दास और दासप्रथा (प्राचीन भारतीय) भारत में भी दासप्रथा की उत्पत्ति युद्धों के उस प्रचलन में पाई जाती है जिसके अनुसार विजेता विजित शत्रु का अपमान करने के लिए उसे अपनी सेवा और दूसरे निकृष्ट कार्यों में लगाता है। 'दास' शब्द वैदिक साहित्य में मूलत: आर्यों के विरोधी आदिनिवासियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह स्वाभाविक ही था कि यह शब्द उन दासों के लिए भी प्रयुक्त हुआ जो आर्यों के द्वारा युद्ध में पराजित होकर बंदी हुए और बाद में सेवा-कार्य में लगाए गए। ऋग्वेद में ही दास शब्द गुलामों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। वैदिक साहित्य में हमें गुलामों को दान में देने के उल्लेख मिलते हैं।

दासप्रथा का स्वरूप कालांतर में अवश्य ही कुछ परिवर्तित हुआ होगा जब किन्हीं कारणों से आर्यो में से भी कुछ लोगों की स्थिति दासों जैसी हुई। ऋग्वेद में द्यूत में हारे धन के रूप में दासत्व का उल्लेख है। प्राचीन बौद्ध साहित्य में किसी आर्थिक आवश्यकता, चिरकालीन ऋण, प्रायश्चित अथवा किसी के जीवन की रक्षा के निमित्त भी दासत्व स्वीकार करने के प्रमाण मिलते हैं। कभी कभी मृत्युदंड भी दास पथ में परिवर्तित कर दिया जाता था। इन उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि प्रारंभ में ही दास किसी सीमित हीन वर्गं पर नहीं लदा हुआ था वरन् यह शनै: शनै एक सामाजिक स्थिति का प्रतीक बना।

बौद्ध तथा जैन साहित्य में - प्रारंभिक बौद्ध साहित्य से दासप्रथा के विकास की सूचना मिलती है। दास कई प्रकार के बतलाए गए हैं। स्वामी के घर उत्पन्न, धन से क्रीत और युद्ध में बंदी - ये तीन प्रकार किसी आदिकाल की स्थिति को परिलक्षित करते हैं। जातक में स्वयं की इच्छा से बने दास चौथे प्रकार के दास के रूप में स्वीकृत हुए हैं। दासों के मूल्य की सुनिश्चित परंपरा होने के उल्लेख भी दासों के क्रयविक्रय की संख्या में वृद्धि की संभावना को सिद्ध करते हैं। दासों की दशा शोचनीय थी। उन्हें अल्प आहार मिलता था; वे घृणा के पात्र थे; वे कभी कभी पीटे जाते, बंदी बनाए जाते और दागे भी जाते थे; इसी से वे सदैव भागकर बचने के अवसर खोजते रहते थे। दासियों को अपने स्वामी की कामेच्छा भी कभी कभी शांत करनी पड़ती थी। दास स्वामी की संपत्ति थे। वह उन्हें दाँव में दे सकता था, उन्हें अपनी इच्छा से किसी भी काम में लगा सकता था और यदि वे भागने का प्रयत्न करते, उन्हें पकड़वा सकता था। किंतु इसके विपरीत ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे स्पष्ट है कि दासों के प्रति कोमल व्यवहार भी किया जाता था। दास स्वामी के परिवार का ही सदस्य माना जाता था। एक दासी को स्वामी के द्वारा पुत्रवधू बनाने की चर्चा 'थेरीगाथा' में आई है। एक स्वामी अपने दास के मत का समुचित आदर करता है, दूसरा अपने दास को अपने पुत्रों के साथ पढ़ना, लिखना और कलाकौशल सीखने की अनुमति देता है। दास भांडागारिक भी नियुक्त हो सकते थे। दास अपना मूल्य देकर या स्वामी की कृपा से स्वतंत्र हो सकता था।

बौद्ध और जैन धर्मों में जो व्यक्ति भिक्षु नहीं बन सकते थे उनकी सूची में दासों का भी उल्लेख है। यद्यपि बुद्ध ने दासप्रथा के विरुद्ध कोई सक्रिय आंदोलन नहीं किया, तथापि उन्होंने दासों की स्थिति सुधारने के लिय कुछ प्रयत्न अवश्य किए। उन्होंने स्वयं दास नहीं ग्रहण किये और भिक्षुओं को भी ऐसा करने की अनुमति नहीं दी। बुद्ध ने गृहस्थों को भी दासों के प्रति सद्व्यवहार का उपदेश दिया है। इस उपदेश के कल्याणकारी प्रभाव का आचरण बुद्ध के एक शिष्य द्वारा अपने दास और दासी को मुक्त करने मे मिलता है। अशोक ने भी दासों के संप्रति पत्तिधर्मको की परिभाषा के अंतर्गत गिनाया है।

उदारता का व्यवहार - अर्थशास्त्र में दासप्रथा के सबंध में उदार विचार मिलते हैं। कोई आर्य दास नहीं बनाया जा सकता, यही वाक्य बड़े महत्व का है। किसी भी बालक को दास के रूप में बेचना भयंकर अपराध था जिसके लिए क्रय करने वाले और साक्षी भी दंड के भागी होते थे। यदि परिवर की किसी आर्थिक विपत्ति के कारण कोई व्यक्ति दास के रूप में अपने को बंधक बनाता है, तो परिवर के सदस्यों को शीघ्रातिशीघ्र उसे मुक्त कराना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति अपने को दास रूप में बेच भी देता है तो उसकी संतानें स्वतंत्र रहेंगी। मूल्य चुकाने पर कोई भी दास, जन्मजात अथवा बंधक के रूप में स्वीकृत भी, स्वतंतत्र हो सकते थे। मूल्य पा लेने पर भी दास को स्वतंत्र न करने पर अथवा मुक्त हुए व्यक्ति को फिर से दास के रूप में बेचने पर दंड की व्यवस्था है। दास अपनी पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकारी बन सकता था। और स्वामी के हित को अथवा कार्य को बाधा पहुँचाए बिना कुछ धनोपार्जन भी कर सकता था। दास की संपत्ति के उत्तराधिकारी उसके कुटुंबी होते थे और उनके अभाव में ही संपत्ति उसके स्वामी को मिलती थी।

अर्थशास्त्र में दासों के हितों की रक्षा लिए कई नियम मिलते हैं। जो अपने दासों के हितों का ध्यान नहीं रखते उन्हें उनका कर्तव्य सिखाना राजा का कर्तव्य है। स्वामी के द्वारा दासों के साथ दुर्व्यवहार करने अथवा उन्हें घृणित कार्यों में लगाने के अधिकार पर समुचित नियंत्रण बतलाए गए हैं। अर्थशास्त्र में दासियों के साथ अनैतिक संबंधों को भी रोकने के नियम हैं। किसी दासी का शीलभंग करने पर स्वामी को उसके क्रयमूल्य से हाथ धोना पड़ता था। यदि स्वामी किसी दासी से संतान उत्पन्न करता तो दासी अपनी संतान सहित स्वतंत्र हो जाती थी। यदि उदरभरण के लिए दासी स्वतंत्र नहीं हो पाती, तो उसके भाई और बहन स्वतंत्र हो जाते हैं।

अर्थशास्त्र से पूर्व भी ऐसे उदार नियमों की परंपरा 'आपस्तंव धर्मसूत्र' में देखने को मिलती है। उसमें कहा गया है कोई भी व्यक्ति स्वयं अपने को अथवा अपने पति और पुत्र को भोजन के अभाव में भूखा रख सकता है किंतु अपने दास को नहीं। ब्राह्मणों को भी दासों के क्रय विक्रय में लगने से रोका गया है।

मेगस्थनीज का कथन है कि सभी भारतीय स्वतंत्र है और उनमें से एक भी दास नहीं है। उस काल में भारत में दासों का अस्तित्व निर्विवाद है। मेगस्थनीज के इस कथन का कारण संभवत: भारतीय दासप्रथा का उदार और सीमित रूप रहा हो। एक संभावना यह भी है कि ग्रीस में दास पशुसंपत्ति के समान थे, इसलिए भारतीय दासों के अधिकरों के कारण मेगस्थनीज ने उन्हें दास कहना ही उचित न समझा हो।

स्मृतियों में दासप्रथा संबंधी उल्लेख - दासप्रथा के नियम हमें स्मृतियों में मिलते हैं। स्वयं को बेचना उपपातक कहा गया है। संतानों को बेचने की भी निंदा की गई है। अपने से उच्च वर्ण के व्यक्ति को दास बनाना अनुचित था। कात्यायन का मत है कि ब्राह्मण कभी भी दास नहीं हो सकता। नारद ने विभिन्न प्रकार के दासों के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करने के नियमों का भी विवरण दिया है। जैन ग्रंथों में दासियों के स्वतंत्रता प्राप्त करने के समय उनके मस्तक धोने की प्रथा का उल्लेख है। स्मृतियों में दासों के अधिकारों और हितों की रक्षा का भी विधान है। दासी का शीलभंग करना अपराध था। संपन्न होने पर भी अपनी स्वामिभक्त दासी को बेचेनेवाला दंडित होता था। मनु ने दास को स्वामी के परिवार के सदस्यों के समान महत्व दिया है और कहा है कि वे स्वामी की छाया के समान है अतएव उसके अपराधों को क्षमा करना चाहिए। अपराध करने पर दास को दंड देने का अधिकार स्वामी को है लेकिन वह शरीर के सभी अंगों पर आघात नहीं कर सकता था। यह विचारणीय है कि जहाँ अपराध करने पर दास को दंड देने का अधिकार स्वामी को दिया गया है अथवा दास संपत्तिहीन कहा गया है अथवा स्वामी से पृथक् दास का कोई अस्तित्व नहीं माना गया है, वहाँ दास के साथ पत्नी और पुत्र का भी उल्लेख हैं। दासत्व का बंधन व्यक्ति के साथ सदैव नहीं लगा रहता था। स्वतंत्र होने पर उसे अपने सभी अधिकार और गौरव फिर से प्राप्त हो जाते थे।

प्राचीन पालि साहित्य में तीन या चार प्रकार के ही दास गिनाए गए हैं। मनु में इनकी संख्या ७ और नारद में १५ है। किंतु यह वृद्धि दासों की वास्तविक संख्या में वृद्धि का सूचक नहीं है। ऐसा विभाजन विषय के सम्यक् प्रकार से सूक्ष्म विवेचन के आधार पर अध्ययन करने की लालसा के कारण हुआ है। उपलब्ध प्रमाणों से यह नहीं सिद्ध होता कि क्रिया विशेष काल में दासों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।

दास को अपने स्वामी की आज्ञा पर सभी प्रकार के कार्य करने पड़ते थे। वे सेवक थे और गृहस्थी के सभी कार्यों के, जो उनकी शक्ति और बुद्धि के योग्य थे, करते थे। उल्लेखों से यह नहीं सिद्ध होता कि दास आर्थिक उत्पादन के कार्यों में ही प्रयुक्त होते थे। 'अमरकोश' में दास चेटक, नियोज्य, प्रैप्य, भुजिष्य, परिचारक और अन्य दूसरे शब्दों के साथ पर्यायवाची के रूप में सेवक के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दासप्रथा के उदार रूप, दासों की सीमित सख्या और उनका केवल उत्पादन के कार्यों में प्रयुक्त न होना यह सिद्ध करते हैं कि प्राचीन भारत में स्थिति अन्य प्राचीन संस्कृतियों से भिन्न थी। प्राचीन भारतीय आर्थिक व्यवस्था को दासव्यवस्था का नाम नहीं दिया जा सकता।

कुछ मार्क्सवादी इतिहासकार प्राचीन भारत की दासप्रथा को अपने प्रिय आर्थिक विकास की अवस्थाओं के सिद्धांत के सर्वथा अनुकूल न पाकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि भारतीय व्यवस्था में दासों के कार्य शूद्र ही करते थे। किंतु शूद्रों और दासों के एकीकरण का यह सिद्धांत उपलब्ध प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो पाता (द्रष्टव्य जे.ए.एच.आर.एस., खंड २७, पृष्ठ ८३-८९)। (लल्लनजी गोपाल)