त्वरालेखन लिखने और बोलने की गति में अंतर है। साधारण तौर पर ज़िस गति से कुशल से कुशल व्यक्ति हाथ से लिखता है, उससे चौगुनी, पाँचगुनी गति से वह संभाषण करता है। ऐसी स्थिति में वक्ता के भाषण अथवा संभाषण को लिपिबद्ध करने में विशेष रूप से कठिनाई उपस्थित हो जाती है। इसी कठिनाई को हल करने के लिये त्वरालेखन के आविष्कार की आवश्यकता पड़ी। हिंदी भाषा और भारत की अन्य प्रांतीय भाषाओं में त्वरालेखन का आविष्कार बहुत बाद में हुआ। वास्तव में विदेशी शासन के अधीन होने के कारण हमारे देश की न तो कोई राजभाषा थी, और न कोई प्रांतीय भाषा ही अपने प्रांत में सरकारी कामकाज में विशेष महत्व प्राप्त कर सकी थी। इसलिये हिंदी टंकण की तरह, हिंदी त्वरालेखन की मूल प्रेरणा अंग्रेजी शार्टहैंड से ही प्राप्त हुई।
हमारे यहाँ त्वरालेखन के विकास की एक कथा है कि जब वेदव्यास महाभारत लिखने के लिये बैठे तब उनके संमुख यह समस्या उपस्थित हुई कि इस विशाल महाभारत को कौन लिपिबद्ध करेगा। निदान गणेश जी इस दुष्कर कार्य के लिये कटिबद्ध हुए। भगवान् वेदव्यास धाराप्रवाह बोलते जाते और गणेश जी उसे लिपिबद्ध करते जाते थे। किंतु यह हुई पौराणिक बात त्वरालेखन की। संसार की भाषाओं में त्वरालेखन का प्रयास प्राय: रोम साम्राज्य में ईसा पूर्व ६३ में हुआ। रोम के सीनेट में सिसरो आदि के भाषणों को नोट करने के लिये मार्कस टुलियस टिरो (Marcus Tullius Tiro) ने त्वरा लेखन की एक प्रणाली का आविष्कार किया, जिसे टिरोनियन नोटे कहा जाता था। इस प्रणाली का प्रचलन रोम साम्राज्य के पतन के पश्चात् कई शताब्दियों बाद तक रहा। इसके साथ ही ईसा की चौथी शताब्दी में ग्रीस में त्वरालेखन का आविष्कार हुआ जिसका प्रचलन आठवीं शताब्दी तक रहा।
वर्तमान त्वरालेखन का जन्मस्थान इंगलैंड है। रानी एलीजाबेथ के समय में ब्राइट्स सिस्टम (Brights System) नामक शार्टहैंड का आविष्कार हुआ। फिर सन् १६३० ईo में टामस शेलटन ने त्वरालेखन पर एक पुस्तक प्रकाशित कराई। इसके पश्चात् सन् १७३७ ईo में डॉo जान बायरन ने त्वरालेखन की एक पुस्तक यूनिवर्सल इंगलिश शार्ट हैंड नामक प्रकाशित कराई। किंतु इन सभी पद्धतियों में लघुप्राण अक्षरों को हटाकर तथा कुछ अन्य अक्षरों को शब्दों के बीच में से निकालकर संक्षिप्त किया जाता था, इससे वक्ता के भाषण को नोट करने में सहूलियत हो जाती थी। लेकिन इसके साथ ही ध्वनि के आधार पर लिखने का भी प्रयास होता रहा।
ध्वनि पद्धति (Phonetic System) सर आइजक पिटमैन की पुस्तक स्टेगोग्राफिक साउंड हैंड (Stenographic Sound hand) सन् १८३७ ईo में प्रकाशित हुई। इस पद्धति में स्वर और व्यंजनों को अलग अलग चिह्नों से निर्धारित किया गया। साथ ही संक्षिप्त करने का भी एक नियम बनाया गया। इस पद्धति का विकास होता गया और आगे चलकर यह प्रणाली बहुत ही उपादेय सिद्ध हुई। अंग्रेजी में पिटमैन्स प्रणाली का ही विशेष प्रचलन है।
हिंदी त्वरालेखन आर्थिक दृष्टि से लाभजनक न होने तथा ब्रिटिश भारत में हिंदी का महत्वपूर्ण स्थान, सरकारी कार्यालयों में न होने के कारण त्वरालेखन के अन्वेषण के विषय में प्रयास अपेक्षाकृत काफी विलंब से हुआ। किंतु फिर भी त्वरालेखन के आविष्कार के लिये यदाकदा प्रयत्न होते रहे। स्वाधीनताप्राप्ति के लिये किए जानेवाले आंदोलनों के समय, हिंदी में हुए नेताओं के भाषणों को ब्रिटिश भारत की सरकार नोट कराती थी, जिससे वह सरकार के विरुद्ध प्रकट किए गये आपत्तिजनक विचारों के लिए नेताओं को उत्तरदायी ठहरा सके। उस समय अंग्रेजी के पिटमैन शार्टहैंड के ही आधार पर, अभ्यास के बल पर, भाषणों के नोट लिए जाते थे, किंतु साथ ही हिंदी के त्वरालेखन की नींव पड़ गई थी। सन् १९०७ ईo में काशी नागरीप्रचारिणी सभा ने श्री निष्कामेश्वर मिश्र, बीo एo, एलo टीo की 'हिंदी' शार्टहैंड नामक पुस्तक प्रकाशितकी, जो हिंदी त्वरालेखन में अपने विषय की सर्वप्रथम महत्वपूर्ण पुस्तक है। श्री मिश्र महोदय ने बड़े परिश्रम से हिंदी शार्टहैंड की जो पुस्तक तैयार की, वह उनकी अभूतपूर्व सूझ का परिणाम तो थी ही, साथ ही उससे हिंदी त्वरालेखन सीखनेवालों के लिये एक समुचित मार्ग मिल गया। इसके पहले हिंदुस्तानी भाषा को नोट करने के लिये उर्दू त्वरालेखन की जो पद्धति प्रचलित हुई थी उसमें कठिन परिश्रम के पश्चात् साल डेढ़ साल में एक सौ शब्द प्रति मिनट की गति से लिखा जा सकता था। लेकिन श्री मिश्र जी की निष्कामेश्वर प्रणाली से पाँच सात महीने के अभ्यास से ही सौ शब्द प्रति मिनट की गति से लिखा जाने लगा।
हिंदी त्वरालेखन में अन्य सज्जनों के प्रयास भी जारी रहे इस दिशा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य किया इलाहाबाद के श्री ऋषिलाल अग्रवाल ने। ऋषि प्रणाली उन्हीं का आविष्कार है। इस प्रणाली के आविष्कार के पूर्व हिंदी में त्वरालेखन का प्रचार हो चुका था। इसलिये हिंदी त्वरालेखन के क्षेत्र में आई असुविधाओं को समझकर उनके निराकरण का प्रयत्न श्री ऋषिलाल अग्रवाल ने किया। इस प्रणाली की सर्वाधिक विशेषता यह रही है कि व्यंजनों की रचना अधिकतर ज्यामिति की सरल रेखाओं को लेकर की गई है और जहाँ सरल रेखाओं से काम नहीं चला, वहाँ पर वक्र रेखाओं को लिया गया, लेकिन ये वक्र रेखाएँ भी लहरदार या मनमाने ढंग से न लेकर वृत्त के आधार पर ली गई हैं।
इस तरह त्वरालेखन की ऋषि प्रणाली के वर्णाक्षरों की रूपरेखा इस प्रकार हैं --
क ख ग घ
च छ ज झ
न थ द ध
प फ ब भ
य र र ल व
स स ह ह म म न न
ड़ ड़ ढ़ ढ़ ङ
चित्र १.
इसमें त वर्ग के व्यंजन तथा स ह म न र के व्यंजन जुड़वाँ हैं, उनकी दो दो आकृतियाँ हैं, जो सुविधा के अनुसार काम में आती हैं।
स्वरों के लिये बिंदुओं और डैश का प्रयोग किया जाता है। दीर्घ प्राण स्वरों के लिए मोटे बिंदु और मोटे डैश तथा लघुप्राण स्वरों के लिए हलके बिंदु तथा हलके डैशों का प्रयोग किया गया है, यथा दीर्घप्राण स्वरों के प्रयोग की विधि
अ आ (१)
ए आ (२)
ई ऊ (३)
चित्र २.
इन्हें याद करने के लिये एक वाक्यांश निर्धारित किया गया है -- अरे री माँ चोर कूद गया। इसमें क्रम से अ ए ई आ ओ ऊके दीर्घ प्राण स्वर आ गए हैं। लघुप्राण स्वरों के लिये हलके बिंदु और हलके डैश काम में लाए गए हैं, यथा
ऐ आइ या आई (१)
औ अं (२)
इ उ (३)
चित्र ३.
इन्हें याद करने के लिये जो वाक्य बनाया गया है, वह है 'ऐ औरत इस साइत अंचल उलट'। इसमें क्रम से ऐ औ इ आइ अं उ स्वर आ गए हैं।
व्यंजनों में इन स्वरों को इस रूप में लगाया जाता है जिसमें स्थानविशेष से उनके अर्थ का बोध हो जाय। जैसे अ ए ई तीनों स्वरों के लिए केवल एक मोटा बिंदु प्रयुक्त किया गया है, लेकिन व्यंजनों में स्थानभेद से ये अपना अर्थ प्रकट करते हैं जैसे --
अक एक ईक के की
(नोट : ्ह्रसव स्वर अ व्यजनों में मिला रहता है)
चित्र ४.
व्यंजन के प्रथम स्थान पर वही स्वर अ का बोध देता है, बीच मे ए का और अंत में ई का बोध होता है। व्यंजन के पहले प्रयोग में लाने से उसका उच्चारण व्यंजन के पहले किया जाता है, और व्यंजन के बाद प्रयोग में लाने पर उसे व्यंजन में मिलाकर पढ़ा जाता है।
इसी तरह हिंदी में द्विध्वनिक मात्राओं और त्रिध्वनिक मात्राओं का भी प्रयोग होता है -- जैसे बूआ, सोई, आइए, बोआई, पिआऊ आदि में। इनमें क्रमानुसार प्रथम दो शब्दों में दो स्वर एक साथ प्रयुक्त हुए है और अंतिम तीन शब्दों में तीन स्वर एक साथ आये हैं। इनमें प्रयुक्त चिन्हों के उदाहरण इस प्रकार हैं --
बाँया द्विध्वनिक दाँया त्रिध्वनिक
जाओ जाइये
चित्र ५.
त्रिध्वनिक स्वर बनाने के लिये द्विध्वनिक में एक डैश और जोड़ देते हैं (देखें चित्र ५ का दाहिना भाग)। त्वरॉलेखन में जब गति के साथ लिखा जाता है, उस समय इन स्वरों का प्राय: लोप कर लेते हैं और स्थानविशेष से ही बोध होता है कि कौन स्वर इसमें प्रयुक्त है।
प्रथम स्थान के स्वरों के लिये व्यंजन को लाइन के ऊपर, द्वितीय स्थान के स्वरों के लिये पंक्ति पर और तृतीय स्थान के स्वरों के लिये लाइन काटकर लिखा जाता है। तवर्ग और स में जो दोहरे व्यंजन हैं उनमें बायाँवाला व्यंजन इस्तेमाल करने से व्यंजन के पहले स्वर लगा बोध होता और दायाँवाला व्यंजन प्रयोग करने से व्यंजन के बाद स्वर का बोध होता है।
व्यंजनों में कुछ का रूप बदल जाता है जैसे स श को एक छोटे वृत्त o से भी प्रयुक्त करते हैं। यह वृत्त तभी प्रयोग में लाया जाता है जब किसी व्यंजन के पहले या बाद में स या श आता हो जैसे चित्र ६, ऊपर की पंक्ति।
किंतु स या श के पहले कोई मूल स्वर रहने से पूरे स या श का व्यवहार किया जाता है जैसे चित्र ६, नीचे की पंक्ति।
शाम मास कासनी
आसामी नासा
चित्र ६.
स के वृत्त को डबल कर देने से इसमें सह या स्व संयुक्त मान लिया जाता है। जैसे --
स्वागत स्वामी शहर
चित्र ७.
त के लिये सरल व्यंजनों के भीतर घुमावदार आँकड़ा जोड़ा जाता है तथा वक्र व्यंजनों के भीतर घुमावदार आँकड़ा बनाकर एक छोटा सा डैश भी लगा दिया जाता है, जैसे चित्र ८, ऊपर की पंक्ति।
इसी प्रकार सरल व्यंजनों के अंत में बायें तरफ एक घुमावदार आँकड़ा जोड़ने से और वक्र व्यंजनों में भीतर की तरफ एक हुक लगाने से न का बोध होता है जैसे चित्र ८, नीचे की पंक्ति।
पत सत पोत सात पतला
गन सन कान सान
चित्र ८.
सरल व्यंजनों के प्रारंभ में बाईं तरफ एक घुमावदार आँकड़ा लगाने तथा वक्र व्यंजनों में प्रारंभ में एक घुमावदार हुक लगाने से नीचे का र लटकन, रेफ या ऋ की मात्रा पढ़ी जाती है। जैसे --
र - लटकन : क्रम श्रम प्रसाद प्राण
र - रेफा : कर्म नर्म धर्म जर्मन
ऋ की मात्रा : बृटेन कर्क सृष्टि कृपा
चित्र ९.
सरल व्यंजनों के प्रारंभ में दाहिनी तरफ एक हुक लगाने से और वक्र व्यंजनों में र के हुक से दूने घेरे का हुक लगाने से ल का बोध होता है। जैसे --
ग्लोब तलक पैदल कौशल
व्यंजनों के प्रारंभ या अंत में एक छोटा चाप लगाने से स्त स्थ स्ट का बोध होता है। जैसे --
मस्त स्थान कष्ट दृष्टि
चित्र ११.
इसी चाप को जब बड़ा करके व्यंजनों के अंत में लगाते हैं तब दार, धार या त्र का बोध होता है जैसे --
हकदार मूसलाधार पत्र दुकानदारी
चित्र १२.
इस बड़े चाप को जब न के आँकड़े की ओर लगा देते हैं तो न का भी बोध होने लगता है जैसे -- दूकानदारी (चित्र १२)।
सरल या वक्र व्यंजनों को जब उनकी लंबाई का आधा कर देते हैं तो उसमें क या ट अथवा त का बोध होने लगता है और जब व्यंजनों को उनकी साधारण लंबाई का दूना कर देते हैं तो उसमें तर, दर या टर का बोध होने लगता है, जैसे --
निकट सीमिति बतक
पितर मादर डाक्टर निड
चित्र १३.
बार बार प्रयोग में आनेवाले शब्दों के लिये विशेष चिह्न निर्धारित कर दिए गए हैं। उन्हें शब्दचिन्ह (लोगो ग्राम्स) कहते हैं, जैसे
अर्थात् अतिरिक्त उदाहरण
चित्र १४.
हिंदी भाषा में प्रत्यय और उपसर्ग का काफी प्रयोग होता है। इनके लिये भी चिह्न निर्धारित कर लिए गए हैं और प्रत्यय अथवा उपसर्ग युत शब्द उसी से बनाये जाते हैं, जैसे --
आगार धंनागार कारागार शयनागार
चित्र १५.
उपसर्ग का भी एक उदाहरण दिया जा सकता है --
अप अपकीर्ति अपमान अपशब्द अपकार
चित्र १६.
हिंदी में वाक्यांशों का भी काफी प्रयोग होता है। उनके लिये भी कुछ शब्दों को लोप करके बना लेते हैं, जैसे --
मैं इस प्रस्ताव का अनुमोदन करता हूँ
मैं आपका हृदय से स्वागत करता हूँ
चित्र १७.
जुड़वे शब्दों को व्यक्त करने के लिये भी नियम बनाए गए हैं जैसे --
दिन ब दिन कम से कम आकाश पाताल दूर दूर
चित्र १८.
[हर्षनाथ]