दयानंद सरस्वती, महर्षि काठियावाड़ में मोरवी एक छोटा सा राज्य है। उसमें टंकारा नाम का एक गाँव है। वहाँ कर्शणजी नाम के एक उदीज्य ब्राह्मण बड़े भूस्वामी रहते थे। उन्हीं के घर में शिवरात्रि के दिन संवत् १८८१ विक्रमी में दयानंद का जन्म हुआ। उनकी माता का नाम यशोदा था। उन्होंने बालक का नाम मूलजी रखा। कुछ लोग उन्हें दयालजी भी कहते थे।

मूलजी को पाँच वर्ष की उम्र में विद्यारंभ कराया गया। उनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। १४ वर्ष की अवस्था में सारा यजुर्वेद और दूसरे वेदों के कुछ अंश उन्हें कंठस्थ थे। इसके अतिरिक्त व्याकरण भी उन्होंने पढ़ लिया था।

मूलजी के पिता शिवभक्त थे। वे शिवरात्रि का व्रत रखा करते थे। उन्होंने अपने १४ वर्ष के पुत्र मूलजी को भी व्रत रखने पर विवश किया। मंदिर में भक्तजन आधी रात तक खूब शिवजी के भजन गाते रहे, परंतु एक एक करके सबको निद्रा ने आ दबाया और वे खर्राटे लेने लगे। पूरी तरह सन्नाटा छा जाने पर एक चुहिया बिल से निकली। वह शिव की मूर्ति पर चढ़कर नैवेद्य खाने लगी। मूलजी यह सब देख रहे थे। उन्हें चुहिया को मूर्ति पर कूदते देख बडा आश्चर्य हुआ। कारण यह कि उन्होंने पिता से सुन रखा था कि शिवजी कैलास पर्वत पर रहते हैं। वे सारे संसार के स्वामी हैं और शत्रुओं से अपने भक्तों की रक्षा करते हैं।

मूलजी सोचने लगे कि जो शिव अपने पर से एक छोटी सी चुहिया को भी नहीं हटा सकते वे शत्रुओं से अपने भक्तों की रक्षा कैसे कर सकते हैं, बस मूर्तिपूजा पर से उनका विश्वास उठ गया। तत्काल घर आकर उन्होंने माँ से लेकर खाना खा लिया। मूलजी के पिता उनका शीघ्र ही विवाह कर देना चाहते थे। इसलिये मूलजी घर से भाग निकले। वे सच्चे शिव की तलाश में जगह जगह योगियों और तपस्वियों के पास मारे मारे फिरने लगे। अंत में वे संवत् १९१७ के आरंभ में मथुरा पहुँचे। वहाँ उन्होंने प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानंद से दो ढाई वर्ष वेदों का अध्ययन किया। इससे उनके बहुत से संशय दूर हो गए। अब तक वे संन्यास लेकर मूलजी से दयानंद बन चुके थे। विद्यासमाप्ति पर दयानंद वेदप्रचारार्थ देश में घूमने निकल पड़े। हरिद्वार में कुंभ के मेले पर उन्होंने अपनी पाखंडखंडिनी पताका लगाकर मूर्तिपूजा का खंडन आरंभ कर दिया। वे काशी प्रभृति अनेक नगरों में गए। वहाँ बड़े-बड़े पंडितों के साथ उनके शास्त्रार्थ हुए।

चैत्र सुदी ५, संवत् १९३२ विक्रमी को स्वामी दयानंद ने बंबई में पहला आर्यसमाज स्थापित किया। फिर भारत के अन्य नगरों में भी आर्यसमाज बन गए। स्वामीजी केवल वेद को ईश्वरीय ज्ञान और धर्मपुस्तक मानते थे। जिन मत मतांतरों को वे झूठा समझते थे, उनका खंडन करने में वे बिलकुल संकोच न करते थे। इसलिए अनेक लोग उनके शत्रु बन गए। उनको अनेक बार विष दिया गया; नदी में डुबाकर मार डालने का यत्न किया गया। काशी, लाहौर और पूना जैसे नगरों में उनपर पत्थर फेंके गए और उन्हें बाजारों में अपमानित किया गया। पर वे जिसे सत्य और जनहितकारी बात समझते थे उसे छोड़ने को तैयार न हुए।

संवत् १९४० विक्रमी में स्वामीजी जोधपुर गए। वहाँ का राजा उनका बड़ा भक्त था। पर उसकी एक वेश्या थी जिसने स्वामीजी से चिढ़कर उनके रसोइए द्वारा उन्हें विष दिला दिया। इससे जब वे असाध्य रूप से रुग्ण हो गए, उन्हें अजमेर ले आया गया। यहाँ संवत् १९४० की दीपावली मंगलवार के दिन सायंकाल छह बजे उनका देहांत हो गया।

दयानंद यद्यपि गुजरातीभाषी और संस्कृत के प्रकांड पंडित थे, उन्होंने अपन अमर ग्रंथ 'सत्यार्थपकाश', राष्ट्रभाषा हिंदी में भी लिखा। स्वदेशी, स्वधर्म तथा स्वयंस्कृति के संबंध में वे किसी प्रकार की हीनता या दीनता सह नहीं सकते थे। वे ऊँच-नीचमूलक जातिभेद और अस्पृश्यता के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने वैदिक धर्म का द्वार 'शुद्धि' संस्कार द्वारा सब अहिंदुओं के लिये भी खोल दिया था। वे मानवता के सच्चे उपासक थे। उनके सभी काम राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करनेवाले थे। [संo राo]