दीर्घवृत्तलेखी (Ellipsograph) - दीर्घवत्त खींचने के लिए उसके दो गुणों का उपयोग किया गया है : (१) दीर्घवृत्त पर स्थित किसी भी बिंदु से उसकी नाभीय दूरियों का योगफल सदा दीर्घ अक्ष के बराबर रहता है तथा (२) यदि नियत लंबाई की ऋजु रेखा के सिरे दो लंब रेखाओं पर खिसकें, तो उसके रेखा पर स्थित कोई भी आंतरिक अथवा बाह्य बिंदु दीर्घवृत्तीय चाप की रचना करेगा।
चित्र १.
पहले गुण का उपयोग करने के लिए दो पिन और अवितान्य (inextensible) धागे की आवश्यकता होगी। मान लें दीर्घ अक्ष २क (2a) और लघु अक्ष २ख (2b) का दीर्घवृत्त अभीष्ट है, तो नाभियों के बीच की दूरी
होगी।
अब दूरी २द (2d) पर दो पिन गाड़े जाएँ और २द + २क (2d+2a) लंबाई के धागे के दोनों सिरों को आपस में बाँधकर इस डोरपाश को पिनों पर पहनाकर पेंसिल या लेखनी की नोक से पाश को तना रखकर पेंसिल चलाई जाए, तो नोक से अभीष्ट दीर्धवृत्त खिंच जाएगा। इस विधि से उद्यान आदि में बड़े दीर्घवृत्त अब भी खींचे जाते हैं। किंतु पूर्णत: अवितान्य डोर कदाचित् ही उपलब्ध होती है। यह विधि सूक्ष्म कार्य के लिए अनुपयुक्त है। इस विधि से छोटे दीर्घवृत्त खींचने में सुगमता लाने की दृष्टि से विभिन्न युक्तियाँ स्टेनले, हैज़र्ड (सन् १८८४), कानटोंज (सन् १८९५), प्रोफेसर हनी, रेन आदि ने दी हैं :
दूसरे गुण का उपयोग कर दीर्घवृत्त ट्रेमेल (trammel) की रचना की गई है, जो सामान्य रेखाचित्र के उपयुक्त दीर्घवृत्त खींचने के लिए सरलतम और सर्वाधिक उपयुक्त यंत्र है। इस यंत्र से सुगमतापूर्वक विभिन्न मापों और अनुपात के दीर्घवृत्त खींचे जा सकते हैं।
दीर्घवृत्त ट्रेमेल का प्रारंभिक रूप यह था कि वज्राकार धातुपट्ट में नीचे की ओर एक दूसरे पर लंब दो खाँचे (groove) बने रहते
चित्र २.
थे और नीचे लगी पिनों द्वारा ट्रेमेल कागज पर स्थिर हो जाता था। इन खाँचों में जड़े दो स्लाइडरों में ऊपर की ओर छिद्रयुक्त सिर थे, जिनमें होकर एक दंड जाता था, जो हरेक सिर से जकड़ दिया जाता था। लेखनी या पेंसिल दंड के सिरे पर कस दी जाती थी।
यदि क ब = च (A P = c) तथा ख ब = छ (B P = d) तो लंब खाँचों के सापेक्ष दीर्घवृत्त का समीकरण
य२/च२ + र२/छ२ = १ (x2/a2+y2/ b2 = 1)
है तथा दीर्घवृत्त की चौड़ाई = च - छ (c - d)। इस प्रकार पूरा दीर्घवृत्त तभी खींचा जा सकता है जब उसकी चौड़ाई प्रत्येक खाँचे की अर्ध लंबाई से कम रहे। वज्र की एक बाहु (उदाहरणत: अर) काट देने पर जो अर्धदीर्घवृत्त ट्रेमेल मिलता है उससे कुछ अधिक चौड़ाई के दीर्घवृत्त खींचे जा सकते हैं, क्योंकि अब लघुअक्ष पहले से दुगुना तक लिया जा सकता है। अर्ध ट्रेमेल से एक बार में आधा दीर्घवृत्त खींचा जा सकता है।
लघु परिमाण के दीर्घवृत्त खींचने के लिए जॉन फैरी ने सन् १८१० में सामान्य ट्रेमेल में एक परिवर्धन किया। मूल परिवर्धित यंत्र सोसायटी ऑव आर्ट्स, लंदन को १८१२ ई. में भेंट किया गया और उसके उपलक्ष्य में फैरी को स्वर्ण पदक पुरस्कार में मिला। फैरी यंत्र में सामान्य खाँचों के स्थान पर दो जोड़ी समांतर दंड एक दूसरे पर लंबत: नियत रहते हैं। हरेक संर्पक लगभग ४ इंच व्यास का वृत्तीय वलय होता है और इन वलयों के बीच की दूरी चूड़ीदार (milled) सिरवाले दंडचक्री द्वारा ० से १.२ इंच तक बदली जा सकती है। दोनों वृत्तों में यही एक आपेक्षित गति संभव है, अन्यथा वे दीर्घवृत्त खींचते समय एक दृढ़ पिंड की भाँति चलते हैं। ऊपर के वलय से लगा एक फिरकी सॉकेट (swivel socket) रहता है, जिसमें एक सामान्य परकार की एक बाहु का सिरा स्थिर किया जा सकता है। इसके कारण आलेखन बिंदु की स्थिति शीघ्रता और सुगमता से ठीक की जा सकती है। इस चौखट से दो आक्षुरित सिरवाले पेचों द्वारा एक पटरी जड़ी रहती है। पटरी में नीचे की ओर दो सूई की नोकें निकली रहती हैं। सन्निकट स्थिति में पटरी रखने पर चौखटे को दीर्घवृत्त खींचने के लिए शुद्ध स्थिति में लाया जा सकता है। यंत्र के इस रूप में फैरी ने आगे चलकर कई एक संशोधन किए, जिससे यंत्र का भ्रमण अधिक संयत और धीर हो गया।
एक अन्य प्रकार के दीर्घवृत्तलेखी में वृत्तीय और ऋजुरेखीय दोनों गतियों का समन्वय है। सामान्य ट्रेमेल में निर्दिष्ट लंबाई की रेखा का मध्य बिंदु एक वृत्त में चलता है, इसलिए यदि मध्य बिंदु म को मूलबिंदु अ से एक भ्रमण शील दंड द्वारा मिला दिया जाए तो एक ऋजुरेखीय खाँचे की आवश्यकता नहीं रहती। इस प्रकार का ट्रेमेल पहले जेम्स फिने ने १८५५ ई. में बनाया; आगे चलकर स्टेनले ने इसमें पर्याप्त सुधार किए। १८७१ ई. में एडवर्ड बर्सटो ने एक शृंखला, या चक्र गिअर (gear), द्वारा इन दो प्रकार की गतियों का संयोजन किया।
चित्र ३.
यदि अ म के साथ साथ म क भी इस प्रकार घूमता है कि � म अ क = � म क अ, तो दूसरे खाँचे की भी आवश्यकता नहीं रहती। इस प्रकार के भी कुछ दीर्घवृत्तलेखी बने हैं, जिनमें से एक फ्रेंक जे. ग्रे (सन् १९०१) का है और जर्नल ऑव दि सोसायटी ऑव दि सोसायटी ऑव आर्ट्स (१९०२ ई.) में इसका विस्तृत विवरण है।
इन यंत्रों में जब स्याही की साधारण लेखनी प्रयुक्त होती है तब रेखाएँ एक समान मोटाई की नहीं होती। कर्ण गिअर (steering gear) की सहायता से प्रोफेसर ऐलेक्जैंडर और एफ. जे. ग्रे, ने इस दोष को भी दूर किया।
सं.ग्रं. - जॉन फैरे : ट्रांस सो. आर्ट्स, खंड ३१, १८१३, पृष्ठ ११७-१३०; जेम्स फिने : इंजीनियर ऐंड मैकिनिस्टस ड्रॉइंग बुक, ब्लैकी ऐंड सन्स, १८५५; वि. फोर्ड स्टेनले : मैथेमैटिकल ड्राइंग इंस्टूमेंट्स, १८७३; फ्रेंक जे. ग्रे : 'जर्नल ऑव दि सो. ऑव आर्ट्स, १९०२, खंड १.।(हरिश्चंद्र गुप्त)