दीनदयालु गिरि हिंदी के काव्यगमन में दीनदयालु गिरि एक ऐसे नक्षत्र है जो अपने अन्योक्तिप्रकाश के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इनका आविर्भाव रीतिकाल के उत्तर भाग एवं आधुनिक काल के संधियुग में हुआ, अत: उनके काव्य में दोनों युगों की विशेषताएँ समाहित हैं।
जीवनपरिचय - गिरि जी का जन्म संवत् १८५९ वि. (सन् १८०२ ई.) में श्रीपंचमी के दिन, गायघाट, काशी में हुआ था। ये केवल छह वर्ष के थे कि इनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता ने अपने गुरु, गोस्वामी कुशागिरि के समीप इन्हें भेज दिया। इसके कुछ ही समय पश्चात् इनके पिता का भी देहांत हो गया। गो. कुशागिरि, दिल्ली में विनायकमठ के महंत थे। इस मठ के साथ एक बड़ी जागीर भी संबद्ध थी। गो. कुशागिरि जी की देखरेख में ही शिशु दीनदयाल की शिक्षा दीक्षा चलने लगी। किसी वस्तु का अभाव वहाँ था ही नहीं, दीनदयालु जी का समय बड़े सुख और आनंद से व्यतीत होने लगा। इनकी बुद्धि बड़ी कुशाग्र थी। अत: कुछ ही वर्षों में हिंदी तथा संस्कृत का पर्याप्त ज्ञान इन्होंने अर्जित कर लिया। गो. कुशागिरि जी बड़े चरित्रवान् व्यक्ति थे, अत: उनके सद्गुणों एवं संस्कारों का प्रभाव दीनदयालु जी पर भी पर्याप्त मात्रा में पड़ा। इनका मन ईश्वर की भक्ति तथा वैराग्य की ओर अधिकाधिक आकृष्ट होता गया और २० वर्ष की उम्र में ही इन्होंने संन्यास ले लिया। संऋ १८९० वि. (१८३३ ई.) में गो. कुशागिरि के देहांत के पश्चात्, मठ की संपत्ति के लिए शिष्यों में जब झगड़ा होने लगा प्रथम दीनदयालु जी ने उसे सुलझाने का प्रयत्न किया, किंतु असफल होने पर वे छोड़ कर रामेश्वर चले गए। वहाँ से लौट कर वे मटौली में रहने लगे। कभी कभी काशी भी आते रहते थे।
दीनदयालु जी उज्जवल चरित्र के परम तपस्वी एवं विद्वान् व्यक्ति थ। पुत्रैषणा, धनैषणा तथा लोकैषणा तीनों प्रकार की एषणाओं से वे ऊपर उठ चुके थे। जीवन में आडंबर उन्हें पसंद नहीं था, अत: राजाओं तथा धनपतियों के निमंत्रण को वे प्राय: अस्वीकार कर देते थे। जीवन का अंतिम समय उन्होंने काशी के मणिकर्णिका घाट पर व्यतीत किया। सं. १९१५ वि. (सन् १८५८ ई.) में ५६ वर्ष की अवस्था में, निर्जला एकादशी के दिन उन्होंने अपना भौतिक शरीर त्यागा।
काव्यरचनाएँ - दीनदयालु जी प्रतिभावान् कवि थे। काव्यरचना उन्होंने २० वर्ष की अवस्था में ही आरंभ कर दी थी। उनकी प्रारंभिक रचनाओं में भी पर्याप्त प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है। 'दृष्टांत तरंगिणी' गिरि जी की प्रारंभिक रचना है। दूसरी रचना 'विश्वनाथनवरत्न' है। इसका रचनाकाल सं. १८७९ वि. (सन् १८२२ ई.) माना जाता है। इसमें भगवान् शंकर के प्रति कवि की भावाभिव्यक्ति है। 'अनुरागबाग' की रचना गिरि जी ने सं. १८८८ वि. (सन् १८३१ ई.) में की है। इसमें सुंदर कवित्तों में श्रीकृष्ण जी के प्रति भक्तिभाव का चित्रण है। 'वैराग्यनिदेश' में कवि ने मनोहारी रूप में ऋतुओं के वर्णन के साथ ज्ञान और वैराग्य से संबद्ध विविध प्रकार के आध्यात्मिक चित्र अंकित किए हैं। इन रचनाओं के अतिरिक्त 'अन्योक्ति कल्पद्रुम' उनकी प्रौढ़ रचना है। इसमें मानव और प्रकृति के विविध क्षेत्रों से संबंध रखनेवाली उत्कृष्ट कोटि की अन्योक्तियाँ हैं। आलोचकों ने सामान्यत: गिरि जी की समस्त रचनाओं को दो भागों में विभक्त किया है : (१) शृंगारविषयक और (२) नीतिविषयक। 'अनुरागबाग' में कवि के राधाकृष्णविषयक मधुर भाव के चित्र हैं, किंतु कहीं भी अश्लीलता नहीं आने पाई है। दीनदयालु गिरि की समस्त अन्योक्तियाँ प्राय: नीति विषयक ही हैं। सभी ग्रंथों में गिरि जी की भाषा और भाव पूर्णतया परिमार्जित हैं।(धर्मेंद्रनाथ शास्त्री)