दशकुमारचरित दंडी (षष्ठ या सप्तम शताब्दी ई.) द्वारा प्रणीत संस्कृत गद्यकाव्य। इसमें दश कुमारों का चरित वर्णित होने के कारण इसका नाम 'दशकुमारचरित' है। वर्तमान उपलब्ध दशकुमारचरित में तीन भाग सम्मिलित हैं - (१) आरंभिक अथवा भूमिका भाग, जिसमें पाँच उच्छ्वास हैं, पूर्वपीठिका के नाम से प्रसिद्ध हैं; (२) मध्यम भाग, जिसमें आठ उच्छ्वास हैं, 'दशकुमारचरित' के नाम से कहा जाता है। (३) अंतिम अथवा परिशिष्ट भाग जो उत्तरपीठिका के नाम से प्रसिद्ध है। इनमें से ग्रंथ का मध्य भाग ही, जो आठ उच्छ्वासों में विभक्त है, दंडी की मौलिक कृति माना जाता है। शेष भाग अर्थात् पूर्वपीठिका और उत्तरपीठिका अन्य लेखकों की रचनाएँ हैं जो कालांतर में मूल ग्रंथ के आदि और अंत में क्रमश: जोड़ दी गई है। विद्वानों की धारणा है कि दंडी ने पहले अवश्य पूर्ण ग्रंथ की रचना की होगी, किंतु बाद में कारणवश वे भाग नष्ट हो गए। दंडी के मूल ग्रंथ के आठ उच्छ्वासों में केवल आठ कुमारों की कथा आती है। किंतु पूर्वपीठिका में दी गई दो कुमारों की कथा मिलाकर दस कुमारों की संख्या पूरी हो जाती है। इसी प्रकार मूल ग्रंथ के आठवें उच्छ्वास में वर्णित अपूर्ण विश्रुत चरित को उत्तरपीठिका में पूरा किया गया है।

दंडी द्वारा रचित 'अबंतिसुंदरी कथा' नामक गद्यकाव्य (अनंतशयन ग्रंथावली, त्रिवेंद्रम से प्रकाशित) की खोज से दशकुमारचरित की समस्या और भी जटिल बन गई है। ये विकल्प उपस्थित होते हैं कि क्या दशकुमारचरित और अवंतिसुंदरी कथा दोनों के रचयिता दंडी एक ही हैं अथवा भिन्न भिन्न हैं; और यदि इन दोनों के लेखक एक ही दंडी मान लिए जाएँ, तो क्या ये दोनों गद्यकाव्य एक दूसरे के पूरक हैं अथवा दो स्वतंत्र गद्यकाव्य हैं। कुछ विद्वान् इस पक्ष में हैं कि अवंतिसुंदरी कथा ही मूल दशकुमारचरित का खोया हुआ भाग है और दोनों मिलाकर एक ही गद्यकाव्य हैं। विद्वानों का दूसरा वर्ग इस विचार से बिलकुल सहमत नहीं है।

मूल दशकुमारचरित के प्रथम उच्छ्वास का आरंभ एकाएक मुख्य नायक राजकुमार राजवाहन की कथा से होता है। बाद में उसके भूले भटके सभी साथी मिल जाते हैं जो शेष सात उच्छवासों में अपनी अपनी रोमांचकारी एवं कुतूहलजनक घटनाओं को राजवाहन से कहते हैं। दूसरे उचछ्वास में अपहार वर्मा की कथा आती है जो अत्यंत विस्तृत एव विनोदपूर्ण हैं। तृतीय उच्छ्वास से लेकर षष्ठ उच्छ्वास तक क्रमश: उपहार वर्मा, अर्थपाल, प्रमति तथा मित्रगुप्त की कथाएँ हैं। सप्तम उच्छृवास में मंत्रगुप्त की कथा है। इस उच्छ्वास की यह विशेषता उल्लेखनीय है कि इसमें कथावक्ता का ओष्ठ उसकी प्रेयसी द्वारा काटे जाने के कारण ओष्ठ से उच्चार्यमाण पवर्ग के वर्णों का प्रयोग नहीं हुआ है।

संस्कृत साहित्य में दशकुमारचरित का अनुपम स्थान है। वस्तुत: यह संस्कृत गद्यकाव्य आधुनिक उपन्यासों के बहुत निकट है। यह तत्कालीन समाज का सर्वांगीण यथार्थ चित्र उपस्थित करता है। मुख्य कथावस्तु को अवांतर कथाओं के साथ बड़ी कुशलता से पिरोया गया है। कथा का प्रवाह जो आदि से अंत तक अबाधगति से चलता है, रोचक एवं कुतूहलवर्धक है। उपलब्ध प्राचीन संस्कृत गद्यकाव्यों में दंडी का दशकुमारचरित ही एक ऐसा गद्यकाव्य है, जो सरल एवं स्वाभाविक गद्य शैली में लिखा गया है। (योगेवर पांडेयं.)