दोमौक्रितस (४६०-३७० ई.पू.) प्राचीन यूनानी दर्शन के आयोनी काल के अंत में अणुवाद का श्रेष्ठतम प्रतिपादक। यह थ्रेस के समुद्री तट पर स्थित व्यापारकेंद्र अब्देरा का निवासी था। उसने बेबीलोन जाकर वहाँ के पुजारियों और ज्यामिति के विशेषज्ञों से, और भारत आकर यहाँ के दिगंबर संतों से शिक्षा प्राप्त की थी। संभवत: वह अणुवाद के संस्थापक ल्यूसिपस का शिष्य था।
स्वभाव से दयालु था। उसे ख्याति से बड़ी घृणा थी। उसने पर्यटन तथा शिक्षाप्राप्ति के अतिरिक्त अपना संपूर्ण शेष जीवन अध्यापन एवं ग्रंथरचना में ही व्यतीत किया। उसमें दार्शनिक चिंतन एवं वैज्ञानिक सामग्री को साहित्यिक सरस शैली में प्रस्तुत करने की अपूर्व योग्यता थी।
दीमौक्रितस की रचनाओं के तीन सौ से ऊपर अंश और उसकी बहुत सी लघु उक्तियाँ उपलब्ध हैं। उसके सबसे अधिक प्रसिद्ध ग्रंथ का विषय महाऋतु है, और कदाचित् उसके एक अन्य ग्रंथ क विषय हीनऋतु भी था।
अपनी रचनाओं में दीमौक्रितस ने अपने समय की सभी दार्शनिक समस्याओं पर और विशेषतया परिवर्तन के स्वरूप पर गंभीर तथा सूक्ष्म चिंतन किया और आकृतिक कारण की धारण पर आश्रित एक नवीन वैज्ञानिक विधि का उपस्थापन किया। इसने ईलियातिकों द्वारा स्वीकृत पूरित अणु के अतिरिक्त शून्य आकाश को भी सत्य तत्व माना। उसके मतानुसार इस अनंत, असीम देश रूपी शून्य आकाश में ही अणुओं के सम्मिलन और विच्छेद से परिवर्तन तथा क्षय हुआ करता है। अणु सत्य, नित्य, अकारण, असंख्य, भरे, अशून्य, एवं अविभाज्य पदार्थ हैं, और आकृति, क्रम, स्थिति, परिमाण, एवं भार में विषम हैं। परंतु ये सभी इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमारी इंद्रियाँ इन्हें ग्रहण नहीं कर पातीं। स्वाभाविक प्राकृतिक बाध्यता मात्र से ही समान भार के अणुओं का सम्मिलन हो जाता है। आदि शून्य में असमान भार के अणुओं ने आसमान वेग से गिरते हुए हलके अणुओं से टकराकर उन्हें भी भ्रमणात्मक गति प्रदान की होगी।
दीमौक्रितस को विश्वास था कि गीली मिट्टी मात्र से वनस्पतियों की उत्पत्ति हुई है। परंतु इन सब में मनुष्य ही जटिल शारीरिक रचना, अंगों के प्रकार्यों की विभिन्नता, और आत्मवानता के कारण प्रशंसनीय है। आत्मा नैतिक गुणों से युक्त है, देवता है, परंतु है भौतिक पदार्थ ही; अग्नि की भाँति सूक्ष्मतम, पूर्णतया गोल, सम अणुओं से बना। इसकी बोधक्रिया भी भौतिक प्रक्रिया होती है, इंद्रियों पर विषयों के स्पर्श से छाप पड़ जाने की प्रक्रिया। चिंतन भी आत्मापदार्थ में ऐसी भौतिक छापों द्वारा उत्पन्न परिवतनों को कहते हैं। अंतर यह है कि ऐंद्रिय ज्ञान अस्पष्ट होता है, और विचार अदृश्य अणुओं के सत्य स्वरूप का ज्ञान करा देता है।
ऐसे तत्वसिद्धांत के साथ दीमौक्रितस के नीतिविचार के लिए निराशावादी परम सुखवाद का रूप लेना स्वाभाविक था। उसने चरम लक्ष्य सुख, परंतु परमसुख पशुधन, स्वर्ण, आदि बाह्य पदार्थों में नहीं, मन की शुद्ध प्रवृत्तियों में, प्रफुल्लता में, कल्याण में, अचल मानसिक शांति में माना। वह मनुष्यों के मूर्खतापूर्ण इच्छाओं की पूर्ति में लगे रहने पर इतना हँसा करता था कि उसे स्वयं परिहासमूर्ति कहा जाने लगा था।(राममूर्ति लूंबा)