दमा (Asthma) श्वसनतंत्र का रोग है, जिसमें साँस लेने पर विशेष प्रकार की घरघराहट, या सों सों की आवाज होती है, जिसका कारण साँस के बाहर निकलने में रुकावट उत्पन्न होना है। श्वासनली या फेफड़े के वायुकोष्ठों में शोथ या ऐंठन हो जाने से रुकावट उत्पन्न होती है। इस शोथ या ऐंठन का कारण वायुकोष्ठों में कफ का सूख जाना, या धूलिकण सदृश हानिकारक बाह्य पदार्थों की उपस्थिति, हैं। यह रोग पैतृक भी हो सकता है। ऊतकों के प्रदाह से भी यह रोग उत्पन्न हो सकता है, जिसमें पहले खाँसी और बाद में दमा हो जाता है।

आजकल इस रोग का कारण एलर्जी (allergy) बताया जाता है। यह रोग किसी भी अवस्था के स्त्री पुरुषों को समान रूप से हो सकता है। हिस्टीरिया, गठिया, उपदंश, श्वासनली का शोथ और यक्ष्मा इत्यादि रोग भी दमा उत्पन्न करने या उभारने में सहायक होते हैं१ साधारणतया वर्षा ऋतु में यह रोग अति उग्र रूप धारण करता है, किंतु यह उग्रता व्यक्तिविशेष की प्रकृति पर निर्भर करती है। कफ सूख जाने पर वायुनलिका में संकोच होता है, जिससे वायुसंचार में बाधा उत्पन्न होती है और रोगी की उग्रता बढ़ जाती है। इस बाधा के निवारण के लिये श्वासनली को विशेष कार्य करना पड़ता है, जिससे साँस फूलने के लक्षण प्रकट होते हैं।

लक्षण -- दमा अधिकांशत: रात्रि में दो बजे या उसके बाद जोर पकड़ता है तथा कभी कभी दिन में भी जोर पकड़ता है। दमें के उग्रताकाल को दमें का काल कहते हैं१ इस समय घबराहट, ऐंठन तथा बेचैनी होती है। नाक में खुजलाहट होती है और आँख नाक से पानी निकलने लगता है। घरघराहट तथा दु:श्वसन (dysponoea) बढ़ जाते हैं। कभी कभी श्वासारोध भी होने लगता है, जिससे रोगी उठकर बैठ जाता है और तकिए, चारपाई के पाए, खिड़की और दरवाजे के सहारे बलपूर्वक साँस लेकर कष्टनिवृत्ति का प्रयत्न करता है१ घरघराहट बढ़ जाने के साथ-साथ उसका रंग पीला पड़ जाता है और अधिक पसीना निकलने लगता है। जब रोगी जोर जोर से साँस लेता है तब एक ही श्वसन में कई साँसें मिली हुई आती हैं, जिनसे वह घबड़ा जाता है। ऐसी स्थिति को स्टेटस ऐज़मैटिकल (status asthmaticus) कहते हैं। यह घातक स्थिति समझी जाती है। ऐसी स्थिति में रोगी का नाड़ीस्पंद कम हो जाता है। नाड़ी स्पंदन में तीव्रता एवं अनियमितता हो जाती है। श्वासनली के संकोच और दु:श्वसन से फेंफड़े में संचित कफ पर्याप्त प्रयत्न करने पर निकलता है। कफ निकल जाने पर रोगी की बेचैनी कुछ घट जाती है, फिर भी उसे यह भय लगा रहता है कि दम घुटकर प्राण न निकल जाय। रोगी को रुधिरपरीक्षा में श्वेत रक्तकण (W.B.C.) में इओसिनोफ़िल (Eosinophil) की मात्रा बढ़ी हुई पाई जाती है।

दमा प्रधानत: तीन प्रकार का होता है : १. श्वसनी (bronchial), २. हृद् या हृदीय (cardial) और ३. वृक्कीय (renal) । श्वसनी दमा श्वासनली में हुए विकारों से, हृदी दमा हृदय के विकारों से तथा वृक्कदमा वृक्क के विकारों के कारण होता है। पहले में श्वासनली की परीक्षा और उपचार, दूसरे में हृदय की परीक्षा और उपचार तथा तीसरे में वृक्क की परीक्षा और उपचार आवश्यक है।

दमें के उपचार के दो अंग हैं। पहला, दमें से उत्पन्न साँस के वेग को शांत करना तथा दूसरा, साँस का वेग उत्पन्न न हो इसका उपाय करना। साँस के वेग को शाँत करने के लिये अनेक औषधियाँ उपलब्ध हैं। सुयोग्य चिकित्सक के परामर्श से उनका व्यवहार करना चाहिए। साँस का वेग उत्पन्न न हो, इसे लिये रोगी को सुपाच्य भोजन करना चाहिए। एक ही बार में अधिक न खाकर, थोड़ा थोड़ा करके कई बार में खाना चाहिए। रात्रि का भोजन संख्या ६ बजे के पहले कर लेना काज में कम परिश्रम करना तथा शुष्क स्थान पर भ्रमण करना रोगी के लिये लाभप्रद है। दमे के पुराने रोगियों को बाद में वातस्फीति (emphysema) का रोग अधिक होते हुए देखा गया है। [प्रियकुमार चौवे]