दाब रसायन में उस दबाव के प्रभाव का अध्ययन है जिसके कारण पदार्थ की भौतिक तथा रासायनिक दोनों अवस्थाओं में तथा औद्योगिक रसायन के प्रक्रमों में परिवर्तन होते हैं। रासायनिक परिवर्तन में उच्च दाब के उपयोग ने रसायन विज्ञान को अधिक विस्तृत बना दिया है।
दाब रसायन का अध्ययन म्वाँसाँ (Moissan) के उस प्रयोग से आरंभ होता है, जिसमें उन्होंने उच्च दाब पर ग्रैफाइट को उच्च ताप तक गरम करके कृत्रिम हीरा बनाने का असफल प्रयत्न किया था। प्रथम महायुद्ध के पहले जर्मनी में बोडिश ऐनलीन और सोडा फैब्रिक (Bodische Anlin and Soda Fabric) कंपनी ने व्यापारिक मात्रा में हैबर प्रक्रम द्वारा, नाइट्रोजन और हाइड्रोजन गैसों से ऐमोनिया गैस बनाने में, सर्वप्रथम उच्च दाब का प्रयोग किया था। अन्य उपयोगी यौगिक, जैसे इथाइल, मिथाइल तथा दूसरे उच्चतर ऐल्काहल, फीनोल, पॉलिएथिलीन, नैफ्था और कोयला या गैस से पेट्रोल बनाने में भी उच्च दाब का प्रयोग किया जाता है। क्रांतिक ताप पर किसी गैस या वाष्प के ऊपर दाब बढ़ाने से एक विशेष दाब पर, जो प्रत्येक गैस या वाष्प के लिए भिन्न होती है, वह गैस या वाष्प द्रव में परिवर्तित हो जाता है। इस विशेष दाब को क्रांतिक दाब (Critical pressure) कहते हैं। इस सिद्धांत का उपयोग तैलकूपों से मिट्टी का तेल निकालने में होता है। यहाँ किसी ताप पर गैस या वाष्प पर उतनी ही दाब दी जाती है, जिससे गैस या वाष्प का रूपांतर द्रव (तेल) में हो जाए। उच्च दाब का उपयोग निर्मलीकरण, पृथक्करण तथा ग्रैफाइट से कृत्रिम हीरा बनाने में भी होता है।
दाब के अनेक कार्य हैं। यह रासायनिक संतुलन को प्रभावित करती है। उच्च दाब पर बहुत सी रासायनिक प्रक्रियाओं की गति भी तीव्र हो जाती है। अत: कुछ पदार्थ कम समय में अधिक मात्रा में तैयार हो जाते हैं। उच्च दाब से ही जल या अन्य दूसरे कार्बनिक द्रव उच्च ताप पर भी द्रव रूप में रहते हैं। साधारण दाब पर यह सभवं नहीं है। कुछ रासायनिक प्रक्रियाओं में इससे विशेष लाभदायक फल प्राप्त हुए हैं।
नाइट्रोजन (N2) तथा हाइड्रोजन (H2) गैसों से ऐमोनिया गैस (NH3) का बनना निम्नलिखित रासायनिक समीकरण के अनुसार होता है:
ना२+ ३हा२ = २ना हा३+ २२,००० कैलॉरी
(N2+3H2=2NH3+22,000 calories)
इस प्रक्रिया का रासायनिक-संतुलन स्थिरांक =
है।
ल शाटल्ये (Le Chatelier) के रासायनिक-संतुलन-सिद्धांत के अनुसार जिस प्रक्रिया में उत्पादकों को आयतन अभिकारकों के आयतन से कम होता है उसमें दाब बढ़ाने से उत्पादकों की उत्पत्ति में वृद्धि हो जाती है। ऊपर लिखे समीकरण से यह स्पष्ट है कि नाइट्रोजन के एक आयतन तथा हाइड्रोजन के तीन आयतन के संयुक्त होने से ऐमोनिया के दो आयतन बनते हैं। अत: उच्च दाब पर ऐमोनिया गैस अधिक मात्रा में बनेगी। चूँकि यह प्रक्रिया उष्माक्षेपक है, अत: न्यून ताप पर ही ऐमोनिया गैस अधिक बनेगी। इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर हैबर प्रक्रम द्वारा ऐमोनिया व्यापारिक मात्रा में बनाई जाती है। न्यून ताप पर अन्य दूसरी प्रक्रियाओं की गति की भाँति इस प्रक्रिया की भी गति क्षीण होती है। अत: व्यापारिक मात्रा में बनाई जाती है। न्यून ताप पर अन्य दूसरी प्रक्रियाओं की गति की भाँति इस प्रक्रिया की भी गति क्षीण होती है। अत: व्यापारिक मात्रा में ऐमोनिया बनाने के लिए हैबर प्रक्रम में नाइट्रोजन गैसों के मिश्रण की दाब २०० वायुमंडल दाब तथा क्लाड प्रक्रम में, जिसका उपयोग केवल फ्रांस में होता है, ९०० से १,००० वायुमंडल दाब तक होती है तथा ताप २००� स लेकर ७००� सें. तक। प्रक्रिया की गति को तीव्र करने के लिए सूक्ष्म लौह कण का, जिसमें मोलिब्डिनम या कैल्सियम ऑक्साइड के मिश्रण का, या निकल के सक्ष्म कण से संसिक्त झाँवे (Pumice) और सोडामाइड के मिश्रण का उत्प्रेरक के रूप में उपयोग करते हैं। आजकल जिस उत्प्रेरक का प्रयोग करते हैं उसमें फेरिक ऑक्साइड ६६% , फेरस ऑक्साइड ३१% , पोटासियम ऑक्साइड १% तथा ऐल्यूमिना (Al2O3) १.८% होता है। ४००� सें. ताप पर ३ ग्रामाणु (Gram-molecule) हाइड्रोजन और १ ग्रामाणु नाइट्रोजन के मिश्रण से १० वायुमंडल दाब पर ३.८५% , १०० वायुमंडल दाब पर २५.१% तथा १,००० वायुमंडल दाब पर ७९.८% ऐमोनिया गैस प्राप्त होती है। ४,००० से ५,००० वायुमंडल दाब पर बिना किसी उत्प्रेरक के ऐमानिया की प्राप्ति शत प्रतिशत होती है। क्लॉड प्रक्रम से ९००-१,००० वायुमंडल दाब तथा ७००� सें. पर २५ प्रतिशत ऐमोनिया प्राप्त होता है।
ऐमोनिया के संश्लेषण की ही भाँति मिथाइल ऐल्कोहल का संश्लेषण कारबन मोनोक्साइड और हाइड्रोजन की प्रक्रिया से किया जाता है। यह प्रक्रिया २०० वायुमंडल दाब तथा ४००� सें. पर, उत्प्रेरक ऐल्यूमिना, ताम्र ऑक्साइड, ज़िंक ऑक्साइड तथा क्रोमियम के मिश्रण की उपस्थिति में की जाती है। मिथाइल ऐल्कोहल की ही भाँति उच्च दाब (२००-१,००० वायुमंडल दाब) तथा ताप ४००� से लेकर ५५०� सें. पर, ऊपर लिखे उत्प्रेरक के साथ पोटासियम-क्रोमियम ऑक्साइड, या पोटासियम कारबोनेट, मिलाकर दूसरे उच्चतर ऐल्कोहल भी औद्योगिक मात्रा में प्राप्त किए जाते हैं। उच्च दाब पर प्रक्रिया करके फीनोल आदि कई अन्य उपयोगी पदार्थ भी तैयार किए जाते हैं।
उच्च दाब पर रासायनिक प्रक्रियाओं की गति तीव्र करने के लिए मॉरगैन (Morgan), टेलर (Taylor) तथा हेडले ने कई ऑक्साइडों के मिश्रणों को उत्प्रेरक के रूप में अत्यंत उपयोगी पाया। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं : ज़िंक ऑक्सइड; ज़िंक चूर्ण + ज़िंक ऑक्साइड, ज़िंक + ताम्र ऑक्साइड, ज़िंक ऑक्साइड + रजत ऑक्साइड; ज़िंक ऑक्साइड + यूरेनियम ऑक्साइड; ज़िंक-क्रोमियम ऑक्साइड, बेसिक ज़िंक ऑक्साइड और बेसिक ज़िंक ऑक्साइड + कैडमियम कारबोनेट, या ताम्र-क्रोमियम आक्साइड, या ज़िंक मैंगेनेट या टंग्स्टेट, या यूरेनेट, या मेलिब्डेट, या वैनेडेट।
उच्च दाब का प्रभाव पदार्थ के भौतिक गुणों पर भी पड़ता है। अगर क्लारोबेंज़ीन और सोडियम हाइड्रॉक्साइड के विलयन पर ५,००० पाउंड प्रति वर्ग इंच की दाब दी जाए तो यह विलयन ३६०� सें. ताप पर भी द्रव रूप में रहता है। इस दाब तथा ताप पर, ये दोनों यौगिक आपस में प्रतिक्रिया करके सोडियम फीनोलेट बनाते हैं। सोडियम फीनोलेट को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल द्वारा उदासीन करके फीनोल प्राप्त करते हैं। उच्च दाब पर इन दोनों घटकों की पारस्परिक विलेयता बढ़ती है तथा क्लोरोबेंज़ीन के जलविश्लेषण के लिए उत्तम परिस्थिति मिलती है।
बरफ तथा फॉस्फोरस की विविध किस्में उच्च दाब पर प्राप्त होती हैं। कुछ किस्मों के गुण अंसाधारण होते हैं, जैसे बरफ ज्क्ष्क्ष् लगभग ३०,००० किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर दाब पर १००� सें. पर भी ठोस रहता है, जब कि साधारण बरफ १००� सें. पर वाष्प हो जाता है। बरफ VI भी लगभग १०,००० किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर दाब पर ०� सें. से अधिक ताप पर भी ठोस ही रहता है।
म्वासाँ (Moissan) ग्रैफाइट से कृत्रिम हीरा बनाने में व्यापारिक रूप से असफल रहा, किंतु १९५५ ई. में संयुक्त राज्य, अमरीका, की जेनरल इलेक्ट्रिक कंपनी तथा स्वीडन के वैज्ञानिकों ने ग्रैफाइट को उच्च ताप पर अधिक समय तक रखकर सस्ता कृत्रिम हीरा बनाने में सफलता प्राप्त की। व्यापारिक गोपनीयता के कारण संश्लेषण प्रक्रम को विस्तार से प्रकाशित नहीं किया गया है, किंतु पी.डब्ल्यू. ब्रिजमैन (P.W. Bridgman) का अनुमान है कि ग्रैफाइट को १,००,००० वायुमंडल दाब से भी अधिक दाब पर रखकर, २,५००� से लेकर ३,०००� सें. पर कई घंटे तक गरम करने से कृत्रिम हीरा बनता है। इस प्रकार से प्राप्त किया हुआ हीरा प्राकृतिक हीरे से आकार में छोटा तथा पीले रंग का क्रिस्टल होता है और मूल्य जितना आँका जाता है उससे बहुत अधिक व्यय बनाने में होता है।
उच्च दाब पर रासायनिक तथा भौतिक प्रक्रियाओं के अध्ययन के लिए जिन धातुओं के पात्र बनाए जाते हैं, वे ऊष्मा प्रतिरोधी होते हैं। ५००� सें. तक क्रोमियम, या क्रोमियम वैनेडियम इस्पातों, के बने पात्रों का उपयोग होता है और इससे अधिक ताप पर नाइक्रोम IV (८०% निकेल, १५-२०% क्रोमियम) के बने पात्रों का।
सं.ग्रं.- पी.डब्ल्यू. ब्रिजमैन : दि फिज़िक्स ऑव हाइ प्रेशर, न्यूयॉर्क, १९३१। (बैजनाथप्रसाद )