दादू अथवा संत दादूदयाल का कोई ऐतिहासिक जीवनपरिचय उपलब्ध नहीं है और इस संबंध में जो कुछ कहा जाता है वह या तो उनके कतिपय शिष्य प्रशिष्यों की रचनाओं पर आधारित है या जनश्रुतियों का अनुसरण करता है। गुजरात का अहमदाबाद नगर इनका जन्मस्थान कहा जाता है, किंतु वहाँ पर इनके लिए कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता और न स्व. सुधाकर द्विवेदी के इस अनुमान के लिए ही कोई पुष्टि मिलती है कि इनका जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर में हुआ था। इस संप्रदाय के ग्रंथों में इनको जाति से ब्राह्मण कहा गया है, किंतु अधिक प्रमाण इन्हें धुनियाँ सिद्ध करने के पक्ष में मिलते हैं। इनके शिष्य रज्जबजी का इन्हें धुनि ग्रभे उत्पन्नों (सर्वंगी) कहना तथा सुंदरदास का पिंजारा बतलाना (पद्टोड़ी ९) और इनका स्वयं अपने लिए ''गरीब पिंजारा'' का प्रयोग करना (पद विलावल ३) भी इनके पक्ष में उद्धृत किए जा सते हैं। स्व. द्विवेदी का इन्हें 'मोची' समझना साधार नहीं कहा जा सकता। इसके पिता का नाम लोदी या लौधीराम कहा गया है जिसे जनगोपाल ने 'सौदागर' भी ठहराया है (परची पृ.४)। इनकी जन्मतिथि फाल्गुन शुदी ८. बृहस्पतिवार सं. १६०१ (सन् १५४४ ई.) तथा मरणतिथि ज्येष्ठ बदी ८, शनिवार सं. १६६० (सन् १६०३ ई.) प्राय: सर्वसम्मत हैं। परंतु इनके प्रारंभिक जीवन के लगभग १२ वर्षो तक की घटनाओं का कुछ पता नहीं। ११-१२ वर्ष की उम्र में इनका खेलते समय, किसी बूढ़े साधु के मुख से अचानक पान की पीक 'पा लेना और फिर लगभग छह वर्षों तक देशभ्रमण करना, केवल ये ही दो ऐसी बातें हैं जिनकी चर्चा, इनके प्रथम ३० वर्षों तक के जीवनकाल के संबंध में विशेष रूप से की जाती है। अनुमान किया जाता है कि इनके जीवन का यह समय अधिकतर साधना, सत्संग एवं चिंतन में व्यतीत हुआ होगा। कहते हैं, जब ये १८ वर्ष के थे उस समय उपर्युक्त बूढ़े साधु अथवा बुड्ढन ने इन्हें एक बार और दर्शन दिए तथा मस्तक पर हाथ देकर दीक्षित कर देने का उल्लेख इन्होंने स्वयं भी किया है (सा.गु ३) परंतु इन्होंने उनका नाम नहीं लिया है, अत: उनके संबंध में अनेक प्रकार के अनुमान किए जाते हैं।

अपनी लगभग ३० वर्ष की अवस्था में ये साँभर (राजस्थान) में रहने लगे और छह वर्षों तक वहाँ ठहरकर ये फिर आमेर चले गए। साँभर में ही रहते समय इन्होंने, संभवत: सर्वप्रथम 'अलरल दरीबे' (अपने सत्संग के लिए निश्चित स्थान) में किसी 'ब्रह्मसंप्रदाय' की स्थापना की जो पीछे अपने अधिक विकसित रूप में 'दादू पंथ' के नाम से प्रचलित हुआ और, इसी अवधि में, सं. १६३३ में किसी समय प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ जो आगे चलकर गरीबदास के नाम से विख्यात हुआ। गरीबदास के अनंतर इनके एक अन्य पुत्र मिस्कीनदास तथा नानीबाई एवं मानाबाई नामक इनकी दो पुत्रियों की भी चर्चा की जाती है, किंतु कम से कम इनमें से अंतिम दो के विषय में कोई निश्चित पता नहीं चलता। साँभर से आमेर जाकर ये १४ वर्षों तक निवास करते रहे और कहा जाता है कि इसी अवधि में इनकी सम्राट् अकबर से भी भेंट हुई। इस भेंट का किसी समय सं. १६४३ (सन् १५८३ ई.) में सीकरी में नियोजित किया जाना तथा वहाँ इन दोनों का ४० दिनों तक सत्संग करना भी प्रसिद्ध है, किंतु इसके लिए कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं और न दादू का रहीम तक से मिलना सिद्ध किया जा सका है। साँभर एवं आमेर के प्रवासकाल में इन्होंने अपनी बानी के कुछ अंशों की रचना की तथा वहाँ इनके कई शिष्य भी हुए। अपने इन शिष्यों के आग्रह से इन्होंने फिर एक बार अपना भ्रमणकार्य आरंभ किया और ये द्यौसा, बीकानेर तथा मारवाड़ तक घूमते रहे। अंत में, साँभर की ओर लौटने पर और उसके निकटवर्ती नराणे की किस गुफा में रहते समय, इनका देहांत, लगभग ५८ वर्ष और ढाई मास की अवस्था में, हो गया तथा वहाँ पर इनके कुछ बाल, तूँबा, चोला और खड़ाऊँ का सुरक्षित पाया जाना भी प्रसिद्ध है। दादू बड़े ही नम्र एव क्षमाशील स्वभाव के थे और कहते हैं कि इसी कारण इनके नाम के आगे 'दलाल' शब्द भी जोड़ दिया गया था।

दादू के ५२ शिष्य प्रसिद्ध हैं, पर कभी कभी इनकी संख्या १५२ तक की बतलाई जाती है तथा इनके नामों की तालिका भी दी जाती है। (र.ज.ग्रं., पृ. ७०-४ व ८७-९०), किंतु उनमें से सभी का ठीक विवरण नहीं मिलता। इनके ५२ शिष्यों का, अपने अपने नामों से, पृथक् पृथक् 'धाँवा' (दादू पंथ की शाखा) स्थापित करना तथा इनका तदनुसार प्रचलित होना भी बतलाया जाता है, किंतु इन सभी मूल केंद्र नरणे में अवस्थित है जहाँ पर गरीबदास ने, सर्वप्रथम उत्तराधिकारी के रूप में, गद्दी सँभाली थी। दादू की रचनाओं का संग्रह पहले पहल, इनके शिष्य संतदास एवं जगन्नाथ ने, हरडेवाणी के नाम से किया था। परंतु रज्जब जी ने फिर उसे सुव्यवस्थित रूप दिया तथा उसकी साखियों का अंगों में अनुसार और पदों का 'रागों' के आधार पर वर्गीकरण करके, उसे अंगबधू का नाम दे दिया जिससे दादूवाणी अभी तक अभिहित की जाती है। इसके स्व. चंद्रिकाप्रसाद त्रिपाठी द्वारा संपादित और प्रकाशित संस्करण में साखियों की संख्या २६५२ और पदों की ४४५ पाई जाती है। इन रचनाओं के अंतर्गत दादू ने अपने स्वीकृत सिद्धांत और प्रयोग में लाई गई साधना का बहुत स्पष्ट और सुंदर परिचय दिया है। इन्होंने अपने ध्येय परम तत्व को उसी रूप में अपनाया है जो कबीर को भी अभीष्ट था और यह बात स्वीकार भी की है (पीव.सा. ११) तथा इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त साधना के रूप में, स्वानुभूति को प्रधानता दी है जो इनके अनुसार मुख्यतया पूर्ण आत्मसमर्पण अथवा अपने अहंभाव को नितांत रूप में नष्ट कर देने पर ही निर्भर है (सुंद.सा. २३)। इन्होंने अपने पंथ को द्वैपथरहित का पक्षपातहीन सहज मार्ग कहा हैं (जं.गो. पद ६६) जिसे सकरा होने पर भी सहज समर्पण, सुमिरण और सेवाभाव के रूप में स्वीकार करते हुए, एक सजग और विशुद्ध जीवन व्यतीत किया जा सकता है (वही, पद ७२)। इनके नाम पर प्रचलित दादू पंथ के अनुयायियों की संख्या कम नहीं है और वे अधिकतर राजस्थान एवं पंजाब में रहते है तथा उनके यहाँ विशाल साहित्य भी सुरक्षित है। (प.च.)

सं.ग्रं.- श्री स्वामी दादूदयाल की वाणी (सं. चंद्रिकाप्रसाद त्रिपाठी प्र. 'वैदिक मंत्रालय', अजमेर, सं. १९६४); २. उत्तरी भारत की संत परंपरा (ले. परशुराम चतुर्वेदी प्र. 'भारती भंडार प्रयाग', सं. २००८); ३. श्री दादू महाविद्यालय रजतजयंती ग्रंथ (सं. स्वामी सुरजनदास, प्र. महोत्सव समिति, जयपुर, सं. २००९)।