दंडदायित्व [Criminal Liability] इस शब्द का साधारण अर्थ है किए गए 'अपराध' के लिये दंड पाने का दायित्व। अपराध करनेवाला व्यक्ति सामान्यत: अपराधी कहलाता है अर्थात् वह जो कानून द्वारा अमान्य काम करे अथवा कानून द्वारा निर्धारित अनिवार्य काम की अवहेलना करे एवं अपने काम या इसकी अवहेलना से समाज को क्षति पहुँचावे।
दंडाभियोग तथा स्वत्वाधिकार -- बहुधा किसी अपराध से व्यक्तिविशेष को ही हानि पहुँचती है एवं इसके लिये वह दीवानी न्यायालय में क्षतिपूर्ति की याचना कर सकता है, किंतु सामाजिक शांति एवं अनुशासन की दृष्टि से बहुत से ऐसे भी हें जिनके लिये अपराधी के विरुद्ध दंडाभियोग लाकर उसे न्यायालय से दंडित करना राज्य का कर्त्तव्य होता है। समाज में शांति कायम रखना शासन का ही दायित्व है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रति किए गए अपराध के लिये प्रतिपक्षी से स्वयं अपनी इच्छा के अनुसार प्रतिशोध ले तो समाज में अराजकता फैल जायगी और अंतत: सभ्य जीवन लुप्त हो जायगा। इस कारण राज्य की ओर से ही अपराधियों के विरुद्ध गुरुतर दंडाभियोग के मामले लाए जाते हैं एवं अपराध से साक्षात् त्रस्त व्यक्ति केवल साक्षी अथवा निमित्त मात्र रह जाता है। समाज का प्रतीक वह व्यक्ति माना जाता है, जिसमें सार्वभौम सत्ता विराजमान हो। भिन्न भिन्न देशों में ऐसे सत्ताधारी व्यक्तियों के भिन्न भिन्न नाम होते हैं। यथा, इंग्लैंड में राजा, भारत में राष्ट्रपति। दंडाभियोग के मामले में प्रथम पक्ष में इन्हीं के नाम होते हैं, यद्यपि अटर्नी जेनरल अथवा डिरेक्टर ऑव पब्लिक प्रोसेक्यूशन भी शासन की ओर से प्रथम पक्ष में हो सकते हैं। दंडाभियोग एवं स्वत्वाधिकार (दीवानी) के मामलों में यह मौलिक अंतर है कि दंडाभियोग का लक्ष्य होता है दोषी को दंड दिलाना, स्वत्वाधिकर के मामले में वादी का उद्देश्य होता है संपत्ति प्राप्त करना या किसी व्यक्तिगत अधिकार की घोषणा कराना। दंडाभियोग के लिये भिन्न भिन्न रूप में दंड दिए जा सकते हैं। यथा, मृत्यु, आजीवन निर्वासन, कारावास, विरोध (Detention), कोड़े मारना, अर्थदंड, अपराधी की संपत्ति का राजसात्करण (Confiscation) इत्यादि। कभी कभी दंड के साथ साथ अपराधी को अनर्हता (Disqualification) नागरिक अधिकारों की हानि एवं राजनीतिक अधिकारों का अपहरण भी सहना पड़ता है।
दोषपूर्ण मन (Mens Rea) कोई किसी अपराध के लिये दंडित नहीं हो सकता, यदि उसने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कानून द्वारा अमान्य कोई काम न किया हो या कानून द्वारा निर्धारित किसी अनिवार्य काम में त्रुटि नहीं की हो। साधारणत: किसी अपराध की पूर्णता के लिये यह आवश्यक है कि वह दोषपूर्ण मन से किया जाय। किंतु अपराधी की स्वेच्छा से होने पर ही उसका काम अपराध माना जा सकता है। स्वेच्छा से किया हुआ काम या काम की अवहेलना वह है, जिसे करने या न करने की इच्छा रही हो। अत: किसी व्यक्ति ने यदि अचेतन अवस्था में--यथा, निद्रित होने पर, अत्यंत कम अवस्था रहने से, जड़ता या विक्षिप्तता के कारण--कोई अपराध किया है तो यह माना जायगा कि ऐसी परिस्थिति में उसका मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था। फलत: उस काम के करने या उसकी अवहेलना में उसकी इच्छा नहीं थी। इसी प्रकार अत्यंत बाध्य होने पर कोई व्यक्ति यदि कोई अपराध करे तो इसमें उसकी स्वेच्छा काम अभाव रहेगा। कोई काम या इसमें च्युति इच्छापूर्ण मानी जायेगी, यदि कार्यकारी उपयुक्त सावधानी बरतने पर उसे नहीं करता या उसकी अवहेलना से विरत होता। किसी अनायास हुए काम या काम की त्रुटि को स्वेच्छापूर्ण नहीं मानते। अत: यदि यह प्रमाणित हो कि उपयुक्त सावधानी बरतने पर भी ऐसा काम नहीं रुक सका तो यह दंडनीय नहीं हो सकता। कभी कभी कानून द्वारा वर्जित किसी काम के करने की इच्छा मात्र ही दोषपूर्ण मन माना जाता है। (देखिए, बैंक ऑव न्यू साउथ वेल्स बनाम पाइपट, १८९७ एo सीo, ३८३, पीo सीo, पृष्ठ ३९०)।
सीमित वर्ग के अपराधों में दोषपूर्ण मन आवश्यक नहीं है। दृष्टांत के लिये, कोई व्यक्ति अपनी पत्नी के रहते दूसरा विवाह करे, तो अपनी प्रतिरक्षा में वह यह नहीं कह सकता कि उसने शुद्ध मन से यह विश्वास किया था कि उसका पहला विवाह विच्छिन्न हो चुका है। इस वर्ग में कानून द्वारा निर्दिष्ट छोटे छोटे अपराध ही आते हैं। यह जानने के लिये कि ऐसे अपराधों में दोषपूर्ण मन आवश्यक है या नहीं, निर्दिष्ट कानून (Statue) के उद्देश्य की ओर देखना आवश्यक हो जाता है।
जिस अपराध में विशेष इच्छा या मानसिक स्थिति आवश्यक है, उसके लिये कोई व्यक्ति अपराधी नहीं होगा, यदि उसका मन दोषपूर्ण नहीं था एवं दूसरे व्यक्ति के आदेश से उसने वह अपराध किया था। किंतु जिस व्यक्ति के आदेश से वह अपराध हुआ, वह उत्तरदायी होगा।
साधारणत: कोई व्यक्ति किसी काम या उसकी अवहेलना के लिये उत्तरदायी नहीं होगा, यदि उसने स्वयं अपराध नहीं किया है या निर्धारित काम करने से विरत नहीं हुआ है या किसी दूसरे व्यक्ति को अपराध करने के लिये अधिकार नहीं दिया है और न उसे निर्धारित काम करने से विरत होने की प्रेरणा दी है।
कोई मालिक अपने सेवक या ऐजेंट के विद्वेष, कपट या काम की उपेक्षा के लिये दंडित नहीं किया जा सकता, क्योंकि सेवक या एजेंट की मानसिक स्थिति मालिक की मानसिक स्थिति नहीं कही जा सकती। [ देखिए, R. V. Holebrook, 1877, 3 B. D. 60 at page 63 ]
किंतु सीमित वर्ग के कुछ मामलों में जहाँ मानसिक स्थिति अपराध के लिये आवश्यक नहीं है, अपने सेवक या एजेंट के सामान्य कार्य के दौरान में किए गए कामों के लिये मालिक उत्तरदायी होगा, भले ही उसे ऐसे काम की जानकारी न रही हो और वे काम उसके आदेश के विरुद्ध ही क्यों न किए गए हों।
[देखिए, R. V. Stephence, 1866, L. R. I Q. B. D. 702 ]
कोई निगम (Corporation) अपने सेवक या एजेंट के द्वारा ही काम कर सकता है। अत: इनके काम या कानून द्वारा निर्दिष्ट काम में त्रुटि के कारण निगम ही उत्तरदायी हो सकता है। किंतु राजद्रोह (Treason), गुरुतर अपराध (Felony), तथा ऐसे लघुतर अपराधों के लिये, जिनमें व्यक्तिगत रूप में हिंसा का अभियोग लगे अथवा ऐसे अपराधों के लिये जिनमें कारावास या शारीरिक यातना द्वारा ही दंड दिया जा सके निगम उत्तरदायी नहीं हेगा। अपने सेवक या एजेंट के अपराध के लिये उसे केवल अर्थदंड दिया जा सकता है।
उद्देश्य और लक्ष्य -- उद्देश्य (motive) और लक्ष्य (Intention) में अंतर है। मामला चलानेवाला किसी दंडाभियोग के उद्देश्य पर प्रमाण दे सकता है, यद्यपि ऐसा करने को वह बाध्य नहीं है। उन मामलों, जहाँ इच्छा की निर्दोषिता बचाव में पेश की जा सकती है उद्देश्य की निर्दोषिता बचाव नहीं है। कानून से अमान्य काम की मार्जना इस आधार पर नहीं की जा सकती कि वह अच्छे उद्देश्य से किया गया है। अत: जहाँ अश्लील विषय के प्रकाशन का अभियोग लाया गया है और प्रकाशन वास्तव में अश्लील है, तो अभियुक्त के बचाव में यह स्वीकार नहीं किया जायगा कि उसका उद्देश्य अच्छा था। [देखिए, R. V. Hichlin, 1864, L. R. 3 q. B. D. 360]।
अपराध की क्षमता -- अँगरेजी विधान में निश्चायक (Conclusive) प्रकल्पना है कि आठ साल की अवस्था से कम का शिशु अपराध नहीं कर सकता। (देखिए The children and young persons act)। भारतीय कानून में यह सात साल तक ही सीमित है।
यदि कोई बालक (या बालिका), जिसकी अवस्था ८-१४ साल के बीच है, कोई अपराध करे, जिसमें दुष्ट इच्छा (animus malus) आवश्यक है, तो कानून की प्रकल्पना के अनुसार यह माना जायगा कि उसे यह समझने की क्षमता नहीं है कि वह अपराध कर रहा है। अत: मामला चलानेवाले पर यह प्रमाणभार रहेगा कि उक्त बालक को अपराध समझने की क्षमता थी।
कानून की एक निश्चायक प्रकल्पना है कि १४ साल से कम से बालक को संभोग का ज्ञान (carnal knowledge) नहीं होता। अत: वह बलात्कार (rape) किया बलात्कार करने के लक्ष्य से आक्रमण के लिये दंडित नहीं हो सकता। इस विषय पर साक्ष्य भी नहीं दिया जा सकता कि १४ साल से कम अवस्था का बालक शारीरिक विकास के कारण संभोग क्रिया में सक्षम है। किंतु यदि वह १४ साल से अधिक अवस्था के किसी व्यक्ति को संभोग क्रिया में सहायता दे तो वह (principal in second degree) होगा। १४ साल से कम अवस्था का कोई बालक किसी भी स्थिति में अप्राकृतिक अपराध (unnatural offence) में सहयोगी (accomplice) नहीं माना जायगा।
१४ साल से अधिक अवस्था का प्रत्येक व्यक्ति कानून की दृष्टि में पर्याप्त ज्ञान रखता है। अत: वह अपने अपराध के लिये दोषी माना जायगा।
विक्षिप्तता -- जहाँ ऐसा प्रमाणित किया जाय कि जिस व्यक्ति ने अपराध किया है, वह अपराध करने के समय विक्षिप्त मानसिक दशा में रहने के कारण अपने किए अपराध के फल को समझने में अक्षम था, तो वह अपराध के लिये उत्तरदायी नहीं होगा और न अपराधी ही कहा जायगा।
अपराध करने के समय कोई व्यक्ति विक्षिप्त था या नहीं, यह तथ्य का विषय है, कानून का नहीं। विक्षिप्तता का प्रमाणभार अभियुक्त पर है। विशेषज्ञ का साक्ष्य अनिवार्य नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं कि प्रतिरक्षा के साक्षियों के द्वारा साक्ष्य दिया जाय। मामला चलाने वाले (prosecution) के साक्षियों की प्रतिपृच्छा (जिरह या cross examination) से प्रमाणभार का दायित्व निभाया जा सकता है। केवल यह कहना कि कोई अपराध बिना उद्देश्य के किया गया, विक्षिप्तता सिद्ध नहीं करता।
ऐसे मामलों में जूरी की संमति होती है 'अपराधी किंतु विक्षिप्त' (Guilty but insane)। अपराधी को राजा किंवा राष्ट्रपति की मरजी की अवधि पर्यंत जेल में रखा जाता है। अपराधी दोषसिद्ध या दंडासप्त नहीं कहा जा सकता। अत: उसे अपील करने का अधिकार नहीं रहता।
इस प्रसंग में नैतिक विक्षिप्तता (moral insanity) असंबद्ध है। अर्थात् यदि यह कहा जाय कि अपराध के समय अपराधी की मेधाशक्ति ठीक थी, किंतु उसका नैतिक चिंतन स्खलित हो चुका था अथवा वह मस्तिष्क के असंयमित प्रवाह (uncontrollable impulse) के वशीभूत होकर मेधा शक्ति के रहते हुए भी अपराध कर बैठा, तो उसका अपराध क्षम्य नहीं होगा।
प्रमत्तता -- साधारणत: कोई व्यक्ति, जो स्वेच्छा से नशे का सेवन कर मत्त हो जाता है, अपराध के दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि मत्त या मतवाला व्यक्ति भी अपराध के लक्ष्य (intention) को समझने की क्षमता रखता है। किंतु नशा या प्रमत्तता (delirium tremens) जब इस सीमा तक पहुँच चुकी हो कि इससे अस्थायी विक्षिप्तता आ गई है, तो अभियुक्त का यह बचाव अन्य कारणों से उत्पन्न विक्षिप्तता के समान होगा। जिस अपराध में लक्ष्य (intention) आवश्यक है, वहाँ मदासक्ति पर साक्ष्य देकर अन्यान्य साक्ष्य के साथ यह देखा जा सकता है कि अपराध में लक्ष्य बना या नहीं। पर विक्षिप्तता का साक्ष्य साधारणत: लागू नहीं होता।
अवपीड़न -- (coercion)। यदि कोई व्यक्ति शारीरिक पीड़न का भय दिखलाए जाने पर बाध्य होकर किसी के आदेश के अनुसार कोई अपराध करे, जो अन्यथा स्वेच्छा से किए जाने पर दंडाभियोग होता, तो वह दंडाभियोग के दायित्व से मुक्त है। किंतु जो व्यक्ति अपराध करने को उसे बाध्य करता है, वह दोषी है। पर यह बचाव तभी मान्य हो सकता है, जब प्राण जाने का तत्क्षण भय हो।
नैतिक बल -- यदि कोई व्यक्ति नैतिक बल से प्रभावित होकर कोई अपराध करे तो वह क्षम्य नहीं होगा।
बड़ों का अनिवार्य आदेश -- यदि कोई अपने से ऊपर के अधिकारी की आज्ञा पालन करने को बाध्य है एवं उक्त अधिकारी की आज्ञा का पालन करते हुए, कोई अपराध कर डालता है, तो उसका अपराध क्षम्य नहीं होगा, यद्यपि विद्वेष की भावना का अभियोग उसपर नहीं लगाया जा सकता।
अपराध की छूट -- राजा पर दंडाभियोग नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि वह कानून की दृष्टि में अपराध करने में अक्षम है।
भिन्न भिन्न राष्ट्रों के बीच पारस्परिक सौहार्द बनाए रखने के अभिप्राय से एक देश के राजा या उसके राजदूत पर अन्याय देशों में दंडाभियोग (या दीवानी) के मामले नहीं लाए जा सकते।
पार्लिमेंट के सदस्य दंडाभियोग के नियमों के अंदर हैं, किंतु सदन में दिए गए अपने भाषण के लिये वे अभियुक्त नहीं बनाए जा सकते। कारण, गणतंत्र के विकास एवं जनहित की दृष्टि से उन्हें भाषण की पूरी छूट दी गई है, ताकि किसी भी व्यक्ति की समीक्षा वे निर्भीक होकर कर सकें। ऐसी आशा की जाती है कि वे अपने अधिकार का दुरुपयोग न करेंगे।
अपराधियों की श्रेणी -- कोई व्यक्ति या तो स्वयं अथवा निमित्त रूप में अपराधी हो सकता है या घटना से पूर्व अथवा पश्चात् सहायक हो सकता है। कोई या तो स्वयं अपराध करता है या अन्य किसी एजेंट से कराता है, जो कानूनन अपराध के लिये उत्तरदायी नहीं होता, यथा सात साल से कम अवस्था का शिशु, कोई पशु या कोई मशीन। ऐसा व्यक्ति प्रधान अपराधी कहलाता है। द्वितीय श्रेणी का प्रधान वह है जो घटनास्थल पर उपस्थित रहकर प्रधान को अपराध कर्म में सहायता देता है या उसे प्रोत्साहित करता है। घटना से पूर्व का सहायक वह है जो प्रधान को अपराध करने को प्रोत्साहित करता है किंतु अपराध के समय उपस्थित नहीं रहता। घटना से पश्चात् का सहायक वह है जो यह जानते हुए कि किसी ने गुरुतर अपराध किया है, उसे शरण देता है या उसे भागने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रसंग में स्मरणीय है कि राजद्रोह में जितने लोग संमिलित होते हैं, सबके सब प्रधान अपराधी होते हैं। दंड की गुरुत्ता एवं लघुता की दृष्टि से उक्त श्रेणीकरण उपयोगी है।
दंडाभियोग का वर्गीकरण -- दंडाभियोग के अपराध साधारणत: निम्नलिखित वर्गों में विभक्त होते हैं।
(१) राष्ट्र की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा के विरुद्ध,
(२) न्याय के आलय में लाए जाने एवं जनता के अधिकारियों के विरुद्ध,
(३) साधारण जनता के विरुद्ध,
(४) सांपत्तिक अपहरण।
दंडाभियोग की प्रतिरक्षा -- कानून का अज्ञान दंडाभियोग के बचाव में स्वीकार नहीं किया जाता। वह विदेशी, जिसे अन्य देश के कानून की जानकारी नहीं है, इस बचाव को पेश नहीं कर सकता, यद्यपि दंडादेश की कठोरता में प्राय: इससे कमी की जा सकती है।
जिन मामलों में दोषपूर्ण मन आवश्यक है, वहाँ दुर्घटना बचाव में ली जा सकती है। अभियुक्त अपने प्रति लाए हुए अभियोग को स्वीकार करते हुए कह सकता है कि वह कानूनी ढंग से काम कर रहा था, पर अन्यमनस्कता के कारण, सबोध (culpable) उपेक्षा के बिना, दुर्घटना हो गई।
यदि किसी व्यक्ति या उसकी संपत्ति का अनधिकार स्पर्श हो तो मामला चलानेवाले की स्वीकृति पूर्ण बचाव है। किंतु यह स्वीकृति कपट, धमकी या हिंसा से प्राप्त हुई हो तो इसकी मान्यता नहीं होगी।
यदि दो व्यक्ति अपनी आत्महत्या की योजना बनाएँ एवं उस योजना के अनुसार एक आत्मघात कर ले, कर दूसरा बच जाय तो दूसरा पहले की हत्या के लिये अभियुक्त होगा।
यह किसी की क्षमता के बाहर है कि वह स्वीकृति दे कि वह दंडाभियोग नहीं लाएगा।
दंडाभियोग की अवधि -- कानून द्वारा निर्दिष्ट कुछ अपवादों को छोड़कर दंडाभियोग की कोई अवधि भारत या इंग्लैंड में नहीं है। अभियुक्त सदा अपने अपराध के लिये उत्तरदायी है, अपराध की तिथि से भले ही कितना भी समय क्यों न व्यतीत हो जाय। यूरोप के देशों में अपराध की तिथि से २० साल के बाद कोई अभियोग नहीं लाया जा सकता।
अपराध विज्ञान -- अपराध विज्ञान का दंडदायित्व से इतना ही संबंध है कि यह अपराधी को समझने की चेष्टा करता है। उसे पहचानना इसकी परिधि से बाहर है। इसका सिद्धांत इस तथ्य पर आधारित है कि कोई परिस्थिति से पराभूत होकर ही अपराध की ओर अग्रसर होता है। यथा, अर्थ या नैतिक संकट किसी को दूसरे की संपत्ति का अपहरण करने को प्रोत्साहित कर सकता है। विक्षिप्तता या मानसिक असंतुलन भी अपराध को प्रश्रय देते हैं। अत: वैज्ञानिक उपचारों के प्रयोग से तथा परिस्थिति को अनुकूल कर अपराधी को अपराध से विरत करना चाहिए। अन्य शब्दों में यह विज्ञान 'दंड' के स्थान में 'सुधार' का समर्थन करता है। अमरीका में इस सिद्धांत की मान्यता बढ़ रही है। भारत या इंग्लैंड में इसका कोई प्रभाव जनता या न्यायालय पर नहीं पड़ा है।
संo ग्रंo -- हाल्सबरी : लाज आफ इंग्लैड (द्वितीय संस्करण, खंड ९); एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (१९३९) खंड ६, पृo ७१०-७२१; रतनलाल धीराजलाल ठाकुर : भारतीय दंडसंहिता (१९वाँ संस्करण, १९५६); हैरिस तथा विलशेय : दि क्रिमिनल ला (१०वाँ संस्करण, १९४३)। [नगेंद्रकुमार]