थियोडोलाइट (Theodolite) उस यंत्र को कहते हैं, जो पृथ्वी की सतह पर स्थित किसी बिंदु पर अन्य बिंदुओं द्वारा निर्मित क्षैतिज और उर्ध्व कोण नापने के लिये सर्वेक्षण में व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। अत्युक्ति न होगी, यदि कहा जाए कि सर्वेक्षण का आरंभ ही क्षैतिज और ऊर्ध्व कोण पढ़ने से होता है, जिसके लिये थियोडोलाइट ही सबसे अधिक यथार्थ फल देनेवाला यंत्र है। अत: यह सर्वेक्षण क्रिया का सबसे महत्वपूर्ण यंत्र है।

बनावट -- इस यंत्र के तीन आवश्यक अंग होते हैं : (१) दूर की वस्तु स्पष्ट देखने और दृष्टिरेखा के निर्धारण के लिये दूरबीन, (२) क्षैतिज कोण नापने के लिये अंश और प्रत्येक अंश दो, तीन या छ: विभागों में बँटा अंकित क्षैतिज वृत्त, तथा (३) ऊर्ध्व कोण नापने के लिये अंकित ऊर्ध्व वृत्त। ये दोनों वृत्त एक दूसरे के समकोण समतलों में सापेक्षत: स्थिर रहते हैं। लगभग बीस अन्य अवयव इन तीनों आवश्यक अंगों की सुरक्षा, कार्यक्षमता और सहयोग के लिये लगे रहते हैं। सक्षेप में थियोडोलाइट की बनावट निम्नलिखित है:

चित्र १. थियोडोलाइट

तीन क्षैतिजकारी पेंचों पर एक ऊर्ध्व नली टिकी होती है, जिसमें पड़ी एक खोखली तकली (spindle) अंकित क्षैतिज वृत्त कसा रहता है। तकली नली के भीतर घूम सकती है। इस खोखली तकली में पिरोई एक धुरी पर अंकित वृत्त की रक्षा के लिये, इसी के समांतर एक ढक्कन कसा रहता है, जिसमें १८०°के अंतर पर केंद्र के दोनों ओर दो खिड़कियाँ कटी रहती हैं और उनके साथ दो वर्नियर और उन्हें पढ़ने को सूक्ष्मदर्शी जुड़े रहते हैं। ये वर्नियर मुख्य मापनी नामक, अंकित क्षैतिज वृत्त में घूम सकते हैं और उसपर पाटयांक लेने की सुविधा प्रदान करते हैं। अंकित वृत्त की क्षैतिजता प्रमाणित करने के लिये ढक्कन (जिसे उर्ध्व प्लेट भी कहते हैं) के ऊपर एक, या एक दूसरे के समकोण पर दो, पाणसल (level tubes) लगे रहते हैं। इनके अतिरिक्त ढक्कन पर A आकार के दो स्तंभ लगे रहते हैं, जिनपर दूरबीन एक क्षैतिज धुरी में कसी हुई लटकी रहती है। इसी धुरी पर दूरबीन के एक ओर उर्ध्व अंकित वृत्त धुरी के अक्ष के समकोण पर दृढ़तापूर्वक कसा रहता है। इसके पाठ्य्ांक लेने के लिये १८०° के अंतर पर वर्नियर मापनी और सूक्ष्मदर्शी लगा रहता है। ऊर्ध्व कोण क्षैतिज समतल से नापे जाते हैं, अत: इन वर्नियरों के सूचकांक या शून्यांक जोड़नेवाली रेखा पाठ्य्ांक लेते समय क्षैतिज रखी जाती है। इस क्षितिज को देखने के लिये एक पाणसल लगा रहता है, जिसका अक्ष (नली के मध्य बिंदु पर स्पर्शी रेखा) वर्नियरों की शून्यांक रेखा के समांतर रहता है (देखें चित्र १.)।

दूरबीन में नेत्रिका (eye piece) और अभिदृश्य लेंस के बीच समकोण पर कटनेवाले क्रूस तंतुओंवाला मध्यच्छद (diaphragm) तलमापी लगा रहता है। नेत्रिका, अभिदृश्य लेंस के प्रकाशीय केंद्र और क्रूस तंतुओंे के छेदन बिंदुओं को जोड़नेवाली रेखा को दृष्टि रेखा, या अक्ष रेखा, कहते हैं। उपर्युक्त बनावट से स्पष्ट हो गया कि यंत्र के ऊपर दूरबीन ऊर्ध्व समतल में, और ऊर्ध्व प्लेट के साथ स्तंभों सहित क्षैतिज समतल में, घूम सकती है। इससे सहज कल्पना की जा सकती है कि दृष्टि रेखा किसी भी बिंदु पर इन दोनों गतियों का लाभ उठाकर सरलता से टिकाई जा सकती है। आवश्यक होने पर इन दोनों गतियों को रोकने के लिये संधर (clamps) रहते हैं। संधर कसने पर यदि बिंदु के प्रतिच्छेदन के लिये सूक्ष्म गति (very slow motion) देनी हो तो एतदर्थ सूक्ष्मगति पेच (tangent screws) लगे रहते हैं।

प्रेक्षण की सुविधा के लिये यंत्र के साथ एक तिपाई होती है, जिसपर यह कसा जा सकता है।

यंत्र के प्रकार -- कोई सैद्धांतिक भिन्नता के न होने पर भी मुख्यत: दो आधारों पर थियोडोलाइटों का वर्गीकरण हुआ है। प्रथम प्रकार के वर्गीकरण का आधार है, दूरबीन ऊर्ध्व समतल में पूरा चक्कर काट सकती है या नहीं। जिन यंत्रों में दूरबीन पूरा चक्कर काट सकती है उन्हें ऊर्ध्वाचल (transitting) और जिनमें वह पूरा चक्कर नहीं काट सकती उन्हें अनूर्ध्वाचल (nontransitting) थियोडोलाइट कहते हैं। प्राविधिक प्रगति के कारण दूसरे प्रकार के यंत्र अब प्रयोग में नहीं आते।

वर्गीकरण का दूसरा आधार है, यंत्रों में लगे अंकित वृत्त के विभाजन-अंश पढ़ने की सुविधा, जैसे वर्नियर थियोडोलाइट, जिसमें वृत्त के विभाजन अंश पढ़ने के लिये वर्नियर मापनी का प्रयोग होता है; माइक्रोमीटर थियोडोलाइट, जिनमें अंश पढ़ने के लिये सूक्ष्ममापी पेचों का प्रयोग होता है; काँच-चाप (glass arc) थियोडोलाइट, जिनमें काँच के अंकित वृत्त होते हैं और उनके पढ़े जानेवाले चापों के प्रतिबिंदु को प्रेक्षक के सामने लाने की प्रकाशीय सुविध की व्यवस्था होती है।

वर्नियर थियोडोलाइट ही सबसे पुरानी कल्पना है। पुरानी थियोडोलाइटों के अंकित वृत्त बड़े व्यास के होते थे, जिससे कुशल कारीगर इनपर भली प्रकार सही विभाजन कर सकें। इसका निर्माण डेढ़ सौ वर्ष से कुछ पहले भारतीय सर्वेक्षण विभाग के महासर्वेक्षक, कर्नल एवरेस्ट (इन्हीं के नाम पर संसार की सबसे ऊँची, पहाड़ की चोटी का नाम पड़ा है) ने कराया था। वह यंत्र आज भी उक्त विभाग के देहरादून स्थित संग्रहालय में रखा है१ इसके क्षैतिज वृत्त का व्यास एक गज है। काचचाप थियोडोलाइट के क्षैतिज वृत्त का व्यास लगभग २.५ इंच है। पहले पहल वर्नियर को ही व्यास के आधार पर बाँटा जाता रहा है जैसे १२'', १०'', ८'', ६'' एवं ५'' वर्नियर आदि।

वर्नियर की पठनक्षमता २० सेंकड (किसी किसी में १० सेकंड), माइक्रोमीटर की १० सेकंड यथार्थ और ३ सेंकंड संनिकट तक तथा काचचाप में एक सेकंड तक की है। काचचाप में कुछ विशेष प्रसिद्ध नाम है टैविस्टॉक (Tavistock.), वाइल्ड (Wild), तथा ज़ीस (Ziess) थियाडोलाइट।

यंत्र को प्रयोज्य करना -- जिस बिंदु पर अन्य बिंदुओं द्वारा निर्मित कोण ज्ञात करने होते हैं, उसपर तिपाई रखकर यंत्र कस दिया जाता है। ऊर्ध्व प्लेट वाली धुरी के नीचेवाले सिरे में एक काँटा लगा रहता है। उसमें एक डोरी से साहुल लटकाकर तिपाई के पैर इस प्रकार जमाए जाते हैं कि साहुल की नोक बिंदु को ठीक इंगित करे। इस क्रिया को केंद्रण कहते हैं। तदुपरांत नेत्रिका को आगे पीछे ऐसे घुमाया जाता है कि मध्यच्छद के क्रूस तंतु स्पष्ट दिखाई दें। फिर दूरबीन पर दिए फोकस पेंच को घुमाकर दूरबीन में दूर की वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिंब देखा जाता है। इस क्रिया को फोकस करना कहते हैं। फोकस तब सही माना जाता है जब नेत्रिका के पास आँख धीरे-धीरे ऊपर नीचे करने से प्रतिबिंब तंतुओं से हटता न दिखाई दे। इसे विस्थापनाभास मिटाना कहते हैं। इसके बाद क्षैतिजकारी पेंचों को समुचित रूप से घुमाकर ऊर्ध्व प्लेट पर लगे पाणसल का बुलबुला केंद्रित किया जाता है, जिससे प्लेट को घुमाकर किसी भी स्थिति में रखने से बुलबुला केंद्रित रहे। इस क्रिया को क्षैतिजीकरण कहते हैं। पुन: दूरबीन साधने के स्तंभ से लगे एक पेंच से ऊर्ध्ववृत्त के वर्नियरों पर लगे पाणसल का बुलबुला केंद्रित कर दिया जाता है।

उपर्युक्त क्रियाएँ करने के बाद दूरबीन को घुमाकर ऐसी स्थिति में रोका जाए कि ऊर्ध्व वृत्त पढ़ने की, वर्नियरों को शून्यांक रेखा, या निर्देशचिह्न-रेखा, ऊर्ध्व वृत्त की रेखा पर संपाती (coincident) हो जाए। तब यदि यंत्र पूर्णतया समंजित (adjusted) हो तो निम्नलिखित प्रमुख दशाएँ प्राप्त होती हैं :

(१) यंत्र का ऊर्ध्वाधर अक्ष साहुल रेखा पर संपाती होगा। यह नीचे बने स्टेशन बिंदु तथा अंकित क्षैतिज वृत्त के केंद्र से गुजरते हुए दूरबीन के क्षैतिज अक्ष और ऊर्ध्व प्लेट पर लगे पाणसल के अक्ष पर समकोण होगा।

(२) अंकित क्षैतिज वृत्त, दूरबीन की दृष्टिरेखा और ऊर्ध्व वृत्त के वर्नियरों की शून्यांक (निर्देश) रेखा एकदम क्षैतिज होगी।

यदि उपयुक्त संबंध स्थापित न हो तो यंत्र पूर्णतया समंजित नहीं है। यंत्र की बनावट में ऐसी सुविधाओं का समावेश रहता है कि इन संबंधों की परीक्षा हो सके और आवश्यक होने पर समंजन क्रिया जा सके।

चित्र २. में दिखाए अ बिंदु पर स्थापित यंत्र में उपर्युक्त दशाएँ प्राप्त होने पर, मध्यच्छद पर आ बिंदु का प्रतिबिंब प्रतिच्छेदित (intersect) करने के बाद, क्षैतिज वृत्त पर लिया पाठ्यांक (reading) वृत्त के शून्यांक से आ बिंदु की अ से क्षैतिज कोणीय दूरी बताएगा; और ऊर्ध्व वृत्त पर लिया गया पाठ्यांक क्षैतिज तल से आ की नति (inclination) बताएगा। इसी प्रकार के पठन यदि इ (C) बिंदु के प्रतिच्छेदन के बाद लिए जायँ और इ के क्षैतिज पाठ्यांक घटा दिए जाएँ तो Ð आ अ इ (Ð BAC) ज्ञात हो जाएगा। उदाहरणार्थ यदि आ और इ के पाठ्यांक क्रमश: १३६°२७' ३०'' और २१६°३७' ५०'' हों तो Ð आ अ इ = (२१६°३७' ५०'') - (१३६°२७' ३०'') = ८०°१०' २०'' होगा।

चित्र २.

प्रेक्षण लेने में ऊर्ध्व-वृत्त प्रेक्षक के दाईं या बाईं किसी भी ओर हो सकता है। यदि बाईं ओर हो तो वाम-पक्ष-प्रेक्षण और दाईं तरफ होने से दक्षिण-पक्ष-प्रेक्षण कहलाता है। यदि यंत्र में कुछ विशेष समंजन न भी हों तो दोनों पक्षों पर प्रेक्षण करके मध्यमान लेने से कुछ त्रुटियाँ कट जाती है।

सर्वेक्षण में यह यंत्र मुख्यत: त्रिकोणीय सर्वेक्षण और रेखामला में व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। [गुरुनारायण दूबे]