दबीर उपनामधारी उर्दू के प्रतिनिधि मर्सियागो शायर मिर्जा सलामत अली सन् १८०३ में दिल्ली में उत्पन्न हुए। पिता का नाम गुलामहुसैन था जिनके साथ प्राय: सात वर्ष की उम्र में ये लखनऊ गए। वहीं मौलवी गुलामज़ामिन और मिर्ज़ा काज़िमअली आदि से अरबी फारसी पढ़ी। बचपन से ही मर्सिया की ओर सहज रुचि रहने के कारण इन्होंने विख्यात मर्सियागो मीर मुजफ्फरहुसैन 'जमीर' को अपना काव्यगुरु बनाया और 'जो कुछ उस्ताद से पाया उसे बहुत बुलंद और रौशन करके दिखाया।' ये स्वभावत: संयमी, मितव्ययी, अतिथिसेवी और उदार थे परंतु उस्ताद से अधिक दिनों इनकी न पट सकी। शीघ्र ही असाधारण प्रसिद्धि प्राप्त कर लेने के कारण इन्हें अवध के तत्कालीन शासक के समक्ष भी मर्सिया पढ़ने का अवसर मिला। फलत: बड़े-बड़े लखनवी रईस और शाही परिवार के लोग भी इन्हें अपना काव्यगुरु मानने लगे। स्वयं वाजिदअलीशाह ने इन्हें कलकत्ते बुलाकर इनकी खराब आँखें एक डाक्टर से बनवा दीं। सन् १८५७ तक ये लखनऊ के बाहर कहीं नहीं गए थे परंतु सन् १८५८ में मुर्शिदाबाद और सन् १८५९ में पटना की यात्रा इन्हें करनी पड़ी। सन् १८७५ में लखनऊ में ही इनकी मृत्यु हुई और ये अपने घर में ही दफ़न किए गए। जीवन भर मीर अनीस से इनकी भद्र प्रतिद्वंद्विता चलती रही जिसका फल यह हुआ कि लखनऊ के साहित्यमर्मज्ञ अनीसिए और दबीरिए नामक दो दलों में विभाजित हो गए। साथ ही इनका एक शुभ परिणाम यह भी हुआ कि उर्दू में मर्सिया काव्य उस पूर्णता तक पहुंँच गया कि फिर दूसरों के लिये जैसे उसके आगे कोई राह ही न रह गई। १४-१५ साल की उम्र से इन्होंने मर्सिया कहना आरंभ किया और ७४ वर्ष की उम्र में अपने मृत्युकाल तक लंबे लंबे प्राय: ३,००० मर्सिए लिख। नौहा, रुबाई और सलामों की भी अत्यधिक संख्या में रचना की। भड़कीले शब्दों प्रयोग, उच्च विचार, नई उपमाओं और कथन में नवीनता की ओर मिर्ज़ा की रुचि बहुत अधिक थी। उनकी रचनाओं में पांडित्यप्रदर्शन भी है। उन्हें अपने कलाम में कुरान की आयतों और हदीस के वचनों को बाँधने का बड़ा शौक था। इसीलिये 'उर्दू' के साथ अरबी का जोड् खूब बैठाते थे।' कहीं कहीं ऐसे वाक्य भी लिख जाते थे जिसमें केवल क्रियापद ही उर्दू का रहता था और शेष सब कुछ अरबी फारसी ही, जैसे 'ज़ैरे क़दमें मादरे फिरदौस बरीं है।' शिल्प और रंगीनी इनके कलाम की विशेषताएँ हैं। इनके पुत्र मिर्ज़ा मुहम्मदज़ाफ़र भी अच्छे शायर थे और अपने पिता के ही रंग में कहते थे। [ शिवप्रसाद मिश्र ]