दरवाजा और द्वारकपाट किसी भवन या कमरे आदि की दीवार में भीतर बाहर आने जाने के लिए बनाए हुए विशेष प्रकार के छिद्र को दरवाजा या द्वार कहते है और आने जाने की सुविधा या रोक के लिए लगाए गए लकड़ी, धातु या पत्थर के एक टुकड़े, या जोड़े हुए कई टुकड़ों, के पल्लों को द्वारकपाट, कपाट या किवाड़ कहते हैं।
द्वार का साधारण रूप आयताकार छिद्र का होता है, किंतु आयत का ऊपरी भाग गोल या लंबी मेहराब वाला, या अन्य किसी रूप का भी हो सकता है। ईटं, या पत्थर की चिनाईवाले भवनों के द्वारों में चौखट लगी होती है, जिसमें ऊपर की ओर लकड़ी का जोता होता है। लकड़ी के मकानों में जोते की क्षैतिज लकड़ी में चूलें बनाकर अगल बगल की खड़ी लकड़ियों के बीच लगा देते हैं और खड़ी लकड़ियाँ ऊपर छत तक चली जाती हैं। गुफाभवनों, अर्थात् पत्थर या शिला काटकर बनाए हुए भवनों, में अलग से चौखटे की आवश्यकता नहीं होती, किंतु बहुधा ऐसे द्वारों के चतुर्दिक् सजावट के लिए रेखाएँ या अन्य अभिकल्प उत्कीर्ण कर दिए जाते हैं।
विभिन्न देशों में भिन्न भिन्न समयों पर प्रचलित वास्तुकला के अनुसार द्वारों के ऊपरी भाग का रूप बदलता रहा है। प्राचीन भवनों के अवशेषों में ऐसे सभी रूपों के द्वार मिलते हैं। प्राचीन मिस्र में पर्दे की दीवार में बने द्वार दीवार से भी ऊँचे बनते थे, ताकि झंडे या धार्मिक कार्यें से संबधित अन्य लंबी वस्तुएँ भीतर ले जाने में सुविधा हो। बाजुओं के पत्थर ऊपर की ओर थोड़ा थोड़ा आगे बढ़ाकर रखे जाया करते थे। इस प्रकार द्वार का तत्कालीन रूप अधूरी चोटी का सा होता था। प्राचीन इत्रुरिया (Etruria) तथा ग्रीस में भी द्वार बहुधा चोटी पर छोटे, और नीचे बड़े बनाए जाते थे।
यूरोप में रोमन काल के पश्चात्, रोमनेस्क तथा गॉथिक वास्तुकला के काल तक, गिरजाघरों इत्यादि में ऐसे द्वार बनाए जाते थे जिनकी आकृति दीवार में क्रम से एक के बाद एक खोदे हुए, अनेक आलों के समान होती थी। द्वार के ऊपर के तोरण भी इसी प्रकार क्रम से काटे जाते थे। द्वार के छिद्र की क्षैतिज चोटी पर दीवार का एक खड़ा भाग छूटा रहता था।
मुस्लिम देशों में द्वारों का बड़ा महत्व है। दीवार की पूरी ऊँचाई भर में बनाए हुए तोरण के ऊपरी भाग में झाड़ लटकाए हुए रहते हैं, या केवल एक ऊँची नोकदार मेहराब रहती है, और नीचे के भाग में प्रवेशद्वार होता है। चीन, जापान और भारत में द्वारों की बनावट प्राय: सीधी ही होती है।
द्वारकपाट (किवाड़) - अति प्राचीन काल के आदिवासी भी वर्तमान आदिवासियों की भाँति किवाड़ का काम वृक्ष की डालियों से बने टट्टर या चमड़े, चटाई, टाट, या किसी प्रकार के परदे से लेते थे। आवश्यकता न रहने पर चटाई इत्यादि लपेटकर बाँध दी जाती थी। मिस्र के ताई नामक मकबरे की दीवारों पर बनाए चित्रों में द्वारों पर लटकती हुईं ऐसी चटाइयाँ चित्रित हैं। आधुनिक भवनों में भी द्वारों पर लटकते परदे अंशत: अस्थायी किवाड़ों का काम देते हैं।
दृढ़ पदार्थों से बने किवाड़ का प्रयोग भी प्राचीन है। ये किवाड़ प्राय: किसी भी काठ के मोटे, भारी तख्तों के बने होते थे। किवाड़ की एक बगल में ऊपर और नीचे की ओर चूलें या कीलियाँ निकली रहती थीं। ये चूलें द्वार के ऊपर और नीचे की ओर बने हुए गड्ढों में बैठा दी जाती थीं। इन्हीं चूलों पर घुमाकर किवाड़ खोला या बंद किया जाता था। यदि द्वार कम चौड़ा होता था तो एक पल्ले का, नहीं तो दो पल्ले के किवाड़ लगाए जाते थे। इस प्रकार के किवाड़ भारत के पुराने भवनों में और अभी भी देहातों में सर्वत्र पाए जाते हैं।
जिन देशों में आर्द्र जलवायु के कारण लकड़ी के तख्ते के बने पल्लों के टेढ़े हो जाने की आशंका रहती है, वहाँ लकड़ी के खड़े या बेड़े कई टुकड़े जोड़कर, या चौखटे में जड़कर, किवाड़ बनाए जाते हैं। कुछ देशों में, जैसे सीरिया, पैलेस्टाइन, मेसोपोटैमिया तथा भारत में लकड़ी के किवाड़ों पर धातु की चद्दर मढ़ने की परिपाटी है। लकड़ी के किवाड़ों को सुदृढ़ करने के लिए उनपर लोहे, काँसे या पीतल के बंद जड़े जाते हैं। किलों के कपाटों पर इनके सिवाय नुकीले बर्छे या काँटे जड़े जाते थे, ताकि हाथी के धक्के से भी वे कपाट तोड़े न जा सकें।
जिन देशों में काठ दुर्लभ है, वहाँ पत्थर के दिल्लेदार कपाट बनाए जाते थे। ईसा पूर्व ज्वालामुखी विस्फोट में ध्वस्त पोंपियाईं (घ्द्थ्रृद्रड्ढत्त्) नगर के अवशेषों में संगमरमर के, तथा सिरिया में चौथी से छठी शताब्दी के पत्थर के अनेक प्राचीन कपाट मिले हैं।
द्वारकपाट प्राय: लकड़ी के दिल्लेदार होते थे। इनकी बनावट बहुत कुछ आधुनिक द्वारों सी ही होती थी। कभी कभी कपाट दो, तीन या चार पल्लों के होते थे और ये पल्ले आपस में कब्जों से जुड़े रहते थे। यूरोप में १२वीं शताब्दी से कपाटों को चूल पर घूमनेवाला न बनाकर कब्जों से लगाने की प्रथा चली। लोहे के ये कब्जे फूल पत्तियों के आकार के बने होते थे और इनके कपाटों को सुदृढ़ करने के साथ साथ सजाने का अवसर भी मिलता था।
मुस्लिम देशों के कपाटों में प्राय: तारों सदृश, षट्कोणीय या अन्य जटिल आकृतियों के दिल्ले होते हैं। अधिक सजावट के लिए धातु की चद्दरों में विविध आकृतियाँ काटकर लकड़ी के कपाटों पर जड़ दी जाती हैं। चीन, जापान तथा भारत में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। कभी कभी कपाट के नीचेवाले दिल्ले ठोस होते हैं और ऊपरी दिल्ला अलंकृत् जाली का। जापान में प्राय: सरकनेवाले किवाड़ होते हैं, जो दीवारों के प्रतिरूप प्रतीत होते हैं।
आजकल भी दिल्लेदार किवाड़ बनते हैं, किंतु समतल किवाड़ों का चलन बढ़ रहा है। अग्नि से बचाव के लिए धातु का भी प्रयोग होता है। ऐसे किवाड़ दो प्रकार के होते हैं : एक में भीतरी भाग तो लकड़ी का ही होता है किंतु ऊपर धातु की चद्दर चढ़ाकर झाल दी जाती है, या अन्य प्रकार से जोड़ दी जाती है। दूसरे में धातु के ढाँचे पर चद्दरें जड़ दी जाती हैं। विशेष प्रकार के काम के लिए विशेष प्रकार के दरवाजे बनाए जाते हैं।
कपाटों में उपयोग के लिए आजकल अनेक प्रकार के ताले, कब्जे, चूलें, आदि बनते हैं तथा जुड़नारों में बहुत यांत्रिक विकास हुआ है।
(भगवानदास वर्मा.)