दु:ख
चेतना विषयी और विषय का संबंध है। ज्ञान में यह संबंध संपर्क मात्र होता
है, क्रिया में विषयी विषय पर आघात करता है। अनुभूति में विषय विषयी को
प्रभावित करता है। ज्ञान, क्रिया और अनुभूति चेतना के भाग नहीं जो एक दूसरे
से अलग हो सकें; ये चेतनावस्था के पक्ष हैं जिनका अलग अलग चिंतन हो सकता
है।
अनुभति का तत्व
अनुभत होता है।
जो मनुष्य आप
सुखी या दुखी
नहीं हुआ, उसे कोई
दूसरा सुख दुख
के स्वरूप के विषय
में बता नहीं सकता।
कुछ लोग सुख
को दु:ख का अभाव
कहते हैं कुछ इसके
विपरीत दु:ख
को सुख का अभाव
बताते हैं; बहुमत
इन दोनों को
अनुभूति के भिन्न
आधार स्वीकार
करता है।
दु:ख के संबंध
में निम्नांकित
दृष्टिकोणों से
विचार कर सकते
हैं-
(१) मनोवैज्ञानिक
: दु:ख का स्वरूप और
कारण। (२) जैविक
: जीवन में दु:ख
की स्थिति। (३) नैतिक
: जीवन में दु:ख
का मूल्य। (४) दार्शनिक
: सत्ता और दु:ख
- दु:ख का स्वरूप और
कारण - कांट
से पहले अनुभूति
पद विशेषणात्मक
था; उसने इसे ज्ञान
और क्रिया के
साथ स्वाधीन पक्ष
का पद दिया। ज्ञान
और क्रिया के
साथ दु:ख का घनिष्ठ
संबंध है। कुछ
संवेदन सुखद
होते हैं, कुछ
दु:खद; जब उनकी
तीव्रता और
समयप्रस्तार उचित
सीमाओं से गुजर
जाते हैं, तब सभी
संवेदन दु:खद
हो जाते हैं।
क्रिया के संबंध
में सामान्य नियम
न्याय दर्शन में
यों वर्णित हुआ
है : बाधनालक्षणं
दु:खम् (दु:ख का
लक्षण बाधना या
रुकावट है)। यही
अरस्तू का मत था।
खेलते बच्चे को
पकड़कर खड़ा कर
दें, तो वह चिल्लाने
लगता है। मानसिक
क्रिया में बाधा
पड़े, तो वह भी
दु:खद होती
है।
- जीवन में दु:ख
का स्थान -
जीवन व्यक्ति और
उसके वातावरण
के मध्य अनुकूलता
है। इस अनुकूलता
की कमी दुख का
कारण होती
है। दु:ख एक प्रकार
की चेतावनी
है, जो यह बताती
है कि वर्तमान
स्थिति में कुछ
गड़बड़ है और इसमें
उचित परिवर्तन
करने की आवश्यकता
है। मार्शल के
अनुसार जब किसी
क्रिया में इतनी
शक्ति व्यय होती
है, जितनी शरीर
संचित भंडार
से दे नहीं सकता,
तो क्रिया दु:खद
हो जाती है।
- नीति और दु:ख
- नीति का
काम शुभ और
अशुभ में भेद करना
है। भोगवाद
के अनुसार सुख
ही एकमात्र शुभ
और दु:ख एकमात्र
अशुभ है। इस संबंध
में डॉ. मूर ने
कहा है कि दुख
बुरा हो, तो
भी यह आवश्यक
नहीं कि अन्य अंशों
से मिलने पर
यह उनके मूल्य को
घटा ही दे। जब
हम किसी दूसरे
के दु:ख में सम्मिलित
होते हैं, तो
संसार में दु:ख
की मात्रा बढ़ जाने
पर भी स्थिति
पहले से अच्छी हो
जाती है।
दु:ख की दार्शनिक
स्थिति - अभद्रवाद
के अनुसार जीवन
दु:खमय है। यह
गौतम बुद्ध और
शापेनहावर
का मत है। इसके
विपरीत भद्रवाद
के अनुसार दु:ख
भ्रांतिमात्र है।
अनुभव इन दोनों
धारणाओं को
अमान्य बताता है।
शोधनवाद दु:ख
के अस्तित्व से इनकार
तो नहीं करता,
परंतु इसकी
निर्वृत्ति भी संभव
मानता है। यही
नहीं, हम दु:ख को
उन्नति का साधन
भी बना सकते
हैं। राजनीति
प्राय: दंडनीति
ही है। मानवजाति
के उत्थान में पीड़ा
का भाग बहुत
महत्वपूर्ण है।
हेगेल ने इसपर
विशेष बल दिया
है कि द्वंद्व उन्नति
का मूल है।(दीवानचंद)