दाँते, आलीग्यारी इटली का महान् कवि, जिसका जन्म फ्लोरेंस नगर में मई, १२६५ में हुआ था। ग्रीक तथा लातीनी साहित्य के सिवा धर्मविज्ञान में भी उसकी विशेष रुचि थी। राजनीति में वह नरम दल का अनुयायी और समर्थक था किंतु सन् १३०१ में जब गुएल्फों के क्रांतिकारी दल द्वारा इसके पक्ष की पराजय हुई, तब दाँते तथा उसके साथियों को देशनिकाले का दंड भोगना पड़ा। इस सजा के बाद दुर्भाग्य से यदि वह फ्लोरेंटाइन सरकार के हाथ पकड़ लिया जाता तो उसके जीवित जला दिए जाने तक की संभावना थी। इस समय से मृत्यु पर्यंत वह एक स्थान से दूसरे और दूसरे से तीसरे एक ''एक तीर्थयात्री की या करीब करीब एक भिखारी की तरह'' बराबर भटकता रहा। इन दिनों उसकी स्थिति ''पतवारविहीन नौका'' की तरह हो गई थी। दर दर की ठोकरें खाते हुए उसने बड़ी कटुता के साथ अनुभव किया कि ''दूसरे के घर की रोटी कितनी स्वादहीन होती है'' और ''पराए घर की सीढ़ियों पर चढ़ते उतरते रहने में कितनी पीड़ा'' का अनुभव होता है। सन् १३१६ में फ्लांरेस की ओर से सार्वजनीन राजक्षमा की घोषणा की गई और किन्हीं अपमानजनक शर्तों पर उसे फ्लोरेंस लौटने की अनुमति भी दी गई। उसने इसे ठुकरा दिए और अंत तक प्रवास में ही जीवनयापन का निश्चय किया। सन् १३२१ में रावेन्ना में उसकी मृत्यु हुई और वहीं वह दफनाया गया। रावेन्ना के अधिकारी आज भी उसके शव को उसकी जन्मभूमिवालों को लौटाने के लिए तैयार नहीं, जिन्होंने उसके साथ ऐसा निंदनीय व्यवहार किया था।
दाँते के जीवन के साथ दो स्त्रियों के नाम घनिष्ठ रूप से संबंद्ध हैं। एक है बियात्रिस पोर्टिनारी और दूसरी जेम्या दोनाती। पहली उसकी युवावस्था की प्रेयसी थी जिसे उसने उस सम देखा था जब वह केवल नौ वर्ष की थी। साइमन डी बार्डी के साथ बियात्रिस का विवाह हो जाने तथा थोड़े ही समय के भीतर सन् १२९० में उसकी मृत्यु हो जाने के बाद भी दाँते उसके अनुराग में डूबा रहा। दूसरी महिला, जेम्या, उसकी विवाहिता पत्नी थी जिसके साथ उसका विवाह सन् १२७७ में हुआ था। दाँते के निर्वासित होने पर उसने उसका साथ नहीं दिया। स्पष्ट है कि दाँते उसके व्यवहार और रंग ढंग से संतुष्ट न था और बाद में संभवत: उससे घृणा भी करने लगा था।
दाँते की रचनाओं की सुविधा की दृष्टि से हम तीन भागों या कालों में बाँट सकते हैं। प्रथम भाग में वे कृतियाँ रखी जा सकती हैं जिनमें यौवन का उत्साह और बियात्रिस के प्रति उसके उत्कट अनुराग का धार्मिक रूपांतरण दृष्टिगोचर होता है। इसकी अवधि मोटे तौर पर १२८३ से १२९० तक मानी जा सकती है। इस काल की सबसे मुख्य रचना ''विटा नुओवा'' है। दूसरा भाग वियात्रिस की मृत्यु के बाद शुरू होता है। इसका विस्तार १२९१ से १३१३ तक रखा जा सकता है। इस काल में उसका जीवन निराशा, दु:ख एवं विश्वास पर अस्थायी रूप से तर्कबुद्धि का प्राधान्य छा गया और उसका झुकाव दर्शन तथा विज्ञान की और अधिक हो गया। वह राजनीतिक झगड़ों की कटुता में एक दाँव पेचों या योजनाओं में लिप्त होता गया। इस काल की मुख्य रचनाएँ हैं - दि कॉनवीवियो, दि मॉनर्किया, दि इपिसिल्स आदि। सम्राट् हेनरी सप्तम से दाँते ने बड़ी बड़ी आशाऍ बाँध रखी थी जिनपर उसकी मृत्यु ने पानी फेर दिया। उसकी समस्त योजनाएँ एकाएक समाप्त हो गई किंतु गनीमत यही रही कि वे उसका संपूर्ण हौसला पस्त न कर सकीं। उसने एक बार फिर आध्यात्मिक संतुलन की ओर कदम बढ़ाया। युवावस्था के विचार और विश्वास उसमें पुन: जाग उठे और वह दिवंगत बियात्रिस की पवित्रीभूत आत्मा की उपासना की ओर और भी दृढ़ता से उन्मुख हो उठा। 'डिवाइन कॉमेडी' की कितनी ही कविताओं में इसके प्रमाण बिखरे पड़े हैं। दाँते की रचनाओं का यह तीसरा काल १३१४ से १३२१ तक, याने उसकी मृत्यु के समय तक, माना जा सकता है।
'दि विटा नुओवा' को हम इटली के प्रथम प्रेमकाव्य की संज्ञा दे सकते हैं। इसमें कविहृदय की उक्त भावनाओं के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की झलक हमें देख पड़ती है। बियात्रिस के प्रथम दर्शन के बाद ही किस तरह उसके नए जीवन का आरंभ हुआ, उसके हृदय में किस तरह क्रम क्रम से इस नारी के सौंदर्य एवं माधुर्य की भावना प्रबलतर हाती गई, धीरे धीरे वह किस तरह उसकी आशाओं तथा प्रेम-भक्ति-उपासना का केंद्र बनती गई, उसी मृत्यु पर उसे कितनी मानसिक वेदना और आकुलता हुई और किस प्रकार उसका पार्थिव प्रेम अंत में दिव्य भक्ति एव पूजाभाव में परिणत होता गया, इसकी मनोरम झाँकी इस काव्य में देखी जा सकती है। बियात्रिस की मृत्यु के बाद उसका ध्यान कुछ वर्षों के लिए इहलौकिक भावनाओं, विचारों तथा स्वार्थों की ओर गया और वह निराशाओं अथवा संशयों के बीच हिलोरे खाने लगा। यह हम उसकी दूसरी रचना 'कॉनबाइवों' में देख सकते हैं। इन दोनों रचनाओं में बियात्रिस कहाँ और कब एक अलौकिक सौंदर्य की प्रतिमा प्रतीत होती है और कहाँ वह मात्र एक दार्शनिक अथवा धार्मिक दृष्टि से कल्पित दिव्य छाया सी देख पड़ती है, इसका विवेचन करना अनावश्यक है। इतना ही कहना अलम् होगा कि 'विटा नुओवा' सामान्य प्रेमगाथा न होकर एक उच्च सात्विकता एव श्रद्धा (फेथ) की ओर कवि का मानसिक उन्नयन है। इसमें संदेह नहीं कि आशा निराशाओं के विविध अंतर्द्वंद्वों के बावजूद दाँते का हृदय बार बार इसी ओर प्रत्यावर्ती होने के लिए सचेष्ट होता जान पड़ता है। वस्तुत: काव्य के अंतिम भाग से ही आभास मिलने लगता है कि कवि के मानस चक्षु पर उस पारलौकिक जगत् की छाया पड़नी आरंभ हो चुकी थी जिसका केंद्रबिंदु बियात्रिस ही थी और जिसका परिपाक उसके 'डिवाइन कॉमेडी' नामक काव्य में हुआ।
दाँते की लातीनी रचनाओं में 'दे मोनार्किया' विशेष उल्लेखनीय है। इसमें दिखलाया गया है कि साम्राज्य की आवश्यकत एक तरह से ईश्वरसमर्थित है। उनमें राज्य तथा चर्च या धार्मिक संस्था के पृथक् पृथक् क्षेत्र का प्रतिपादन किया गया है और इस बात पर बल दिया गया है कि पोप की सत्ता केवल धार्मिक मामलों तक ही सीमित रहनी चाहिए। उसे पत्रसंग्रह 'इपिसिल्स' में से भी कई पत्रों में इसी आशय के विचार प्रकट किए गए हैं।
दाँते के पक्ष विपक्ष में काफी आलोचनाएँ हुई जिनके उसकी कीर्ति कभी कभी मलिन हो जाती सी दिखाई पड़ती थी। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि वह महान् कवि था जिसने अपने परवर्ती अनेक कवियों तथा साहित्यकारों को व्यापक रूप से प्रभावित किया। समय बीतने पर अनेक विद्वानों और विचारकों ने उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है जिससे आज विश्व के साहित्यकारों तथा कवियों में उसे यथेष्ट ऊँचा स्थान देने में सहायता मिलती है। (मुकंदीलाल श्रीवास्तव)