दशरूप (क) १. अभिनेय कव्य को रूप अथवा रूपक कहते हैं। 'रूप्यते नाट्यते इति रूपम्; रूपामेव रूपकम्' - इस व्युत्पत्ति के अनुसार दृश्य काव्यों की सामान्य संज्ञा 'रूप' या 'रूपक' है। रूपक दो प्रकार के होते हैं : १. प्रकृति और २. विकृति। सर्वलक्षण से सर्वांग से परिपुष्ट दृश्य को प्रकृतिरूपक कहा गया है जैसे नाटक; और प्रकृतिरूपक के ढाँचे में ढले हुए परंतु अपनी अपनी कुछ विशेषता लिए हुए दृश्य काव्य विकृतिरूपक कहे गए हैं। सामान्य नियम है- 'प्रकृतिवद् विकृति: कर्त्तव्या'। उभय प्रकार के रूपकों में भरत द्वारा सविशेष महत्व के दस रूप माने गए हैं जो 'दशरूप' के नाम से संस्कृत नाट्यपरंपरा में प्रसिद्ध हैं। उनकी पगिणना करते हुए भरतमुनि ने कहा है-

''नाटकं सप्रकरणमङ्को व्यायोग एव च।

भाण: समवकारश्च वीथी प्रहसनं डिम:।।

ईहामृगश्च विज्ञेयो दशमो नाट्यलक्षणे।।'' (ना.शा. १८-२)

  1. नाटक, २. प्रकरण, ३. अंक अर्थात् उत्सृष्टांक, ४. व्यायोग, ५. भाण, ६. समवकार ७. वीथी, ८. डिम, और १०. ईहामृग-ये दस रूप हैं। इन दस रूपों में कुछ विस्तृत रूप हैं और कुछ लघुकाय। इनके कलेवर का आयाम एक अंक की सीमा से लगाकर दस अंक तक का हो सकता है। इनमें मुख्य रस शृंगार या वीर होता है। इनकी कथावस्तु पाँच संधियों में विभक्त हाती है। पूर्ण रूप से परिपुष्ट रूपों में पाँचों संधियाँ पाई जाती हैं; अन्य लघुकाय रूपों में अपने अपने आयाम के मात्रानुसार बीच की संधियाँ छाँट दी जाती हैं। प्रत्येक रूप की कथावस्तु आधिकारिक एव प्रासंगिक रूपं से विभाजित होती है। प्रधान पुरुष को नायक कहते हैं, जिसका मुख्य लक्ष्य रूप का कार्य समझा जाता है। कार्य की पाँच अवस्थाएँ होती हैं। आरंभ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम। कार्य का अपर नाम अर्थ है जिसकी पाँच प्रकृतियाँ मानी गई हैं : बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कर्य। कार्यावस्था और अर्थप्रकृति के समानांतर संयोग से क्रमश: पाँच संधियाँ घटित होती हैं : मुख, प्रतिमुख गर्भ, विमर्श और निर्वहण। रूपकों में अभिनीत वस्तु दृश्य एवं श्रव्य होती है; श्रव्य भी दो प्रकार की कहीं गई हैं : नियत श्रव्य और सर्वश्रव्य। कथावस्तु के उस भाग को जो सामाजिक नीति के विरुद्ध हो, अश्लील या शास्त्रनिषद्ध हो, अथवा मुख्य कार्य का अनुपकारक हो, रंगमंच पर प्रदर्शित न करने का विधान हैं; परंतु पूर्वापर संदर्भ से अवगत कराने के हेतु पूर्वोक्त प्रकार के जिस कथाभाग से प्रेक्षकवर्ग का परिचय होना अनिवार्य हो वह अंश कतिपय अमुख्य पात्रों के संवाद द्वारा उपस्थित किया जाता है। ऐसे संवाद को अर्थोपक्षेपक कहते हैं जिसके पाँच प्रकार हैं : विष्कंभ, प्रवेशक, चूलिका, अंकमुख और अंकावतार।
  2. रूपकों के पात्र विविध श्रेणी के होते हैं : दिव्य, अदिव्य एवं दिव्यादिव्य। प्रत्येक पात्र अपनी प्रकृति के अनुसार उत्तम, मध्यम अथवा अधम माना गया है। पात्रों के द्वारा प्रयुक्त बोली एवं परस्पर संभाषण के भी नियम हैं। उत्तम पात्र संस्कृत का प्रयोग करते हैं, शेष पात्र प्रायेण विविध प्राकृत अथवा देशी भाषाओं का। प्रत्येक पात्र को विशेषत: प्रधान पात्रों के व्यवहार को वृत्ति कहते हैं जो अंतरंग भावों की विभिन्न चेष्टाओं की सहचरी है। कैशिकी, सात्वती, आरभटी और भारती नामक चार वृत्तियाँ प्रमुख मानी गई हैं। दशरूपों के अभिनय में देश और काल के अनुरूप वेशभूषा, आमोद प्रमोद एवं अन्य नाटकीय उपकरणों के संबंध में प्रायोगिक नियम भी विविध पात्रों के सामाजिक स्तर के अनुरूप निर्दिष्ट हैं जिनका समावेश नाट्यशास्त्र में 'प्रवृत्ति' के अंतर्गत किया गया है। साथ ही नृत्य, वाद्य एवं संगीत का सहयोग, प्राकृतिक पृष्ठभूमि, पशु पक्षी का साहचर्य रूपक के प्रसाधन माने गए हैं। रूपकों की रचना में गद्य एवं पद्य दोनों का प्रयोग किया जाता है अतएव दशरूपों की गणना काव्यभेद की दृष्टि से मिश्र काव्य में की जाती है। दशरूप का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन होते हुए भी ये तात्कालिक सामाजिक स्थिति को प्रतिबिंवित करते हैं; साथ ही साथ मानव जीवन के सदादर्शों की ओर कांतासंमत संकेत भी करते हैं।

  3. नाट्य के दशरूपों के लक्षण और उनकी विशेषताओं का प्रतिपादन करनेवाला यह एक ग्रंथ है। अनुष्टुप श्लोकों द्वारा रचित 'दशरूप' नामक ग्रंथ धनंजय की कृति है (दे. 'धनंजय')। (सु.ना.शा.)

धनंजय कृत दशरूप और उसपर धनिक कृत अवलोक नाट्यालोचन पर सर्वमान्य ग्रंथ है, कारण, दशरूप में दिए हुए लक्षणों का उद्धरण प्राय: सभी प्राचीन व्याख्याकारों द्वारा दिए हुए सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। अवलोक के अतिरिक्त एक और प्राचीन टीका दशरूपक पर बाहुरूप मिश्र द्वारा प्रणीत उपलब्ध है जो अद्यापि अमुद्रित ही है। आज 'दशरूपक' नामक ग्रंथ अनेक संस्करणों में उपलब्ध है : सर्वप्रथम इसका संस्करण कलकत्ता से 'बिब्लोथिका इंडिका' ग्रंथमाला के अंतर्गत फ़िट्ज़ एडवर्ड हॉल द्वारा संपादित ई. सन् १८६५ में प्रकाशित हुआ जिसका केल प्रतिरूपमात्र जीवानंद विद्यासागर द्वारा संपादित संस्करण है जो कलकत्ता से सन् १८७८ ई. में प्रकाशित हुआ था। अवलोक सहित दशरूप का एक और संस्करण निर्णयसागर, बंबई से प्रकाशित है जिसका पाठ अतिशुद्ध माना जाता है। यह परब द्वारा संपादित सर्वप्रथम सन् १८९७ ई. में प्रकाशित हुआ था। गुजराती मुद्रणालय, बंबई से सन् १९१४ ई. में सुदर्शनाचार्य द्वारा प्रणीत नवीन टीका, 'प्रभा' के साथ 'सावलोक दशरूप' का प्रकाशन हुआ। सबसे अर्वाचीन प्रकाशन चौखंभा संस्करण है जिसमें मूल ग्रंथ के साथ उसका हिंदी अनुवाद भी दिया गया है। इससे कुछ पूर्व सन् १९४२ ई. में गोंडल (काठियावाड़) से दशरूप के प्रथम प्रकाश मान का अवलोक और अंग्रेज़ी अनुवाद सहित प्रकाशन हुआ है। इन भारतीय संस्करणों के अतिरिक्त एक वैदेशिक संस्करण डॉक्टर जॉर्ज हाल संपादित कोलंबिया विश्वविद्यालय से सन् १९१२ ई. में प्रकाशित हुआ है जिसमें रोमन लिपि में केवल दशरूप तथा उसका अंग्रेजी भावानुवाद और सूक्ष्म टिप्पणियाँ दी गई हैं। संभवत: आज उपलब्ध संस्करणों से कोई भिन्न 'दशरूप' का उपवृंहित पाठ प्राचीन व्याख्याकारों के काल में प्रचलित था; कारण, रुचिपति, जगद्धर जैसे विद्वानों द्वारा स्वनिर्मित टीकाओं में दशरूप से उद्धृत जिन अंशों का उल्लेख किया गया है वे उपलब्ध दशरूप के किसी भी संस्करण में नहीं पाए जाते।

धनंजयकृत 'दशरूप' की प्रतिपादन शैली सुगम एवं पुष्टार्थ है। यह ग्रंथ संक्षिप्त होते हुए भी विषय का सांगोपांग विवेचन करता है। इसमें चार प्रकाश हैं जिनमें क्रमश: वस्तु, नेता एवं रसों का सविस्तार विवरण है। अंतिम प्रकाश में रसास्वादन की प्रक्रिया को स्फुट करते हुए धनंजय ने रसप्रतीति को व्यंजना से गम्य नहीं माना है, प्रत्युत उसे वाच्यवृत्ति का ही विषय माना है (द.ख. ४-२७) काव्य नाट्य के साथ रसादि का संबंध भावक भाव्य का है। दशरूपकार ने अभिनेता में भी काव्यार्थ भावना से जनित रसास्वाद की संभाव्यता स्वीकृत की है। मौलिक रूप से दशरूप की यह सैद्धांतिक विशेषता है। नाट्य तत्वों की परिभाषा में भी दशरूप के लक्ष्यलक्षण भरत के अभिप्राय से अनेकत्र भिन्न है जिससे प्रतीत होता है कि धनंजय की उपजीव्य सामग्री भरत से इतर कहीं और होगी। (सरेंद्रनाथ शास्त्री)