थियोसॉफिकल सोसाइटी एक अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिक संस्था है। थियोसोफी ग्रीक भाषा के दो शब्दों 'थियोस' तथा 'सोफिया' से मिलकर बना है जिसका अर्थ हिंदू धर्म की 'ब्रह्मविद्या', ईसाई धर्म के नोस्टिसिज्म अथवा इस्लाम धर्म के 'सूफीज्म' के समकक्ष किया जा सकता है। कोई प्राचीन अथव अर्वाचीन दर्शन, जो परमात्मा के विषय में चर्चा करे, सामान्यत: थियोसाफी कहा जा सकता है।
इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आइंब्लिकस (Iamblichus) ने ईसवी सन् ३०० के आसपास किया था। आइंब्लिकस प्लैटो संप्रदाय के अमोनियस सक्कस (Ammonias Saccas) का अनुयायी था। उसने सिमंदरिया के अपने 'सारग्राही मतवाद (Eclectic school) के प्रसंग में इस शब्द का प्रयोग किया था। इसके पश्चात् पाईथोगोरस के जीवनदर्शन में उसकीर शिक्षाओं के अंश उपलब्ध होते हैं।
थियोसॉफिकल सोसाइटी ने विध्वित् एवं सुनिश्चित परिभाषा द्वारा थियोसॉफी शब्द को सीमाबद्ध करने का कभी भी प्रयत्न नहीं किया। सोसाइटी के उद्देश्य में इस शब्द का उल्लेख तक नहीं है। समस्त धर्म एवं दर्शन का मूलाधार 'सत्य', थियोसोफी ही है। थियोसॉफिकल सोसाइटी वस्तुत: सब प्रकार के भेदभाव से रहित सत्यान्वेषी साधकों का एक समूह है।
सोसाइटी की स्थापना -- रूसनिवासी महिला मैडम हैलना पैट्रोवना ब्लैवैटस्की (H. p. Blavatsky) और अमरीका निवासी कर्नल हेनरी स्टील ओलकोट ने १७ नवंबर, सन् १८७५ को न्यूयार्क (अमरीका) में थियोसॉफिकल सोसाइटी की स्थापना की।
सन् १८७९ में सोसाइटी का प्रधान कार्यालय न्यूयार्क से बंबई (भारतवर्ष) में लाया गया। सन् १८८२ में उसका प्रधान कार्यालय अद्यार (मद्रास) में अंतिम रूप से स्थापित कर दिया गया। भारतवर्ष की राष्ट्रीय शाखा १८ दिसंबर, १८९० को अद्यार में स्थापित हुई। बर्टरम कैटले इसके प्रथम प्रधान मंत्री थे। सन् १८९५ में राष्ट्रीय शाखा का प्रधान कार्यालय वाराणसी लाया गया। श्री मूलजी थेकरसे इसके प्रथम भारतीय सदस्य थे। भारत आगमन के आरंभकाल में सोसाइटी ने आर्यसमाज के साथ मिलकर भारतवर्ष के सांस्कृतिक, धार्मिक पुनर्जागरण की योजना बनाई थी और कुछ समय तक संयुक्त रूप से कार्य भी किया था, परंतु बाद में दोनों संस्थाएँ पृथक् हो गईं। अद्यार स्थित कार्यालय के पास २६६ एकड़ भूमि है, जिसमें अनेक भवन एवं कार्यालय हैं। यहाँ का पुस्तकालय संसार के सर्वोत्कृष्ट पुस्तकालयों में गिना जाता है। इसमें १२००० तालपत्र की पांडुलिपियाँ, ६००० अन्य अति प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियाँ तथा ६० हजार से अधिक पुस्तकें हैं। ये पुस्तकें पाश्चात्य एवं भारतीय धर्म, दर्शन एवं विज्ञान विषयक हैं।
इसका मुखपत्र मासिक 'थियोसॉफिस्ट' है। इसकी स्थापना सन् १८७९ में मैडम ब्लैवेट्स्की द्वारा हुई थी।
इसके अध्यक्षों की परंपरा इस प्रकार है -- कर्नल आलकौट, श्रीमती ऐनी बेसैंट, श्री अरंडेल तथा सीo जिनराजदास। वर्तमान अध्यक्ष श्री नीलकंठन श्रीराम हैं।
सदस्य संख्या -- आरंभ में इसके सदस्यों की संस्था १६ थी। ग्रामोफोन के आविष्कारक टॉमस एडीसन आरंभिक १६ सदस्यों में से एक थे। मैडम ब्लैवेटस्की उन इनेगिने व्यक्तियों में थीं जिनकी आवाज को ग्रामोफोन में भरकर आरंभिक प्रदर्शन किए गए थे। आजकल इस संस्था की शाखाएँ, उपशाखाएँ ५५ देशों में हैं तथा इसके सदस्यों की संख्या ३५ हजार से अधिक हैं।
उद्देश्य -- आरंभ में थियोसाफिकल सोसाइटी का उद्देश्य विश्व के संचालित करने वाले नियमों के संबंध में ज्ञान का अर्जन एवं उसका वितरण था। सन् १८७५ से लेकर १८९६ तक की कालावधि में उद्देश्यों में कई बार परिवर्तन किया गया और सन् १८९६ में उद्देश्यों को निम्नलिखित वर्तमान रूप में निर्धारित किया गया।
यह सब प्रकार के भेदभावों से रहित सत्यान्वेषी साधकों की संस्था है, जिसका लक्ष्य बंधुत्व की प्रतिष्ठा द्वारा मानव समाज की सेवा करना है। इसके घोषित तीन उद्देश्य इस प्रकार हैं --
(१) मानव जाति के सार्वभौम मातृभाव का एक केंद्र बिना जाति, धर्म, स्त्री पुरुष, वर्ण अथवा रंग के भेदभाव को मानते हुए, बनाना।
(२) विविध धर्म, दर्शन तथा विज्ञान के अध्ययन को प्रोत्साहित करना।
(३) प्रकृति के अज्ञात नियमों तथा मानव में अंतर्हिंत शक्ति का शोध करना।
इसका लक्ष्य सत्य की खोज है, मूलमंत्र शांति है तथा इसका आदर्श वाक्य है, 'सत्य से श्रेष्ठतर कोई धर्म नहीं है।'
कतिपय सिद्धांत -- सोसाइटी के साहित्य में निम्न लिखित सिद्धांतों और विषयों की विशेष चर्चा की गई है।
१. एक सर्वव्यापी सत्ता है। वही समस्त सृष्टि का मूल स्रोत है। वह सब विश्व में ओतप्रोत है।
२. विकास-क्रम
३. कर्म सिद्धांत
४. पुनर्जनम
५. देवी-विधान
६. जीवन्मुक्त सिद्ध पुरुषों का अस्तित्व, जिन्हें सोसाइटी के साहित्य में 'मास्टर' के नाम से पुकारा गया है।
७. मनुष्य के सूक्ष्म शरीर और उनकी रचना।
८. मृत्यु और उसके पश्चात् की दशा।
९. आत्मोन्नति का मार्ग और मनुष्य का भविष्य।
१०. विचार और उनका प्रभाव।
विशेषता -- व्यक्तिगत मोक्ष अथवा निर्वाण पर बल न देकर सोसाइटी समाजसेवा पर बल देती है। दयादाक्षिण्य के अवतार बुद्ध एवं परदु:खकातरता के साकार स्वरूप रंतिदेव इसके प्रेरणास्रोत हैं। संसार के कर्मभार को हल्का करना इसके साधक सदस्यों के जीवन की चरम साधना है।
विचारस्वातंत्र्य इसकी आधारशिला है। यह वस्तुत: संस्थान होकर विश्वबंधुत्व का स्थूल प्रतीक है। संस्थापिता से लेकर आज तक किसी भी अधिकारी अथवा लेखक ने सदस्यों के ऊपर कोई मान्यता अथवा राय लादने का प्रयत्न नहीं किया है। प्रत्येक व्यक्ति को, सोसाइटी के सदस्य को भी, यह अधिकार है कि वह प्रत्येक मान्यता का परीक्षण करे, उचित प्रतीत होने पर वह इसे स्वीकार करे अथवा निस्संकोच भाव से अस्वीकार कर दे।
सन् १९२४ तथा १९५० में इसकी जनरल कोंसिल ने विचारस्वातंत्र्य संबंधी प्रस्ताव पारित करके इस बात पर पूरा बल दिया है कि किसी भी सदस्य को कोई भी सिद्धांत अथवा मतवाद अनिवार्य रूप से स्वीकार नहीं होना चाहिए। इसके तीन उद्देश्यों की स्वीकृति इसकी सदस्यता के लिये पर्याप्त है। प्रत्येक सदस्य को अधिकार है कि वह चाहे जिस धर्म, दर्शन, गुरु, संस्था, मतवाद आदि से अपने आपको संबद्ध रखे।
चूँकि यह संस्था प्रत्येक सदस्य को मन, वचन और कर्म की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है, इसलिये यह अपने रूप को स्पष्ट और पृथक् रखना चाहती है। फलत: न तो यह अन्य किसी संस्था को अपना अंग बनाती है और न किसी अन्य संस्था के साथ किसी प्रकार का संबंध या समझौता ही स्थापित करती है।
सोसाइटी का विशेष चिह्न अथवा मोहर -- उद्देश्यों एवं मान्यताओं के अनुरूप ही सोसइटी की मोहर है; (चित्र देखो) --परस्पर मिले हुए इन दो त्रिभुजों के द्वारा षट्कोण ग्रह बनता है। उत्तर की ओर शीर्षवाला त्रिभुज आध्यात्मिक जगत् का प्रतीक है और दक्षिण की ओर शीर्ष वाला त्रिभुज भौतिक (जड़) जगत् का प्रतीक है। भारतवर्ष में इसे विष्णु की मुद्रा तथा पश्चिम में इसे सुलेमान की मोहर (Solomon's seal) और डेविड की मुद्रा (David's shield) कहते हैं।
इसके चारों ओर लिपटा हुआ सर्प जीवन की अमरता का प्रतीक है। यह अपने मुख द्वारा अपनी पूछ को काटता है। यह ज्ञान का सर्प है जो कभी भी नष्ट नहीं होता।
ऊपर छोटे से वृत्त में स्वस्तिक का चिह्न भी इसी प्रकार अनंत के ज्ञान का प्रतीक है।
लंब मस्तिष्क का प्रतीक है, तथा समानांतर रेखा जिस पदार्थ की प्रतीक है। ये दोनों 'न' बिंदु पर मिलते हैं। वह 'जीवन' का प्रतीक है, जहां प्राणी अनुभव प्राप्त करता हुआ जीवन और जगत् से शिक्षा ग्रहण करता है।
क्रासॅ (+) विकास का माध्यम है। इसी का दूसरा नाम शूली पर चढ़ना अथवा इंद्रियों को वश में करना है। कहीं कहीं क्रॉस को स्वस्तिक के चिह्न की भाँति भी बना देते हैं। तब यह जीवन की गति का भी द्योतक बन जाता है।
सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात् (+) का स्वरूप ( ा�) होता है। इसका अर्थ यह होता है कि 'कर्मफल' अपने हाथ में नहीं है -- उसका हिसाब स्वर्ग में है -- इस प्रकार वह साधक को प्रेरणा देता है कि 'ज्ञानमातंड की ओर देखो और आगे बढ़ते जाओ।' इस मुद्रा में क्रॉस (+) इसी रूप ( ा�) में अंकित है।
इसके ऊपर 'ॐ' तथा नीचे ये शब्द अंकित रहते हैं -- सतयान्नास्ति परो धर्म:।
उपसंहार -- सोसाइटी के लिये महत्वपूर्ण है केवल सत्यान्वेषण। उसके लिए व्यक्ति सर्वथा गौण है। व्यक्ति के संमान अथवा उसके विरोध के लिये उसमें कोई स्थान नहीं है। इसने अनेक सुविख्यात, महत्वपूर्ण और विभिन्न विचारधारावाले व्यक्तियों को प्रभावित किया है।
सांस्कृतिक दृष्टि से इस संस्था द्वारा प्रचारित चिंतनपद्धति विज्ञान, धर्म और दर्शन के संश्लेषण द्वारा आत्मचेतना के विकास की प्रेरणा प्रदान करती है। सोसाइटी का लक्ष्य ऐसे मानव समाज का निर्माण करना है जिसमें सेवा, सहिष्णुता, आत्मविश्वास और समत्व भाव स्वयंसिद्ध हों। [ राo प्रo चo ]