलोक सिधारे। रानी दुर्गावती ने अपने पुत्र वीरनारायण को सिंहासन पर बैठाकर उसके संरक्षक के रूप में स्वयं शासन करना प्रारंभ किया। इनके शासन में राज्य की बहुत उन्नति हुई। दुर्गावती को तीर तथा बंदूक चलाने का अच्छा अभ्यास था। चीते के शिकार में इनकी विशेष रुचि थी।
इलाहाबाद के मुगल शासक आसफ खाँ ने गढ़कटंक के धन से आकृष्ट होकर समीपवर्ती स्थानों पर लूट खसोट प्रारंभ कर दी थी। अत: रानी दुर्गावती ने अपने मंत्री को सम्राट् अकबर के पास भेजकर आसफ खाँ की हरकतों को रोकने का प्रयास किया किंतु असफल हुई। विवश होकर रानी दुर्गावती ने युद्ध की तैयारी की। आसफ खाँ अपनी सेना सहित दमोह पहुँच गया। रानी दुर्गावती ने अपनी छोटी सेना लेकर आसफ खाँ की विशाल सेना से लोहा लेने का निश्चय कर नरही में पड़ाव डाला। मुगल सेना को तीन बार पीछे हटना ड़पा। वीरनारायण घायल हो गया, अत: उसे युद्धक्षेत्र से सुरक्षित स्थान पर हटा दिया गया। इसके परिणामस्वरूप ऐसी भगदड़ मची कि रानी के साथ तीन सौ सैनिक रह गए। ऐसी परिस्थिति में भी इन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा और वीरतापूर्वक लड़ती रहीं। एक तीर इनकी दाहिनी कनपटी में लगा और दूसरा गर्दन में। दोनों को इन्होंने निकाल कर फेंक दिया किंतु अधिक मात्रा में रुधिर निकल जाने के कारण इन्हें मूर्छा आ गई। जब चेतना आई तो पता लगा कि इनकी हार हो गई है। शत्रु द्वारा दुराचरण की आशंका से इन्होंने अपना बर्छा निकाल कर अपनी छाती में भोंक लिया और इस प्रकार प्राणोत्सर्ग किया। इस बीच इनका पुत्र वीरनारायण भी लड़ाई में मारा जा चुका था। यह लड़ाई सन् १५६४ ई. में हुई थी।