दीवाने-आम वह हाल जिसमें मुगल बादशाह अपना रोजाना दरबार लगाते थे और जिसमें आम अफसरों को आने की इजाजत थी। इसको आजकल की शब्दावली में 'दीवाने आम' और मुगलों की शब्दावली में ''दीवाने-आमो-खास'' के नाम से पुकारा जाता था। ऐसे हाल मुगलों ने अपने किलों में बनवा रखे थे। इसका रिवाज अकबर के समय से ज्यादा मिलता है। अकबर ने ऐसे हाल आगरा और लाहौर में बनवाए। शाहजहाँ ने दीवाने-आम की आगरा और लाहौर की बनी हुई इमारतों को तोड़कर, नई इमारतें बनवाई और जब देहली राजधानी बनी तो वहाँ इसी काम के लिए एक नया हाल लाल पत्थर का बनवाया, जो अब भी वर्तमान है। मुगल दीवाने आम के लिए राजधानी में बने हुए हाल से काम लेते थे और जब वे युद्धस्थल पर होते तो 'बारगाह' (बड़ा खेमा) में ऐसा ही दरबार लगाते थे।

दरबारे आम में कायदे कानून की निगरानी मीर बख्शी के सुपुर्द होती। यहाँ अदब का अधिक ध्यान रखा जाता था। दीवाने आम में हर एक की जगह उसके पद और मंसब के अनुसार होती थी। बादशाह के तख्त से लेकर चार गज की दूरी पर शाहजादे खड़े होते। चार गज से लेकर १५ गज के बीच तक बुजुर्ग अमीर और १८ गज से लेकर कठघरे तक दूसरे मंसबदारों और अमीरों की जगह थी। ये लोग सब बादशाह के दाहिनी ओर खड़े होते थे। इनमें ही राजाओं और अन्य देशों से आए हुए राजदूतों की भी जगह मुकर्रर थी। बादशाह की बाईं ओर ''उलमा'' (विद्वान्) और ''कोरची'' खड़े होते थे।

हुमायूँ के समय में चुने हुए ''बसावल'' (रक्षक) यहाँ बादशाह की रक्षा के लिए कील काँटे से लैस खड़े रहते थे। शाहजहाँ के समय में यह काम मोटे ताजे उजबक जातिवालों के सुपुर्द था।

दीवाने-आम में जाने के लिए आज्ञापत्र की आवश्यकता पड़ती थी। दरबार में बैठनेवाले लोग, दरबार शुरू होने से बहुत पहले आ जाते और अपनी अपनी जगह पर खड़े हो जाते थे। बादशाह जैसे ही प्रवेश करता, उसे झुककर अदब से सलाम करते थे और फिर सामने हाथ बाँधकर नीची नजरें किए हुए मूर्ति के समान चुप खड़े हो जाते। दरबार में बैठने और बात करने की इजाजत न थी।

बादशाह के सामने उपस्थित होनेवालों को दरबारी शिष्टाचार का पालन करना पड़ता था। हुमायूँ के समय में ''तसलीम'' की जाती थी। अकबर के समय में ''कोरनिश'', ''तसलीम'' और ''सिजदा'' करना पड़ता था। शाहजहाँ के समय में सिर्फ ''चहार-तसलीम'' (चार बार तसलीम करना) करना पड़ती थी। विदेशी राजदूतों को कभी कभी अपने देश में प्रचलित शिष्टाचार का पालन करने की अनुमति थी।

जब बादशाह दरबारे-आम में दाखिल होता तो ''नक्कारा'' बजाया जाता ताकि सबको मालूम हो जाए कि बादशाह दरबार में हैं। किसी को बादशाह की मौजूदगी में दरबार से बाहर जाने की इजाजत न मिलती। जब बादशाह दरबार से उठ जाते तो लोग अपने पद ओर मंसब के अनुसार बाहर निकलते।

दरबारे-आम रोजाना लगता था। बीमारी के अलावा बादशाह इस दरबार में तख्त पर अवश्य बैठता। मुगल इतिहास में कुछ हो ऐसी मिसालें मिलती हैं, जब बादशाह तख्त पर न बैठा हो। सिर्फ शाहजहाँ ने कुछ दिनों के लिए जहाँआरा के जल जाने पर दरबारे-आम मुलतवी रखा था।(मुहम्मद अजहर असगर अंसारी)