दीपवंस निस्संदेह एक ऐतिहासिक महाकाव्य के रूप में सिंहल का महावंस' अधिक आदृत है, किंतु रचनाकाल की दृष्टि से दीपवंस 'महावंस' की अपेक्षा प्राचीनतर ही नहीं प्राचीनतम है और उपयोग की गई सामग्री की दृष्टि से भी कुछ अंशों से भिन्न। जार्ज टर्नर ने किसी समय अपना यह मत प्रकाशित किया था कि 'दीपवंस' और 'महावंस' दोनों दो भिन्न रचनाएँ न होकर एक ही रचना के दो नाम हैं। उनका यह मत अयथार्थ ही है।

यदि अनुराधपुर के महाविहार के 'अठ्ठकथा-महावंस' का और दीपवंस का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि 'दीपर्वस' के रचयिता ने अपने ग्रंथसंपादन के लिए 'अट्टकथामहावंस' से न केवल यथेष्ट सामग्री ही ली, बल्कि अभिव्यक्ति की शैली और कहीं कहीं वाक्य के वाक्य ज्यों के त्यों अपना लिए हैं। 'दीपवंस' का अधिकांश ऐसा ही है कि जिससे वह एक स्वतंत्र रचना न होकर अठ्ठकथा सदृश ग्रंथ या अन्य ग्रंथों के उद्धरणों का संग्रह प्रतीत होता है। यह एक प्रकार से सिंहल में प्राप्त सामग्री का कच्ची पक्की पालि में अनुवाद मात्र है।

जिस काल का ऐतिहासिक लेखाजोखा 'दीपवंस' ने सुरक्षित रखा है, वह समय महावंस के काल के समानांतर ही है। दोनों ग्रंथ महासेन नरेश की मृत्यु के समय ही अपने अपने वर्णन की 'इति' करते हैं। इस समानता का एक बड़ा कारण यह है कि दोनों ग्रंथों ने अपनी मूल उपादान सामग्री का चयन एक ही स्थल से किया है और वह स्थल है महाविहार का 'अठ्ठकथा महावंस।'

महासेन नरेश की मृत्यु पर ही 'दीपवंस' तथा 'महावंस' के समाप्त होने का एक संभव कारण यह है कि महाविहार के विरोधियों ने महासेन की ही अनुमति प्राप्त कर महाविहार को विध्वंस कर डाला था। पूरे नौ वर्ष तक महाविहार महाविहारवासियों से शून्य रहा।

दीपवंस के रचनाकाल को हम ई. ३०२ से पूर्व नहीं ले जा सकते, क्योंकि इसमें उस समय तक की घटनाओं का उल्लेख है। दूसरी ध्यान देने लायक बात यह है कि महान् अट्ठकथाचार्य बुद्धघोष 'दीपवंस' से अथवा उसके किसी अंश से अवश्य परिचित रहे है। फिर 'महावंस' को जिन महास्थविर ने आगे बढ़ाया है उन्होंने हमें यह जानकारी भी दी है कि धातुसेन नरेश (ई. ४५९-४७७) ने, महास्थविर महेंद्र की मूर्ति के प्रति गौरव प्रकट करने के लिए जो महोत्सव किया था, उसमें 'दीपवंस' का पाठ करने क आज्ञा दी थी।

इन बातों पर विचार करने से हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि दीपवंस की रचना चतुर्थ शताब्दी के आरंभ और पाँचवीं शताब्दी के तृतीयांश के प्रथम भाग में हुई होगी।

जहाँ तक रचनाकाल की बात है 'महावंस' का भी निश्चित रचनाकाल अज्ञात ही है। किंतु, 'दीपवंस' जहाँ काव्य की दृष्टि से एकदम ध्यान न देने लायक लगता है, कहीं कहीं पद्य भी विद्यमान है, वहाँ 'महावंस' एक श्रेष्ठ महाकाव्य है।

यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार श्रीलंका के उत्तरकालीन पालि महाकवियों ने 'महावंस' की परंपरा को चालू रखकर उसकी कथा को अद्यतन बना दिया, उसी प्रकार पंडित अहुनगल्ल विमलकित्ति महानायक स्थविर ने अभी वर्तमान में ही 'दीपवंसक कथाकाव्य' को आगे बढ़ाकर उसे भी अद्यतन बना दिया है।

(भंदत आनंद कौसल्यायन)