त्रिकोणीय सर्वेक्षण (Triangulation) उस विधि का नाम है जिसमें ज्ञात दूरी पर स्थित किन्हीं भी दो बिंदुओं से किसी तीसरे ऐसे बिंदु की सही सापेक्ष स्थिति निर्धारित की जाए जो ज्ञात बिंदुओं के साथ सुघटित त्रिभुज बनाए और उस त्रिभुज के तीनों कोण ज्ञात कर लिए गए हों। यदि ऐसे त्रिभुज की एक, दो या तीनों भुजाओं पर क्रमानुगत त्रिभुज बनाते चले जाएँ और प्रारंभिक त्रिभुज की एक भुजा, उसके दोनों शीर्ष बिंदुओं के नियामक और बनाए गए सभी त्रिभुजों के कोण ज्ञात हों, तो ऐसी संपूर्ण त्रिभुज माला की भुजाओं की लंबाइयाँ और त्रिभुज बनानेवाले बिंदुओं के नियामक और बनाए गए सभी त्रिभुजों के कोण ज्ञात हों, तो ऐसी संपूर्ण त्रिभुज माला की भुजाओं की लंबाइयाँ और त्रिभुज बनानेवाले बिंदुओं के नियामक गणितीय कलन (computations) से ज्ञात किए जा सकते हैं। किसी भी क्षेत्र का मानचित्र बनाने के लिये इस प्रकार के बिंदु संपूर्ण क्षेत्र में समन रूप से बिखरें हुए स्थापित करना आवश्यक होता है। ऐसे बिंदुओं को सामूहिक रूप में सर्वेक्षण हेतु नियंत्रण ढाँचा और प्रत्येक बिंदु को अलग अलग सर्वेक्षण स्टेशन कहते हैं। सामान्यत:, जहाँ दो दूर के बिंदुओं के बीच सीधी दूरी नाप पाना संभव न हे, मगर वे आपस मे दृष्टिगत हों, वहाँ त्रिकोणीय सर्वेक्षण बड़ा लाभप्रद होता है।
कार्यप्रक्रिया -- त्रिकोणीय सर्वेक्षण के उपर्युक्त आधारभत सिद्धांतें के अनुकूल कार्यप्रक्रिया प्रधानत: चार भागों में बँट जाती है : (१) ऐसी त्रिभुजमाला बनाने के लिये स्टेशनों का चयन, जिससे सर्वेक्षण हेतु सारे क्षेत्र में समान रूप से बिखरे नियंत्रणबिंदु उपलब्ध हो सकें, (२) एक ऐसी भुजा प्राप्त करना जिसकी लंबाई ज्ञात हो तथा जिस पर प्रारंभिक त्रिभुज बनाया जाय और उसकी भुजाओं पर क्रमानुगत त्रिभुजों की जाली बुनी जा से, (३) बनाए गए त्रिभुजों पर क्रमानुगत त्रिभुजों शीर्षबिंदुओं पर बने क्षैतिज और ऊर्ध्व कोण नापना और (४) बिंदुओं के नियामकों का कलन।
सबसे पहला काम स्टेशनों का चयन और उन्हें चिह्नित करना हेता है। स्टेशन बिंदु ऐसे चुने जाते हैं जो आठ से अस्सी किलामीटर तक एक दूसरे से दूर हों ओर सुघटित त्रिभुजमाला बनाएँ। त्रिभुजमाला सामान्यत: तीन प्रकार की होती हैं। ये चित्र १. में दिखाई गई हैं। एक बिंदु पर मिलनेवाले त्रिभुज, या त्रिभुजों के दूसरे सिरों पर बने स्टेशन, परस्पर दृष्टिगोचर हों और ऐसे स्थल पर बने हों जिससे प्रत्येक त्रिभुज के शीर्षबिंदु पर कोणनापने का यंत्र, थियोडोलाइट, रखकर कोण पढ़े जा सकें। कोण एक ही बिंदु से और एक ही बिंदु को पढ़े जाए, इस सुविधा के लिए
चित्र - १
प्रत्येक स्टेशन को एक पत्थर पर बिंदु खोद कर चिह्नित कर देते हैं। बिंदु की स्थिति ठीक और सही पहचानने के लिये उसके चारों ओर एक वृत बना दिया जाता है। ऐसा स्थिर पत्थर यदि उस स्थल पर प्राकृतिक रूप से उपलब्ध न हो तो पत्थर अलग से लाकर ऐसे गाड़ दिया जाता है कि वृत और बिंदुवाली सतह पृथ्वी की सतह से मिली बाहर दिखाई देती रहे, जिससे सर्वेक्षण कितनी भी अवधि से बाद उस स्थान पर जाए तो स्टेशन को पहचानने में समर्थ हो। बहुधा सुरक्षा की दृष्टि से सर्वेक्षक दो पत्थरों पर वृत्त और केंद्रबिंदु बनाता है। एक को लगभग एक मीटर गहरा पृथ्वी के भीतर गाड़ देता है और दूसरा पृथ्वी की सतह पर ऐसे रखता है कि दोनों वृत्तों के बीच खुदे केंद्रबिंदु एक ही ऊर्ध्वाधर रेखा पर पड़ें। दूर से देखने की सुविधा के लिये स्टेशनों के आस पास कुछ संकेतचिह्न लगा दिए जाते हैं। इनमें से कुछ सामान्यत: प्रचलित, चित्र २. में दिखाए गए हैं।
जिस क्षेत्र
में सर्वेक्षण करना
हो उसमें यदि
दो बिंदु ऐसे
उपलब्ध हों जो
परस्पर दृष्टिगोचर
हों और उनके
नियामक ज्ञात
हों तो एक तीसरा
समुचित बिंदु
चुनकर प्रारंभिक
त्रिभुज उसपर बनाया
जा सकता है। किसी
भी त्रिभुजमाला
में आरंभ करने
के लिये एक भुजा
ज्ञात होना आवश्यक
है। ऐसी भुजा
को आधाररेखा
कहते हैं। आधार-रेखा
के सिरे के बिंदुओं
के नियामक ज्ञात
हों, तो गणना
द्वारा उसकी लंबाई
निकाली जा सकती
है। उदाहरणार्थ,
यदि उन बिंदुओं
के नियामक मूलबिंदु
(origin)
से उत्तर-दक्षिण रेखा,
कोटि (ordinate),
पर क्रमश: उ१ (N1),
उ२ (N2),
तथा पूर्व-पश्चिम
रेखा, भुज (abscisaa),
पर पू१ (E1),
पू२ (E2)
हों तो भुजा
की होगी।
उस भुजा का उत्तर
दिशा से दक्षिणवर्ती
कोण (clockwise
angle)
इस कोण की आवश्यकता नियामकों की गणना में होती है। इसे दिङ्मान (bearing) कहते हैं।
यदि ऐसे दो बिंदु उपलब्ध न हों तो आधार उसी समय नापकर स्थापित किया जाता है। इसके लिये सर्वेक्षक आरंभ करने वाले बिंदु के आसपास एक सुविधाजनक समतल भूखंड पर, यथार्थ माप देनेवाले फीते से, एक रेखा अ आ नापता है। आजकल मुख्यत: यह नाप फीते को रज्जुवक्र (catenary) में टाँग कर लेते हैं। फीते के सिरों के बीच यथार्थ क्षैतिज दूरी गणना द्वारा निकाल ली जाती है। उस पर क्रमश: ऐसे त्रिभुज बनाए जाते हैं कि पहले एक या दो त्रिभुजों को छोड़कर किसी भी त्रिभुज का कोई भी कोण २०°से कम न हो। आधार भुजा से आरंभ करते समय दो कोण इ और ई ३°तक के ले लिए जाते हैं। मगर इन्हें आवृत्ति विधि (method of repetition) से बहुत ही यथार्थ नापते हैं।
चित्र ३
यह कोण थियोडोलाइट नामक यंत्र से नापते हैं। आधार बिंदुओं से आरंभ करके क्रमश: सभी स्टेशन बिंदुओं पर थियोडोलाइट केंद्रित करके कोण पढ़ लिए जाते हैं। जैसे जैसे त्रिभुजमाला के एक एक त्रिभुज या चतुर्भुज के सारे कोण पूरे हो जाते हैं, सर्वेक्षक ज्यामितीय संबंधों, जैसे त्रिभुज के तीनों कोण (१८०°) या चतुर्भुज के चारों कोण (३६०°), की जाँच करता जाता है। पृथ्वी की सतह गोलाकार होने के कारण त्रिभुज बहुत बड़े होने पर उसके कोणों का योग १८०° से अधिक हो जाता है। इस प्रकार की बढ़ती को गोलीय आधिक्य (spherical excess) कहते हैं। ७५ वर्ग मीलवाले त्रिभुज में यह आधिक्य १'' होता है। प्रेक्षण त्रुटियों और गोलीय आधिक्य का शोधन करके गणना में कोण प्रयुक्त होते हैं।
प्रेक्षण समाप्त होने
पर प्रारंभिक
त्रिभुज की आधार
भुजा और नापे
गए कोणों का
प्रयोग कर त्रिकोणमितीय
सूत्र
श्
से
सभी भुजाओं
की लंबाइयाँ
ज्ञात हो जाती
हैं। तदुपरांत
नियामक निकालने
के लिये ज्ञात बिंदु
या बिंदुओं से
अज्ञात बिंदु को
जोड़ने वाली
रेखा या रेखाओं
के दिङ्मान,
जिसका उल्लेख पहले
हो चुका है, निकाल
लिए जाते हैं। ज्ञात
बिंदु या बिंदुओं
से अज्ञात बिंदु की
दूरी द (d)
और को (b)
दिङ्मान ज्ञात
होने से उसके
नियामक उ+द
कोज्या को और
पू+द
ज्या को ज्ञात किए
जा सकते हैं। ये
आयताकार नियामक
कहलाते हैं। यदि
ऊर्ध्व कोण भी
क्षैतिज प्रेक्षण
के साथ पड़ जाएँ
तो अज्ञात बिंदु
की ऊँचाई ऊ+
द स्प न होगी। उपर्युक्त
समीकरणों में
उ, पू और ऊज्ञात
बिंदु की क्रमश:
उत्तरायण तथा
पूर्वायण ऊँचाइयाँ
हैं और द एवं
न क्रमश: अज्ञात बिंद
की दूरी और
नतिकोण हैं।
पृथ्वी को गोलाभ
मानकर बिंदुओं
के भौगोलिक
नियामक, अर्थात्
अक्षांश और देशांतर,
भी निकले जा
सकते हैं।
यदि त्रिकोणीय सर्वेक्षण आरंभ करने के लिए केवल एक बिंदु ज्ञात हो तो दूसरे चुने गए स्टेशन की ज्ञात स्टेशन की ज्ञात स्टेशन से दूरी फीते से आधाररेखा नापकर, प्रसारित आधार जाल द्वारा निकालते हैं। दिङ्मान ध्रुवतारा और सूर्य आदि के खगोलीय प्रेक्षणों से ज्ञात करते हैं।
यदि किसी क्षेत्र में सर्वेक्षण पहली बार आरंभ हो रहा हो, जहाँ काई भी बिंदु ज्ञात न हो तो कुछ दिन तक निरंत खगोलीय प्रेक्षण करके एक बिंदु के नियामक निर्धारित करते हैं। रात के समय स्वच्छ आकाश को दिन प्रति दिन देखने से विदित होगा कि बहुतेरे पहचानने योग्य चमकीले तारे समान रूप से एक गोले की सतह पर तैरते से दिखाई देते हैं। उनके उदय और अस्त भी नियमित रूप से होते देखे जाएँगे। ऐसे गोले को भी पृथ्वी की भाँति याम्योत्तरों और समांतरों से बँटे होने की ग्राह्य कल्पना की जा सकती है, जो गणितीय सूत्रों का पालन करती है। इन तथ्यों का लाभ उठाकर सर्वेक्षक तारों का प्रेक्षण करके प्रेक्षण स्टेशन के नियामक निकालने में सफल हो जाता है। उससे और नापी हुई अधाररेखा से त्रिकोणीय सर्वेक्षण किया जा सकता है। [गुरुनारायण दूबे]