दशभूमीश्वर महायान बौद्ध साहित्य का एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द जिसका आधार 'दशभूमिक' नामक ग्रंथ है। यह महासांधिकों की लोकोत्तरवादी शाखा का ग्रंथ है जिसका सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य नागार्जुन ने अपनी 'प्रज्ञापारमिता शास्त्र' की व्याख्या में किया है। नागार्जुन द्वारा उल्लिखित यह ग्रंथ अपने जापानी रूपांतर 'जुजि-क्यो' के रूप मे सुरक्षित रहा है जो वस्तुत: 'अवतंशक साहित्य' (जापानी, ऊके गान) के अंतर्गत है। जापानी में अवतंशक साहित्य की अवतारण आचार्य बुद्धभद्र (उत्तर भारत) ने पूर्वी शिन काल (४१८-५२० ई.) में की थी।

दशभूमिक के दो भाषांतर प्रसिद्ध हैं - १. धर्मरक्षकृत (रचनाकाल २९७ ई.) और २. कुमारजीव का प्रसिद्ध अनुवाद। इस सूत्र का संस्कृत रूप भी वर्तमान है। इसमें बोधिसत्व वज्रगर्भ ने बोधिसत्व के विकास की दस क्रमिक अवस्थाओं का बोध कराया है।

ये बोधिसत्व की भूमियाँ कहलाती हैं जिनके नाम हैं : १. प्रमुदित, २ विमल, ३. प्रभाकारी, ४. आरिस्मती, ५. सुदुर्जय, ६. अभिमुक्त, ७. दूरंगम, ८. अचल, ९. साधुमती, और १० तथता। इन भूमियों में प्रथम में दान, दया, अजेयता, नम्रता, समस्त शास्त्रों का अध्ययन, सांसारिक तृष्णाओं से मुक्ति और सहनशीलता का ग्रहण होता है। द्वितीय भूमि में बोधिसत्व को सृष्टि के विभिन्न स्वरूपों के प्रति विकर्षण उत्पन्न होता है। यश और मान की कामना से रहित होकर बोधिसत्व परम लक्ष्य (निर्वाण) की ओर अग्रसर होते हैं। तृतीय और चतुर्थ भूमियों में वैराग्य की भावना दृढ़ और बोधि के लिए जिज्ञासा होती है। पाँचवीं भूमि में प्रवेश करने पर बोधिसत्व को संसार वासना, अज्ञान और अहंकार के बीच जलता प्रतीत हाता है। छठी भूमि में इस बात का स्पष्ट संकेत मिल जाता है कि सांसारिक आनंद क्षणिक है। अत: सातवीं भूमि में प्रवेश करने पर बोधिसत्व आत्मसंयम में दृढ़ होकर मानवता के कल्याण की बात सोचते हैं। सातवीं भूमि से आगे बढ़ने पर आठवीं और नवीं भूमियों में बोधिसत्व उस महानता को प्राप्त होते हैं जिसके आधार पर 'महावस्तु' के इस सूत्र में विद्युत्प्रभ, लोकाभरण, धर्मधातु, सम्मतरश्मि आदि बोधिसत्वों की कल्पना की गई है और दसवीं भूमि में स्वयं भगवान् तथागत (सम्यक् संबुद्ध) अवतरित होते हैं।

महावस्तु का दशभूमिक एक महत्वपूर्ण अंश होने के कारण उसे विनय के अंतर्गत रखा गया है और बोधिसत्वों का दस भूमियों के दर्शन के हेतू स्वतंत्र रूप से चार चर्चाओं के पालन पर विशेष ध्यान देना कहा गया है: क. प्रकृति चर्या, ख. प्रणिधान चर्या, ग. अनुलोम चर्या, एवं अनिवर्तन चर्या। महावस्तु पालि ग्रंथ 'महावग्ग' के बहुत अंशों में समान है जैसा कि विंडिश (Windish) की शोधों से ज्ञात है।

माध्यमिक दर्शन के अनुसार, श्रावकयान, प्रत्येक बुद्धयान, और संबुद्ध यान में संबुद्ध यान ही श्रेयस्कर है जो दशभूमियों की परिणति (निर्वाण) की ओर संकेत करता है।

सं.ग्रं.- दि सैक्रेड बुक्स ऑव दि बुद्धिस्ट्स, वाल्यूम १६; दि महावस्तु (प्रथम भाग), भाषांतर जे.जे. जोंस, ल्यूज़ैक ऐंड कंपनी लि., लंदन, १९४९, टामस, ई.जे. : दि हिस्ट्री ऑव बुद्धिस्ट थॉट (लंदन, १९३३); मूर्ति, टी. ऑरवी, दि सेंट्रल फिलॉसफी ऑव बुद्धिपम (आक्सफोर्ड); ला, बी., सी, ए स्टडी आव दि महावस्तु कलकत्ता, १९३०; बीट्रिसलेन सुजुकी, महायान बुद्धिज़्म (जार्ज एलेन ऐंड जनविन लि., लंदन, १९५९)। (चंद्रचूड मणि)