दिवोदास प्राचीन भारत में दिवोदास नाम के तीन राजा हुए थे। प्रथम दिवोदास काशी का चंद्रवंशी राजा था। पुराणों में उसकी चर्चा है (ब्रह्म, ११. ३९-४८; वायु, ९२.२३.३८,६१-६८; ब्रह्मांड, तृतीय, ६७.२६-३१, ६४-७२)। कभी कभी उसके वंशज द्वितीय दिवोदास के साथ उलझे हुए रूप में मिलते हैं। किंतु पार्जिस्टर महोदय का यह क्रम निर्धारण सही प्रतीत होता है (एंशेंट इंडियन हिस्टॉरिकल, ट्रेडिशन्स्, १९६२, पृष्ट १५३-५५) की प्रथम दिवोदास दक्षिणापथ के हैहयवंशी दो राजाओं भद्रश्रेण्य और दर्दभ का समकालीन था। वह भीमरथ का पुत्र था और हैहयों के आक्रमण के कारण संभवत: उसे अपनी राजधानी वाराणसी छोड़कर गंगा-गोमती-संगम की ओर भागना पड़ा था। उसके तीन पुश्तों बाद उसी के नाम का एक दूसरा राजा हुआ। इस द्वितीय दिवोदास के समय हैहय तालजंघ वंशी वीतिहव्य (वीतिहोत्र) के पुत्रों ने काशी पर पुन: आक्रमण किया और उसे युद्ध में हराया। किंतु शीघ्र ही उसके पुत्र प्रतर्दन ने उन्हें मार भगाया। तृतीय दिवोदास उत्तरी पंचालों की एक शाखा तृत्स का राजा था और अतिथिग्व उसकी उपाधि थी। उसके पिता का नाम वृहदश्व (विष्ण, चतुर्थ १९.६१) अथवा भद्रश्व था। वह एक महान् योद्धा और विजेता था तथा पौरवों, यादवों और तुर्वसों से उसकी लड़ाइयाँ हुई हीं, पणि लोगों और दासों से भी उसके युद्ध हुए। दासों का उसका शत्रु राजा शंबर था जिसे उसने कई बार हराया। (ऋग्वेद, प्रथम ११२,१४; प्रथम, ११६,१८; प्रथम, ११९,४; प्रथम, १३०-७; द्वितीय, १९.६; चतुर्थ २६,३ आदि) योद्धा के साथ ही साथ वह महान् विद्वान् और वैदिक मंत्रों का रचयिता था। वैदिक साहित्य के अनेक स्थलों में भी उसकी चर्चाएँ मिलती हैं (ऋग्वेद, षष्ठ, ६१.१; सप्तम १९.८; नवम. ६१.२)।(विशुद्धानंद पाठक)