दासबोध मराठी संत साहित्य का एक प्रमुख ग्रंथ। इसकी रचना १७वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के तेजस्वी संत श्रीसमर्थ रामदास ने की। इनका मूल नाम नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी (ठोसर) था। इनका जन्म महाराष्ट्र में जांब नामक स्थान पर शके १५३० में हुआ। आख्यायिका है कि १२ वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय 'शुभमंगल सावधान' में 'सावधान' शब्द सुनकर वे विवाहमंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्रीरामचंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में १२ वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम 'रामदास' पड़ा। इसके बाद १२ वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। इस प्रवस में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्षसाधना के स्थान पर अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने ११०० मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्यस्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्रीशिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्यस्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उन्होंने शके १६०३ में ७३ वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।

ऐसे निराले संत के उपदेश इस ग्रंथ में हैं। उनका जीवनदर्शन अत्यंत प्रौढ़, प्रांजल तथा सरल भाषा में इस ग्रंथ में प्रकट हुआ है। साधारण से साधारण व्यक्ति के लिए भी इसमें ग्रहण करने योग्य चीजें हैं और उच्च से उच्च अधिकारप्राप्त राजा, योगी, सिद्ध, साधक लोगों के लिए भी इसमें परमोपयोगी उपदेश हैं। इसे उन्होंने गुरुशिष्य-संवाद के रूप में रचा है। पूरा ग्रंथ 'ओवी' नामक मराठी छंद में है। इसे उन्होंने २० दशकों में विभाजित किया है। प्रत्येक दशक में नाम के अनुसार १० समास हैं। एक समास में एक विषय वर्णित है। इस प्रकार संपूर्ण ग्रंथ में दो सौ विषय हैं। इन विषयों में जीवन की शायद ही कोई छटा छूटी हो। इनमें स्वार्थ है, परमार्थ है, अध्यात्म है, सामाजिक तथा वैयक्तिक गुण, अवगुण, शक्ति, अधिकार, आहार, विहार, विचार, व्यवहार सभी कुछ है। 'अक्षर कैसा होना (लिखना) चाहिए' से लेकर 'आत्मज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता हैं' तक सभी विषयों पर ग्रंथ अनुभवसिद्ध पक्के विचार प्रस्तुत करता है। पूरे ग्रंथ में कुल ७७५१ ओवियाँ हैं।

इस ग्रंथ का महाराष्ट्र में बहुत अधिक सम्मान है। हिंदी भाषा जाननेवाले श्रीरामचरित मानस को जितने आदर की दृष्टि से देखते हैं उतने ही आदर की दृष्टि से मराठी जाननेवाले दासबोध को देखते हैं। महाराष्ट्र का व्यक्तित्व गढ़ने में इस ग्रंथ का महत्व सर्वाधिक है। (बालमुकुंद गणो क्षीरसागर)