दिरम यूनान में इसे द्राख्मी या द्रेख्मी कहते थे। इसका लैटिन पर्याय द्राख्मे, संस्कृत द्रम्भ; प्राकृत दम्य; हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा में दाम; अरबी, दिरहम तथा दिरम और फारसी में दिरम है।
द्राख्मी या द्राख्मा यूनान देश का एक सिक्का था जो प्राय: चाँदी का होता था। यह एक तौल का भी नाम था जिसे अंग्रेजी में ड्राम कहते हैं। फारसी लुगत में इसे साढ़े तीन माशे का लिखा है। आजकल ड्राम एक आैंस का या लगभग - ग्रेन होता है। रोमन दीनार २० द्राख्मे के बराबर होता था और एक द्राख्म या १० पेन्स के बराबर था। यूनान में यह सिक्का अब भी प्रचलित है जिसमें १०० लिपटा (सिक्के) होते हैं।
भारत में यह सिक्का यूनानियों के साथ अवश्य आया होगा। रोम से भारत का व्यापार पहली शताब्दी ई. से आरंभ हुआ और वहाँ के चाँदी के द्राख्मे या द्रम भी भारत में बहुत मिले है। मई सन् १९६५ में चाँदी के २००० रोमन सिक्के प्राप्त हुए हैं उनपर आगस्टस सीजर की मूर्ति है। अरबी में कुरान में सूराए-यूसूफ में द्राख्म से मोल लेन का उल्लेख है। ईरान में सासानियों के समय (छठी शताब्दी) तक द्रम का उल्लेख मिलता है।
भारतवर्ष में द्रम का सबसे प्राचीन उल्लेख यौधेय गण (दूसरी शताब्दी ई.पू.) में मिलता है 'ब्रह्मण्स्य देवस्य द्रम' जिसमें कार्तिकेय की मूर्ति भी है। तक्षशिला के सिक्के भी यूनानी तौल के थे। इन सिक्कों का विशेष प्रचार गूजरों के समय में हुआ। इनका सासानियन सभ्यता से संबंध था। इनका प्रचार मध्यकाल में नवीं शताब्दी से १३वीं शताब्दी तक अधिक था। भोजदेव प्रतिहार के लेख में यह नाम आया है। हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में भी (एक्कु वि दम्भु ४.४२२) द्रम शब्द है। लीलावती गणित के ग्रंथ में एक प्रश्न में पूछा है कि एक पखवाड़े में एक राजा ने कितने द्रम्म दिए (द्रमा बद द्राक कित तेन दत्ता:) राष्ट्रकूट राजा अमोधवर्ष (८१५-८७७) के लेख में कांचन द्रम का उल्लेख है। सियदोनी के लेख में द्रम के भाग पद (चौथाई हिस्से) की बात कही गई है। इसमें द्रम के और हिस्से भी दिए हैं।
लेखापद्धति नामक ग्रंथ (१३वीं शताब्दी) में लिखा है 'श्री मालीय नगरर्टक शालाहत त्रि: परीक्षित हट्ट व्यावहारिक्य प्रचलित श्रेष्ठ श्रीमत्पारौपथ रौक्यगृहीत द्रम्मा:' अर्थात् श्रीमालनगर की टकसाल में आहत तीन बार परखे हुए हाट के व्यवहार में आनेवाले चालू, बिना मिलावट के रोकड़ लिए हुए पोरोपथ द्रम्म। पुरातन प्रबंध संग्रह (सिंधी ग्रंथमाला, पृष्ठ ५१) से ज्ञात होता है कि चाँदी का एक पारुथक द्रम्म आठ साधारण द्रम्मों के बराबर था। जालोर के राव उदयसिंह के मंत्री ने सुलतान से कहा 'पारूथकान् दास्याम:। खरतर गच्छ पट्टावली (१०१०-१३३६ ई.) में लिखा है कि मालवा के राजा परमार राजा नखबर्मन ने तीन लाख पारुत्थ द्रम्म जैन आचार्य जिनवल्लभसूरी को देना चाहा। उस ग्रंथ में वीसलदेव के द्रम्मों का भी उल्लेख है 'वीसलप्रिय द्रम्म'।
मुस्लिम काल में महमूद गजनबी से लेकर मुगल बादशाहो के काल तक 'द्रम्म' 'तथा' दाम का प्रयोग मिलता है। महमूद गजनवी के सिक्कों में कलमा 'ला इलाह इललिलाह मुहमद रसूल अलाह सुलतान मुहम्मद' दिया हुआ है जिसका हिंदी अनुवाद है (अव्यक्त एक मुहम्मद अवतरि नृपति महमूद)। उसी में नीचे लिखा है- (जरबा हाज़ा अल दिरहम) यह दिरम आहत हुआ। मुहम्मद गोरी के सिक्के में भी यह दिरम होता है। मुहम्मद तुगलक के दो सिक्कों पर भी लिखा है 'ज़रब्अ अल दिरहम शाई' (शरअउ मुसलमानी कानून के अनुसार)। अबुलफजल ने लिखा है कि ताँबे का दाम पंचर्टक का होता था। शेरशाह के सिक्कों को भी द्रम्म कहते थे। अकबरशाही रु. के ३९ दाम होते थे। दाम का आठवाँ हिस्सा दमड़ी था। जहाँगीर, आरंगजेब तक की मालगुजारी दामों में वर्णित है।
सं.ग्रं. - कारमाइकेल लेकचर्स, मुद्रा भंडारकर टॉमस क्रानिकिल्स ऑव पठान किंग्स (१८७४), जर्नल ऑव न्यूमिस्मेटिक्स दिसंबर १९५० बी.एस. अग्रवाल; आईन-ए-अकबरी; अबुलफजल इत्यादि। (रामकुमार चौबे)