दुगार् हिंदुओं की प्रख्यात देवी। इस नाम की व्युत्पत्ति दो प्रकार से विशेषत मानी जाती हैं : (क) 'दुर्ग' नामक दैत्य का संहार करने के कारण देवी का दुर्गा नाम पड़ा (मार्कडेय पुराण, देवीमाहात्म्य, ११ अ.), (ख) देवी के नामस्मरण से इंद्रादिक देवों ने शत्रुसंकष्ट का निवारण किया था-

स्मरणादमये दुर्गे तारिता रिपुसङ् कटे।

देवा: शक्रादयो यस्मात् तेन दुर्गा प्रकीर्तिता।। (देवीपुराण, २७ अ.)

ये आद्या शक्ति के रूप में पूजी जाती हैं। मार्कडेय पुराण का देवीमाहात्म्य, जो अपने श्लोकों की संख्या के कारण 'सप्तशती' या 'दुर्गासप्तशती' के नाम से प्रख्यात है, भगवती दुर्गा के चरित का विशद प्रतिपादन करता है। दुर्गा के मुख्यतया तीन रूप हैं। (१) महाकाली, (२) महालक्ष्मी तथा (३) महा सरस्वती जिनमें क्रमश: तमोगुण, रजोगुण, तथा सत्वगुण का प्रकर्ष माना जाता है। दुर्गासप्तशती का प्रथम चरित्र (१ अध्याय) महाकाली के महनीय चरित्र का, द्वितीय चरित्र (२ अ. - ४ अ.) महालक्ष्मी के उदात्त चरित का तथा तृतीय चरित्र (५ अ. - १३ अ.) महासरस्वती के दिव्य चरित का बड़ा ही विशद तथा दार्शनिक विवरण प्रस्तुत करता है। दुर्गा शक्ति रुपिणी हैं तथा जगत् में जितने सृष्टि, पालन तथा संहार नामक व्यापार चलते हैं, उन सबकी अधिष्ठात्री देवी वे ही हैं। दुर्गा ही समस्त देवों की सृष्टि स्वयं न कर सृष्टि के देवता ब्रह्मा की उत्पत्ति करती हैं जो इस विश्व की सृष्टि करता है। संसार में जितनी विद्याएँ हैं, वे सब दुर्गास्वरूपा हैं। ये स्वयं नित्या हैं, परंतु प्राणियों के कल्याण के निमित्त इनका आविर्भाव होता है। वही स्वाहा, सुधा, सार्ध मात्रा से संवलित ओंकाररूपिणी हैं। जब जगत् का धार्मिक संतुलन अव्यवस्थित होता है, नित्यास्वरूपा दुर्गा का आविर्भाव होता है।

दुर्गा की पूजा नौ दिन रातों में होती है। इसी कारण वह समय नवरात्र के नाम से प्रख्यात है। (दे. 'नवरात्र')

दुर्गा के ऊपर संस्कृत में विशाल साहित्य है जो शाक्त तंत्र के नाम से अभिहित होता है। कतिपय महापुराणों में दुर्गा का पूजाविधान उपलब्ध है, परंतु इसका सर्वाधिक वर्णन देवीभागवत, देवी पुराण तथा कालिका आदि उपपुराणों में किया गया है। (ब.उ.)

चंडी - दुर्गा का एक नाम चंडी भी है। चंडी शब्द का विशेष तात्पर्य है। कहा है- कलौ चंडी विनायकौ, अर्थात् कलियुग में चंडी अर्थात् देवी या शक्ति और विनायक अर्थात् गणेश की उपासना से लोगों की मनोकामना पूर्ण होती है। इस उक्त से स्पष्ट है कि 'चंडी' शब्द महाशक्ति का पर्यायवाची है।

'चंडि कोपे' - इस धातुपाठ के अनुसार चंडी का शब्दार्थ कोपवती होता है किंतु यह कोप साधारण सांसारिक कोप न होकर अखिल ब्रह्मांड के नियंत्रण के लिए प्रयुक्त कोप है। जैसा श्रुति में कहा है-

'भीष्मास्मद्वात: पवते भीषोदेति सूर्य:

भीषास्मादग्निश्चेंद्रश्च मृत्युधविति पंचम:।'

अर्थात् इसके भय से पवन चलता है, सूर्य उदय होता है, अग्नि इंद्र और मृत्यु सक्रिय होते हैं।

वह कौन सी शक्ति है, जिसके भय से उक्त, पाँच महती सत्ताएँ नियंत्रित होती हैं? वह है 'चंडी'- परब्रह्म की परा शक्ति 'जगदंबिका'।

इस चंडी के स्वरूप और माहात्म्य का चित्रण जिस पुस्तक में हुआ है, वह भी 'चंडी' नाम से प्रसिद्ध है। इस पुस्तक के दूसरे अध्याय में भगवती चंडी के आविर्भाव की कथा दी गई है, जिससे उनके स्वरूप की भव्यता और व्यापक प्रभाव का परिचय मिलता है। 'चंडी' का प्रचार ज्ञानमार्गी साधकों में है ही, साथ ही अन्य प्रकार के साधकों में भी है। यही नहीं, जो हिंदू धर्म कर्म में उतना विश्वास नहीं करते, वे भी संकटग्रस्त होने पर 'चंडी' की शरण लेते हैं। 'चंडी' का पाठ स्वयं करने से या असमर्थ होने पर सत्साधकों द्वारा पाठ करवाने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की सिद्धि अनायास प्राप्त हो जाती है।

'चंडी' को 'दुर्गा' या 'सप्तशती' नामों से भी अभिहित किया जाता है। यह मार्कडेय पुराण का विशेष अंश है। इसमें जगदंबा के दिव्य चरितों का १३ अध्याओं में वर्णन किया गया है, जो अत्यंत ही मनोहर तथा आशाप्रद है। इसका नाम देवीमाहात्म्य भी है।

सप्तशती के स्वाध्याय अर्थात् पाठ की अनेक विधियाँ हैं। कुछ लोग कवच, अर्गला, कीलक, प्राधानिक रहस्य, और मूर्तिरहस्य आदि अंगों के सहित 'चंडी' का पाठ करते हैं, कुछ लोग उसके मूल तीन चरितों का ही पारायण करते हैं। इसके सिवा संपुट पाठ, शृंखलापाठ, वृद्धिपाठ आदि विविध प्रकार के पाठों का विधान अलग मिलता है। यही नहीं, शतचंडी, सहस्रचंडी और लक्षचंडी नाम से प्रसिद्ध बृहत् आयोजन अलग होते हैं, जिनमें इस महत्वपूर्ण दिव्य ग्रंथ के तत्तत्संख्यक पाठ का ही विशेष रूप से प्रयोग होता है। इन सबसे चंडी या दुर्गा सप्तशती के व्यापक प्रभाव की पुष्टि होती है।(देवीदत्त शुक्ल)