दु:ख चेतना विषयी और विषय का संबंध है। ज्ञान में यह संबंध संपर्क मात्र होता है, क्रिया में विषयी विषय पर आघात करता है। अनुभूति में विषय विषयी को प्रभावित करता है। ज्ञान, क्रिया और अनुभूति चेतना के भाग नहीं जो एक दूसरे से अलग हो सकें; ये चेतनावस्था के पक्ष हैं जिनका अलग अलग चिंतन हो सकता है।
अनुभति का तत्व अनुभत होता है। जो मनुष्य आप सुखी या दुखी नहीं हुआ, उसे कोई दूसरा सुख दुख के स्वरूप के विषय में बता नहीं सकता। कुछ लोग सुख को दु:ख का अभाव कहते हैं कुछ इसके विपरीत दु:ख को सुख का अभाव बताते हैं; बहुमत इन दोनों को अनुभूति के भिन्न आधार स्वीकार करता है।
दु:ख के संबंध में निम्नांकित दृष्टिकोणों से विचार कर सकते हैं-
(१) मनोवैज्ञानिक : दु:ख का स्वरूप और कारण। (२) जैविक : जीवन में दु:ख की स्थिति। (३) नैतिक : जीवन में दु:ख का मूल्य। (४) दार्शनिक : सत्ता और दु:ख
दु:ख की दार्शनिक स्थिति - अभद्रवाद के अनुसार जीवन दु:खमय है। यह गौतम बुद्ध और शापेनहावर का मत है। इसके विपरीत भद्रवाद के अनुसार दु:ख भ्रांतिमात्र है। अनुभव इन दोनों धारणाओं को अमान्य बताता है। शोधनवाद दु:ख के अस्तित्व से इनकार तो नहीं करता, परंतु इसकी निर्वृत्ति भी संभव मानता है। यही नहीं, हम दु:ख को उन्नति का साधन भी बना सकते हैं। राजनीति प्राय: दंडनीति ही है। मानवजाति के उत्थान में पीड़ा का भाग बहुत महत्वपूर्ण है। हेगेल ने इसपर विशेष बल दिया है कि द्वंद्व उन्नति का मूल है।(दीवानचंद)