तोपखाना में २० मिमीo, या ०.८ इंच, से अधिक व्यास के नालछिद्रवाले सभी अग्न्यस्र तोप आदि, इन अस्त्रों के परिवहन और इनका परिचालन करनेवाले व्यक्ति तथा उनकी सभी सहायक सामग्री भी सम्मिलित हैं। इसके तीन विभाग हैं : (१) शीघ्र संचरण के लिये अभिकल्पित चल तोपखाना, (२) अचल तोपखाना, अर्थात् वे भारी तोपें जिन्हें स्थापित करने के बाद प्राय: हटाया नहीं जाता, और (३) रॉकेट तथा रॉकेट प्रक्षेपक। पहाड़ी तोपखाना तथा टैंक और वायुयान में प्रयुक्त अस्त्र तथा टैंकनाशी और हवामार तोपें क्षेत्रीय तोपखाने के अंतर्गत आते हैं। शीघ्र संचरण की दृष्टि से पुराने अचल किस्म के अस्त्र अब लुप्त हो चले हैं।
एक दूसरी नामकरणपद्धति के अनुसार उपर्युक्त चल और अचल अस्त्रों को तोप, हाउत्सर (Howitzer), मॉर्टर, और रॉकेट-प्रक्षेपक में विभक्त किया जाता है। तोप लंबी नाल, अधिक परास और अपेक्षाकृत सपाट प्रक्षेपपथ (trajectory) वाला अस्त्र है, हाउत्सर छोटी नाल और वक्र प्रक्षेपपथवाला तथा मॉर्टर बहुत छोटी नाल, कम परास और कैंची मोड़ प्रक्षेपपथ का अस्त्र है। रॉकेट और रॉकेट प्रक्षेपक के अंतर्गत बैज़ूका (Bazooka) से लकर आधुनिक युद्धों में काम आनेवाले बड़े बड़े अस्त्र तक आते हैं।
इतिहास
ऐसा समझा जाता है कि रॉकेट का प्रयोग सर्वप्रयम चीनियों ने किया था। भारत में सर्वप्रथम तोपखाने का प्रयोग बाबर ने १५२६ ईo में किया। पर आधुनिक तोपखाने का व्यवस्थित विकास पाश्चात्य देशों में ही हुआ। तोपखाने का आविष्कार होने के पहले फ्रांस और इंग्लैंड में केवल धनुष, बाण और यांत्रिक साधनों से शिलाखंडों का प्रक्षेपण ही किया जाता था।
जर्मनी के बर्थाल्ड श्वॉर्त्स (Berthold Schwarz) नामक भिक्षु ने १३१३ ईo में तोप का आविष्कार किया। १२३२ ईo में चीनियों ने मंगोलयुद्ध में जिन रॉकेट और रॉकेट प्रक्षेपण युक्तियों का प्रयोग किया था, वे आधुनिक तोपखाने के प्राचीनतम रूप थे।
प्रारंभिक तोपखाना (१४वीं शताब्दी) -- धातु से बनी तोप का प्रथम उल्लेख इटली में १३२६ ईo में मिलता है। प्राचीन काल में तोप की नली लंबी होती थी, जिसमें पीछे के भाग से बारूद भरकर डाट से छेद बंद कर दिया जाता था। ढले हुए काँसे की भी तोपें बनती थीं जिन्हें आगे के भाग से भरा जाता था। धातुनिर्मित बाण या शल्य (dart) ही गोले का काम करता था। इस अस्त्र की दक्षता सर्पेटाइन नामक विशेष प्रकार की महीन बारूद पर निर्भर थी, जिसका प्रयोग अनुभवी तोपची ही कर सकते थे। तोपची की थोड़ी सी असावधानी से तोपकर्मी (crew) और स्वयं तोपची उड़ जाता था। विभिन्न घनत्व के अवयवों से बना होने के कारण, दूसरे स्थान पर स्थानांतरण से बारूद विघटित हो जाती थी और तब शत्रु की आग उगलती हुई बंदूकों के सामने बारूद को मिश्रित करना पड़ता था।
ऊँचागोला फेकनेवाली छोटी नली की तोप (१४वीं शताब्दी)।
१५ वीं शताब्दी -- शताब्दी में सर्पेंटाइन बारूद में बहुत सुधार किया गया। विभाज्य बारूद के स्थान पर दानेदार (corned grains) बारूद बनने लगी। शताब्दी का अंत होते होते तोपखाने में आधे या ३/४ आउंस से लेकर ३०० पाउंड तक के गोले फेंकनेवाले शस्त्रों का समावेश हो गया। कहा जा सकता है कि इसी शताब्दी में चल तोपखाने का रूप भी प्रकट होने लगा था। शस्त्रों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक शीघ्र ले जाने के लिये पहिएदार वाहनों पर चढ़ाकर घोड़ों से खिंचवाते थे। यह परिवर्तन पहले फ्रांस में हुआ। बाद में तोप की नली आरोप्य से बाँध दी जाती थी, जिससे तोप का आघात गाड़ी में चला आता था। तोप की मार की परास को ठीक करने में इससे सहायता मिली।
१. १४वीं शताब्दी का बंबार्ड (पत्थर तथा अन्य अस्त्र प्रक्षिप्त करनेवाली भारी तोप) तथा २. साधारण तोप।
१६वीं शताब्दी -- १५०९ ईo में फैरारा (Ferrara) के छोटे ड्यूक ने वेनिस के बेड़े को नष्ट किया, जिससे तोप की प्रतिष्ठा सामान्य रूप से बहुत बढ़ गई। किंतु इस शताब्दी के मध्यकाल में तोपों के व्यास (Calibre) और विविधता के कारण बड़ी अव्यवस्था हो गई। १५४४ ईo में स्पेन के पंचम चार्ल्स ने आज्ञप्ति द्वारा स्पेन की सेना में केवल सात प्रकार की तोपों का उपयोग करने की स्वीकृति दी। १५१५ ईo में फ्रांस के द्वितीय हेनरी ने व्यासों की संख्या छह तक सीमित कर दी, जिनमें ८,००० पाउंड भार की सबसे भारी तोप २१ घोड़ों से खिंचवाई जाती थी और सबसे हलकी, केवल दो घोड़ों से खींची जानेवाली तोप, दो पाउंड का गोला फेंक सकती थी। १६३३ ईo तक तोप के भार में ४०० पाउंड की वृद्धि होने से तोप का परिवहन कठिन समस्या बन गया था, क्योंकि इस भार को खिंचवाने के लिये २५ घोड़ों की आवश्यकता पड़ती थी।
तोपगाड़ियों के अग्रभाग के जुए की गाड़ियों की एकरूपता, अतिक्ति पुर्जों एवं देखभाल की सुविधाओं का अभाव आदि इस समय की प्रमुख बाधाएँ थीं। उपयुक्त नोदक प्रभार की समस्या अब भी बनी हुई थी। इंग्लैंड के अष्टम हेनरी ने तोप ढालने की विधि में सुधार किया। गोले का प्रयोग भी पहली बार उसी ने किया, जो अब सुधरते सुधरते आधुनिक उच्च विस्फोटक गोले का रूप धारण कर चुका है। नेपोलियन के कथनानुसार जर्मनी में १५५०-१५६० ईo के बीच ११ प्रकर की चल तोपें थीं, जो एक पाउंड से लकर ९४ पाउंड तक के गोले छोड़ती थीं। इस शताब्दी में निकोलो टारटाग्लिया (Niccolo Tartaglia) के अनुसंधानों से आधुनिक प्राक्षेपिकी (Ballistics) का सूत्रपात हुआ। यह उसी का आविष्कार था कि तोप के गोले का प्रक्षेपपथ परवलयिक होता है, सीधी रेखा नहीं।
१७वीं शताब्दी -- सरपेंटाइन बारूद के प्रयोग के लिये लंबी नाल आवश्यक होती थी, किंतु दानेदार बारूद के बनने पर नाल की लंबाई कम करना भी संभव हुआ। नोदक (propellant) की शक्ति में वृद्धि होने पर तोपगाड़ी की टेक पर आघात बढ़ा, जिसके दबाव से टेक टूट जाती थी।
स्वीडन के गस्तावस ऐडॉल्फस (Gustavus Adolphus) ने १६२६ ईo में तोप का भार कम करने का बहुत प्रयत्न किया। उसने तोप को इतना हल्का बनाया कि उसका परिवहन अत्यंत सरल हो गया और दो व्यक्तियों से उसका परिचालन हो सकता था। लेकिन इसमें बहुत बड़ी असुविधा यह थी कि हलकी होने के कारण तोपें बड़ी सरलता से गरम हो जाती थीं। फलत: दूसरे राउंड का नोदक तोप में रखते रखते ही विस्फोटित हो जाता था। इसलिये तोप को और हलकी करने का प्रयास छोड़ देना पड़ा।
फ्रांस के अनेक जिलों में निजी तोपखाने होते थे, जो दूसरे जिले के तोपखानों से भिन्न होते थे। अत: तोपखानों का मानकीकरण असंभव था। पर सभी जिलां के नोदक प्राय: एक से ही होते थे।
१८वीं शताब्दी -- १७३२ ईo में फ्रांस ने लगभग २४ पाउंड के गोले उगलनेवाली तोपों का निर्माण बंद कर दिया और तोप गढ़ने की एक सी विधियों के प्रयोग की आज्ञा हुई। इंग्लैंड में १७४२ ईo में बेंजामिन रॉबिंज़ (Benjamin Robins) ने तोप-विज्ञान के आधुनिक सिद्धांतों की नींव डाली, जिनसे तोपची प्रक्षेप्य के नालमुख वेग को माप सकते थे। जर्मनी में फ्रेडरिक महान् के नेतृत्व में १७५९ ईo में पैदल सेना के अनुपात में तोपों की वृद्धि हुई और अश्वारोही तोपचियों की स्थापना हुई। इनमें तोपें घोड़ों पर लदी रहती थीं। इस प्रकार वास्तविक मैदानी तोपखाने का जन्म हुआ, जिसमें उत्कृष्ट कोटि के नोदक प्रभार होते थे। फ्रांस में १७७६ ईo में ग्राइब्यूवल (Gribeaval) ने तोपखानों को तीन श्रेणियों में, मैदानी, घेराबंदी और तटीय तोपखानों में, मर्यादित किया। तोप के गोले को पूर्णत: गोल और यथार्थ रखने तथा प्रयुक्त बारूद की मात्रा कम करने का ध्यान रखा गया। इसी शताब्दी में हाउत्सर बने और घोड़ों की एक पंक्ति के स्थान पर दोहरी पंक्ति का व्यवहार शुरू हुआ तथा उनकी संख्या भी घटाकर छह कर दी गई। एक ब्रिटिश सेनापति ने गोल खोल के छर्रे का आविष्कार किया, जिसका नाम उसी के नाम पर श्रेपनेल (shrapnel) पड़ा।
१९वीं शताब्दी -- इस काल में अत्यधिक कार्य हुए और तोपखानें में अनेक सुधार किए गए। यांत्रिकी, रसायन, धातुकर्म, प्रकाशिकी और संबद्ध विज्ञानों में प्रगति हुई, जिनसे राइफल तोप में परिपूर्णता और ऐसी तोप के उपयुक्त प्रक्षेप्य का निर्माण और द्रुतगमन की दक्षता संभव हो सकी। राइफलों में स्थिरक भ्रमि (stabilizing spin) के कारण प्रक्षेप्य सीधे उड़ सकता था। समान व्यास के गोल प्रक्षेप्य से अधिक भारी होने के कारण उपयुक्त नोदक की प्राप्ति से उनका परास बढ़ाया जा सकता था।
१८४१ ईo में ट्रेडवेल (Treadwell) नामक अमरीकी इंजीनियर ने मुँह की ओर से भरी जानेवाली तोप का आविष्कार किया, किंतु थिएरी (Thiery) नामक फ्रांसीसी का दावा है कि ऐसी तोप उसने १८३० ईo में ही बना ली थी। अमरीकी रॉडमैन की विधि, जिसमें तोप के अंदर पानी प्रवाहित कर उसे ठंढा किया जाता था, सफल थी, किंतु ढले लोहे का युग बीत चला था (१८४५ ईo)। बेल्जियम के कैप्टेन पॉल ने वेगमापान के लिये काललेखी (chronograph) और तोप की दीवारों की दाब मापने के लिये एक मापक बनाया था।
ब्रीच (breech) भराई की सफल पद्धति, संतोषप्रद अधूमक बारूद और तोप को ठीक ठीक साधने के लिये प्रतिक्षेप बलों (recoil forces) को कम करने के साधन, इन तीन अभावों के कारण १९वीं शताब्दी की तोपें २०वीं शताब्दी की तोपों की अपेक्षा घटिया थीं।
पहली समस्या को हल करने के लिये फ्रांस, जर्मनी, स्पेन तथा अमरीका में १८६०-७० ईo में ब्रीच-लोडर (ऐसी तोप जिसमें पीछे के भाग से बारूद भरी जाती है) का निर्माण हुआ। १८६० ईo के लगभग आस्ट्रिया के तोपखाने के जनरल लेंक (Lenk) ने अधूमक चूर्ण गनकाटन का परीक्षण किया, जो तोपों में कोई अवशेष नहीं छोड़ता था। पर इसमें गोदाम में रखे स्वत: विस्फोटित होने की प्रवृत्ति थी, अत: इसे त्याग देना पड़ा। फ्रांसीसी रसायनज्ञ पॉल व्येय (Paul Vieille) ने १८८४ ईo कलिल (Colloid) का रूप देकर इसका सुधार किया। इस प्रकार उपयुक्त नोदक प्राप्ति की समस्या हल हुई। प्रतिक्षेप पद्धति का आविष्कार होने पर तोपों में अधिक दक्षता और यथार्थता आई। फायर का आघात गाड़ी की टेक को न पहुँचकर अब कमानियों में अवशोषित होने लगा। नेपोलियन के युद्धों में रॉकेट का प्रयोग जहाजों से तटवर्ती नगरों पर प्रहार करने के लिये तथा मैदानी युद्धों और घेराबंदियों में हुआ था।
प्रथम विश्वयुद्ध -- ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस के तोपखानों के उपकरणों में विशेष अंतर नहीं था। जर्मनी की सेना में मैदानी और घेराबंदी कारवाइयों में उपयोगी हाउत्सर काफी तादाद में थे। अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने तोपों की परिवहनीयता पर अत्यधिक ध्यान रखा, जिससे उनकी दक्षता में ्ह्रास हुआ। जर्मनों ने तोपखाने की काररवाई और सेना के अन्य अंगों के बीच समन्वय रखना आवश्यक समझा। तीनों राष्ट्रों ने गोला, बारूद का व्यय कम कूता था। रेलगाड़ी, मोटर, वायुयान, टेलीग्राफ और टेलीफोन के पड़नेवाले प्रभाव की सबने उपेक्षा की थी।
उपकरणों का विकास -- विश्वयुद्ध से प्रमाणित हो गया कि अधिक से अधिक दूर तक प्रहार करनेवाली तोपों की तादाद बहुत बढ़ानी चाहिए और नए नए प्रकार के गोला बारूदों का विकास होना चाहिए। मध्यम और भारी तोपखानों का अनुपात बहुत बढ़ाया गया। ६० पाउंड प्रक्षेपक ६'' तोप, ८'' और ९.२'' हाउत्सर उपकरण का उपयोग होने लगा। बहुत भारी हाउत्सर और तोपों का प्रयोग आरंभ हुआ। मोर्चेबंदी में मॉर्टर का प्रयोग होने लगा। जर्मनी के तोपों का परास १०,००० गज से भी अधिक था। श्रेपनेल का स्थान उच्च विस्फोटकों ने ले लिया। तोप और हाउत्सरों के लिये धुआँ उगलनेवाले गोलों का प्रयोग होने लगा। १९१५ ईo में जर्म्मनी ने पहले पहल गैस गोलों का प्रयोग किया, जिनका आगे चलकर व्यापक प्रचार हुआ। यातयात के विकास और वायुयान से गोलों की मार के प्रेक्षण से गोलों की मार की क्षमता बढ़ गई। युद्ध समाप्त होते होते तक तोपों के परिवहन के लिये घोड़ों का प्रयोग हाता था, पर भारी तोपें ढोने के लिय घोड़ों का स्थान मशीनों ने ले लिया।
संगठन और कमान (command) का विकास -- फ्रांस, इंग्लैंड और जर्मनी के तोपखानों में प्रारंभिक अंतर रहने पर भी मौलिक समस्यों के समाधान प्राय: एक से ही थे। संक्षेप में, उन्होंने निम्नलिखित सुधार किए:
(क) उपयुक्त मात्रा में तथा आवश्यक समय तक गोलाबारी करने के लिये तोपखाना कमान का केंद्रीकरण किया गया, (ख) आरक्षित तोपखाना आवश्यक होने के कारण विरचनाओं (formations) के बाहर यूनिटों (units) का निर्माण हुआ, तथा (ग) परासक्षमता और गतिशीलता के आधार पर विरचनाओं में उपकरणों का बँटवारा किया गया था। बाद में विरचनाओं की आवश्यकता और उनके कार्यक्रम के आधार पर बँटवारा किया गया।
समरतंत्र का विकास -- सैन्यविन्यास में कमी होना तभी संभव था जब उपकरण, संगठन तथा कमान का विकास होता। सामरिक गतिशीलता गोलाबारी पर निर्भर होने के कारण यह आवश्यक था कि आक्रमण की तैयारी तोपखाना करता। प्रतिरक्षा की दृष्टि से तोपों की अंतर्विस्तार में वितरित करना आवश्यक होने के कारण लंबी परास की भारी तोपों को प्रोत्साहन मिला। १९१४-१५ ईo के खाईं युद्ध से गोलों की मार के प्रेक्षण का महत्व स्पष्ट हो गया और कँटीले तारों द्वारा उत्पन्न बाधाओं को हटाने का कार्य भी तोपखानों के पल्ले पड़ा।
तोपखाना समरतंत्र के क्रमविकास के १९१५ ईo में नवशापेल (Neuvechapelle) का युद्ध ऐतिहासिक महत्व रखता है। आक्रमण का रूप था, पैदल सेना के आगे ४५ मिनट तक तीव्र गोलाबारी करना और फिर पैदल सेना के संमुख इस प्रकार गोलाबारी करना कि उसकी मार बढ़ती हुई सेना के आगे पड़े। दुर्भाग्य से इस युद्ध के अनुभवों का उपयोग परवर्ती युद्धों में, जैसे शैंपन (Champagne) तथा ऐस्टर (Astor) के आक्रमणों में, रचित रीति से नहीं हुआ। इसमें पहली सफलता १९१५ ईo में रूसियों के विरुद्ध जर्मनों को गैलीशिया (Galicia) में मिली।
अकस्मात् आक्रमण से होनेवाले लाभ की उपेक्षा करके, सॉम (Somme, सन् १९१६) और वर्डन (Verdun) के संग्रामों में फ्रांस द्वारा आक्रमण के पूर्व बडे परिमाण में गोलाबारी की गई। १९१८ ईo में इस प्रकार के आक्रमण के पूर्व, थोड़े समय तक तूफानी गोलाबारी करने की रीति अपनाई जाने की किसी जनरल ने आशा न की थी। इस तूफानी गोलाबारी का सबसे बड़ा दोष यह था कि धरती के टूट फूट जने के कारण आक्रामक के लिय बाधाएँ उत्पन्न हो जाती थीं।
टैंक का आविष्कार होने पर तोपखाने में क्रांति आ गई, क्योंकि तोपखाने का काम अब टैंक कर सकता था। इससे कँटील तार की बाधाओं को हटाना और शत्रु का मनोबल गिराना संभव हुआ। जर्मनी के कर्नल ब्रुखमुलर (Bruchmuller) ने युद्ध का एक नया उपाय खोज निकाला, जिसमें गोलाबारी की विधि में बराबर परिवर्तन करते हुए अपने इरादों को छिपाकर 'अकस्मात् तत्व' की रक्षा की जाती थी। शत्रु के गढ़ों पर ऐसी ही तीव्र गोलाबारी १९१८ ईo में की गई। इसका प्रतिकार फ्रांसीसियों ने शैपेन में किया। जर्मनों के प्राथमिक आघात को झेलने के लिये उन्होंने मोर्चें के अगले भाग में छोटी सी सैनिक टुकड़ी खड़ी कर दी और उसके पीछे दृढ़ मोर्चा संघटित करके जर्मनों की चाल व्यर्थ कर दी।
पहले और दूसरे विश्वयुद्ध का मध्यकाल -- १९१८ ईo के बाद तोपखानों का महत्व बढ़ा। समरतंत्र के क्षेत्र में रूसियों ने अनेक योजनाओं का विकास किया और तदनुसार अपने तोपखाने के आयुधों में सुधार किए। फ्रांस में एक ही कमान में घने फायर का प्रयोग हुआ, जब कि रूसियों ने तोपखाने को छोटी छोटी टुकड़ियों में तोड़ने की चेष्टा की।
१९३५-३६ ईo के ऐबिसीनिया अभियान में इटली को अपने सिद्धांतों की परीक्षा का अवसर मिला। उसकी राय हुई कि पैदल सेना के कमांडर को हमले के लिये कम व्यास की आवश्यक तोपें तुरंत दी जानी चाहिए। स्पेन में गृहयुद्ध को दबाने के लिये हवाई बमबारी की गई, क्योंकि पहाड़ी देशों में भारी तोपें नहीं पहुँचाई जा सकती थीं। जर्मनी ने भी अपनी हवामार तोपों और टैंकों को स्पेन पहुँचाकर उनके परीक्षण का अवसर प्राप्त किया।
इन परीक्षणों से स्पष्ट हो गया कि सभी प्रकार के तोपखानों का विकास करना आवश्यक है। वैमानिकी तथा टैंक के हथियार के रूप में तोपें अनिवार्य हो गईं। स्पेन के गृहयुद्ध के अनुभवों से लाभ उठाकर जर्मनी ने द्वितीय विश्वयुद्ध में वायुयानों का अत्यधिक प्रयोग किया। १९३८-३९ ईo के आक्रमणों में स्पेन में तोपखाने के स्थान पर हवाई बमबारी के साथ साथ टैंक से गोलाबारी का प्रयोग किया गया।
पैदल सेना के बढ़ने के समय टैंक की तोपों से संकटस्थलों पर गोलाबारी की जाती थी। शत्रु के गढ़ों पर हवाई आक्रमणों में टैंकों से सहायता ली जाती थी। शत्रु टैंक के प्रतिकार के लिये ६५ मिमीo तोप का प्रयोग किया जाता था। जर्मनी ने हवामार तोपखाने का सर्वप्रथम प्रयोग स्पेन के यद्ध में किया। इस युद्ध में पहले ७७ मिमीo की, और बाद में ८८ मिमीo की, तोपे प्रयुक्त हुई थीं। तोपों के युद्ध का संचालन यांत्रिक युक्तियों से किया गया था। यंत्रचालित होने के कारण तोपों का परिवहन सरलता से हो सकता था।
इटालियन और जर्मन लोग इन निष्कर्षों पर पहुँचे : (क) पैदल सेना के अनुपात में तोपखाने की वृद्धि होनी चाहिए, (ख) तोप को वायुयान का अंग बनना चाहिए, (ग) टैंकों की वृद्धि के साथ साथ तोपों की वृद्धि होनी चाहिए तथा (घ) संचार व्यवस्था में सुधार होना चाहिए। १९३९ ईo और १९४० ईo में 'गोलाबारी और संचालन' के अतिरिक्त 'गोलाबारी के साथ साथ संचालन' जर्मन कवचित डिवीजनों का आधार था।
द्वितीय विश्वयुद्ध में तोपखाना -- द्वितीय विश्वयुद्ध में भारी तोपों वाले टैंकों और अत्यंत सुचल लड़ाकू यूनिटों का बहुत बड़ी संख्या में प्रयोग हुआ, जिससे स्थायी प्रतिरक्षा समाप्त हो चली और मोर्चाबंदी की लड़ाई के अवसर कम हो चले। सभी देशों ने स्वचालित तोपखानों का प्रयोग किया, जिनमें ६ तक के खंड होते थे। कवचों की मोटाई बढ़ जाने के कारण अधिक शक्तिशाली तोपों का निर्माण आवश्यक हो गया। टैंकों को रोकने के लिये हर सैनिक को प्रतिक्षेपहीन राइफल और रॉकेट प्रक्षेपक दिए जाते थे। रॉकेटों का भी पुन: प्रवेश हुआ। प्रशांत महासागर के द्वीपों में स्थल सेना उतारने में सहायता के लिये वायुयानों से बमबारी के साथ साथ जहाज पर लदी तोपों और रॉकेट प्रक्षेपकों का उपयोग हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद, तोपखाने के प्रकार
युद्ध में तोपखाने के प्रधान कार्य प्राय: दो होते हैं, एक तो शत्रु की जिन वस्तुओं से सेना को खतरा उत्पन्न हो सकता है, उनपर फायर करके अपनी सेना को निरापद करना और दूसरा शत्रु की संचारपंक्ति को विघटित करना तथा उसकी आरक्षित (reserves) सेना पर आक्रमण करना। तोपखाने की अनेक प्रकार से उपयोग में आने की योग्यता ही उसकी प्रमुख विशेषता है। हवाई बमबारी से तोपखाने का काम नहीं चल सकता। हवाई बमबारी तोपखाने की सहायता भर कर सकती है। जमीन पर स्थित होने के कारण तोपखाना अधिक यथार्थतापूर्वक फायर कर सकता है। उसके सब अंग ऐसे बने होते हैं कि उनका संचालन सरलता से हो जाता है।
पैदल सैनिक तोपखाना -- पैदल सैनिकों द्वारा हाथ से चलाए जानेवाले हलके और छोटे हथियार अनेक प्रकार के बने हैं। इनमें प्रतिक्षेपहीन राइफल, रॉकेट और रॉकेट प्रक्षेपक उत्तरी अफ्रीका, यूरोप तथा प्रशांत महासागर के द्वीपों के युद्धों में उपयोगी सिद्ध हो चुके हैं। ५७ मिमीo और ७५ मिमीo व्यासवाली नाल के प्रतिक्षेपहीन राइफल क्रमश: दो और चार मील तक फायर कर सकते थे। टैंकों, खुफिया तहखानों (pill boxes) और अन्य क्षेत्रीय गढ़बंदियों के प्रति ये पर्याप्त सही और प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं।
रॉकेट -- रॉकेट से कुछ ऐसे लाभ हैं जो अन्य अस्त्रों में नहीं पाए जाते। रॉकेट अस्त्र भी है और साथ साथ गोला बारूद भी है। रॉकेट-प्रक्षेपक सुवाह्य, होने के कारण वायुयान और अन्य स्थलों पर भी जहाँ सामान्य तोपखाना सरलता से नहीं पहुँच सकता, प्रयुक्त हो सकते हैं। सरल होने के कारण इनमें सेवाई (servicing) की आवश्यकता नहीं पड़ती। इससे संभारतंत्र (logistics) हलका रहता है। रॉकेटों में प्रतिक्षेप भी नहीं होता। रॉकेटों के व्यावहारिक उपयोग में जर्मन सर्वप्रथम थे। उन्होंने १९१५ ईo से ही रॉकेट पर प्रयोग करना शुरू कर दिया था। द्वितीय महायुद्ध में उन्होंने ''वी-२ उड़नबम'' नामक जो राकेट बनाया, उसने जर्मनी से फेंके जाने पर लंदन में गिरकर घातक परिणाम उत्पन्न किया था।
अमरीकी जेटचालित हथियारों में 'बैजूका' द्वितीय विश्वयुद्ध में सर्वश्रेष्ठ था। यह ३.४ पाउंड भारी रॉकेट फेंकता है१ हलका होने के साथ साथ सैनिकों को इसके उपयोग का प्रशिक्षण देना भी सरल है। यह टैंकों, खुफिया तहखानों तथा गढ़बंदियों को ध्वस्त करने में समर्थ होता है। इसका प्रमुख लाभ यह है कि इसका परास केवल ७०० गज है।
बड़े रॉकेटों को जमीन, वायुयान या टैंकों पर स्थापित रॉकेटप्रक्षेपकों से फायर किया जाता है। स्थल सेना में ४.५'' से लेकर ८'' तक के, और वायुयान द्वारा १,२०० पाउंड तक के, रॉकेटों का प्रयोग होता है। रॉकेटों के पिछल सिरे पर स्थिरकारक पंखड़े (stabilizing fins) होने के कारण ये सही मार करनेवाले यथार्थ अस्त्र होते हैं। रॉकेट का क्षेत्र असीम है। रॉकेट की नियंत्रित पद्धति से ही आधुनिक मिसाइलों (misiles) का जन्म हुआ, जिनसे विकास का एक नया युग प्रारंभ होता है। मिसाइलों का प्रयोग (१) स्थल से आकाश में, (२) आकाश से स्थल में तथा (३) आकाश से आकाश में किया जा सकता है। प्रयत्न किया जा रहा है कि इसका और भी सुधार और विकास हो ताकि जल के अंदर से वायु में या स्थल पर तथा वायु या स्थल से जल में इसका प्रयोग किया जा सके।
हलका तोपखाना -- हलके तोपखाने में टैंकमार तोपें और हाउत्सर संमिलित हैं। ३७ मिमीo टैंकमार तोप अत्यंत विश्वसनीय अस्त्र है। इसमें पैतरा बदलने की विशेष अनुकूलता होती है और कठिन भूभागों में भी इसका प्रयोग हो सकता है। यह लगभग १२,८५० गज तक प्रति मिनट २५ राउंड फायर कर सकती है। ५०० गज दूर स्थित ४.५'' मोटे कवच को यह बेध सकती है। सामरिक दृष्टि से निर्धारित दूरी पर मार करनेवाली, भारी से भारी टैंक के अग्रभाग के कवच को बेधने योग्य प्रक्षेप्य फायर कर सकनेवाली, तीव्र वेगदायी तोप तथा परिशुद्ध सरल साधना (laying), फायर की तीव्र दर और अत्यधिक गतिशीलता टैंकमार अस्त्रों में होनी चाहिए। सुरक्षा के लिये कवचित चादरों से आंशिक ढकी, चादरदार स्वचालित माउंटिगवाली टैंकमार तोप इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
इनके अतिरिक्त हलके तोपखाने में ७५ मिमीo पैक हाउत्सर और १०५ मिमीo हाउत्सर हैं। हाउत्सर कम वेग का अस्त्र है। इसे उच्च कोण पर फायर किया जाता है। इसमें स्फोटक की मात्रा कम लगने के कारण यह शीघ्र जर्जर नहीं होता। आधुनिक हाउत्सर तीव्र वेगदायी गोला बारूद फायर करते हैं। हाउत्सर बीच में आनेवाली ऊँची बाधाओं के उस पार फायर करने के लिये अधिक उपयुक्त हैं, जहाँ सपाट फायर करनेवाली तोपों की मार नहीं पहुँच सकती। टैंक तथा अन्य ऐसी बाधाओं के विरुद्ध, जिनमें अधिक परास और वेधनशक्ति आवश्यक होती है, तोपें विशेष उपयोगी होती हैं।
विमानवाहित डिवीज़नों (air borne divisions) का विकास होने पर हाउत्सर का महत्व बढ़ा। हल्का होने के कारण इनके भागों को अलग करके, हवाई छतरी से उतारकर मिनटों में पुन: सज्जित किया जा सकता है। सुवाह्य होने के कारण उन भूभागों में जहाँ सड़कें नहीं हैं, ७५ मिमीo हाउत्सरों का उपयोग लाभदायक है। यह १४ पाउंड भारी प्रक्षेप्य को १०.००० गज की दूरी तक फेंकता है, जबकि १०५ मिमीo हाउत्सर लगभग ७,००० गज तक ३३ पाऊंड तीव्र विस्फोटक फेंकता है।
मध्यम तोपखाना -- इसमें १५५ मिमीo हाउत्सर और ४.५'' तोप संमिलित हैं। लंबे परास और अत्यधिक फायर शक्ति के कारण ये सड़कों, या अन्य स्थिर टार्गेटों, को उड़ाने के काम आते हैं। ४.७'' तोप का परास २०,००० गज है और यह ५० पाउंड का प्रक्षेप्य फायर करता है। १५५ मिमीo हाउत्सर ९५ पाउंड के प्रक्षेप्य १६,००० गज तक फेंकता हैं।
भारी तोपखाना -- इसमें तोप और हाउत्सर दोनों संमिलित हैं। १५५ मिमीo तोप भारी होने पर भी चल होती है। यह ९५ पाउंड प्रक्षेप्य को लगभग १५ मील तक फायर कर सकती है। मोटरयान से इसका परिवहन कर सकते हैं। इस वर्ग के अन्य अस्त्र ८'' तोप तथा ८'' और २४० मिमीo हाउत्सर हैं। ८'' तोप २४० पाउंड गोले को २० मील तक फायर कर सकती है। यह बहुत यथार्थ होती है। किलेबंदी तोड़ने में यह काम आती है। २४० मिमीo हाउत्सर ३६० पाउंड के प्रक्षेप्य का लगभग १५ मील परास तक फायर कर सकता है।
मॉर्टर -- प्राय: लंबे परास के अस्त्रों की गोलाबारी से पैदल सेना की सहायता की जाती है। पर जब इनसे अपनी सेना की ही क्षति होने की आशंका रहती है तब मॉर्टर का प्रयोग किया जाता है। खाईं में बैठे शत्रुओं से जब सेना को खतरा रहता है, तब खाईं युद्ध में मॉर्टर बहुत प्रभावशाली होता है। मॉर्टर चिकने छिद्रवाला अस्त्र है, जिसे नालमुख से भरा जाता है। ये ६० मिमीo, ८१ मिमीo, १०५ मिमीo और ९१४ मिमीo के होते हैं। इनमें से अंतिम ३,७०० पाउंड प्रक्षेप्य फेंक कर कम परास में किलेबंदी को ध्वस्त कर सकता है। ४.२'' और ३.६'' वाले घेरे के मॉर्टर (Siege mortar) चिकने छिद्रवाले नहीं होते।
हवामार तोपखाना -- इसका निर्माण पहले पहल प्रथम विश्वयुद्ध में हुआ। आजकल की अधिकांश हवामार तोपें चल किस्म की होती हैं। ये सभी बहुत अधिक वेगदायी होती हैं। इनके गोला बारूद ऊँचे विस्फोटक किस्म के होते हैं और फ्यूज मियादी या सांनिध्य से दग्ध होता है। सांनिध्य फ्यूज टार्गेट की किसी विशेषता के कारण प्रक्षेप्य का विस्फोट करता है और मियादी फ्यूज पूर्वनिर्धारित अवधि बीतने पर। टार्गेट की रेडार द्वारा पूर्वकथित भावी स्थिति पर बड़े हवामार अस्त्र का फायर आधारित होता है। अधिकांश स्थितियों में यंत्रों से ऑकड़ों की गणना करके अस्त्रों को समंजित कर लेते हैं। ५० पाउंड के गोले फेंकनेवाली ४.७'' तक की तोपों का प्रयोग द्वितीय महायुद्ध में किया गया था। तोप के अन्य मानक आकार हैं : ३७ मिमीo स्वचालित तोप, ४० मिमीo ब्रिटिश बोफॉर (Bofors), ३'' हवामार तोप और ९० मिमीo तोप। युद्ध के बाद ऐसे अस्त्र बने जो बिना मनुष्य की सहायता या न्यूनतम सहायता से अपने परास में स्थित किसी भी टार्गेट का पीछा करके उसपर फायर कर सकते हैं। ये हवामार अस्त्र मध्यम परास के होते हैं, जिनमें नियंत्रणअंग रेडार द्वारा निर्देशित होता है।
संगठन -- तोपखाने का संगठनतंत्र लचीला होना चाहिए ताकि परिस्थिति के अनुसार नियंत्रण का केंद्रीकरण या विकेंद्रीकरण हो सके और तोपों की मुख्य शक्ति ऐसे स्थलों पर एकत्रित की जा सके जहाँ निर्णायक प्रहार करना है।
समरतंत्र और प्रशासन की दृष्टि से तोपखाने की सबसे छोटी यूनिट बैटरी है। दो तीन बैटरियों को मिलाने से तोपखाना रेजीमेंट बनता है, जिसको समरतंत्रीय और प्रशासनिक दोनां प्रकार के क्य्राा करने पड़ते हैं। दो तीन रेजीमेंटों से ब्रिग्रेड बनता है, जिसको केवल समरतंत्र संबंधी कार्य करना पड़ता है।
बैटरी के तीन अंग होते हैं, (१) सामग्री-- तोप, गोला बारूद तथा भंडार, (२) कार्मिक अधिकारी-- अराजादिष्ट अधिकारी, तोपची, चालक, तकनीकी सहायक तथा बेतार प्रचालक और (३) परिवहनमोटर या अन्य यांत्रिक वाहन और कहीं कहीं भारपशु भी। गोला बारूद, भंडार और रसद के परिवहन के लिये ट्रक भी इसी में सम्मिलित है।
बैटरी का कमान करनेवाला मेजर होता है और उसका सहायक होता है कप्तान। कमान में कप्तान का दूसरा स्थान है। बैटरी ट्रपों में बॅटी होती है। प्रत्येक ट्रप एक कप्तान के अधीन होता है। ट्रप फिर दो तोपों के अनुभाग में बँटा होता है। अनुभाग का कमांडार अवर राजादिष्ट अधिकारी, जमादार या सूबेदार होता है। हर अनुभाग के दो उप अनुभाग होते हैं, जिनमें एक तोप होती है। इसका कमांडर सार्जेट या हवलदार होता है, जिसे 'टुकड़ी का नंबर एक' कहते हैं। इस प्रकार रेजिमेंट में कई तोपें होती हैं और इसका कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल होता है।
प्रविधि
स्थल पर स्थापन -- जहाँ बैटरी स्थापित करनी होती है, वहाँ तोपों को पहुँचा दिया जाता है और तोपों की गाड़ियों और क्षेत्र तोपखानों के ट्रैक्टरों (K. A. T.) को छिपाकर लौटा दिया जाता है। तोपों के पीछे गोला बारूद का ट्रक रखा जाता है, जिससे गोला बारूद प्राप्त करने की सुविधा हो। शेष वैगन (wagons) दूसरी पंक्ति में रहते हैं।
स्थल का चुनाव -- स्थल का चुनाव इस बात पर निर्भर करता है कि मोर्चेबंदी का क्या उद्देश्य है। तोपखाना यथासंभव ऐसे गुप्त स्थल पर रखा जाता है जहाँ से प्रक्षेप्यपथ में कोई रुकावट न हो। स्थल चुनाव के समय गोला बारूद की पहुँच के मार्ग पर भी दृष्टि रखते हैं। शत्रु के छोटे मोटे फायरों से रक्षार्थ, हलकी तोपों के लिये ढाल (shield) की व्यवस्था रहती है। अपनी ओर की तोपों को २० से २५ गज के अंतर पर रखा जाता है।
परासन (Ranging) -- परासन द्वारा वह रेखा और उठान ज्ञात करते हैं, जहाँ से टार्गेटों पर अधिक से अधिक संख्या में प्रक्षेप्य पड़ सकें। यह आवश्यक नहीं कि प्रक्षेप्य का परास वही हो जो सर्वेक्षण में या मानचित्र से निश्र्चित हुआ है। प्रेक्षप के पथ को प्रभावित करनेवाले अनेक कारक हैं, जैसे गुरुत्वाकर्षण, भार की मात्राओं अंतर, वायु का दबाव, वायु का ताप, वायु की दिशा आदि। जिस स्थल पर अधिक गोले गिरते हैं, उसे संघट्टन बिंदु (point of impact) कहते हैं। प्रक्षेण और बंधनी (brackets) से फायर को समंजित करते हैं। मौसमी तथा अन्य संशोधनों का प्रयोग करने पर, वास्तविक प्रेक्षण के बिना भी टार्गेटों पर ठीक निशाना बैठाया जा सकता है। यांत्रिक युक्तियाँ बनी हैं, जिनमें गोले के विस्फोटित होने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह अभिलिखित होती है और उससे परासन संपन्न होता है। तोपखाने की यथार्थता और प्रभावशीलता में अब इलेक्ट्रॉनिक युक्तियाँ बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई हैं।
साधना (laying) -- लक्ष्य और दृष्टिबिंदुओं को मिलानेवाली दर्शरेखा (line of sight) में तोप को साधने के लिये उसे दाएँ बाएँ घुमाना तथा ऊर्ध्वाधर समतल में स्थापित करना पड़ता है। यदि साधनेवाला टार्गेट को देख ले तो साधना सरलतम होता है और इसे प्रत्यक्ष विधि कहा जाता है। इसमें साधनेवाले को टार्गेट केवल देख लेना पड़ता है। पर यदि दूरी के कारण टार्गेट दिखाई नहीं पड़ता, और ऐसा साधारणतया होता है, तो इस परोक्षविधि कहते हैं।
बैटरी कमांडर ऐसे स्थान से फायर का आदेश देता है जहाँ से प्रेक्षण स्पष्ट होता है। ऐसे स्थल को प्रेक्षण चौकी कहते हैं। तोपवाले सिरे पर कमांड चौकी अधिकारी (C.P.O.) और तोपस्थल अधिकारी होते हैं, जो लेफ्टिनेंट होते हैं और तोप की गोलाबारी का नियंत्रण करते हैं।
फायर -- प्रभावी फायर के लिये बैटरी में तीन विधियों का प्रयोग किया जाता है : (१) तोप फायर, जिसमें सभी तोपें स्वतंत्र रूप से फायर करती हैं; (२) बैटरी फायर, जिसमें एक के बाद दूसरी तोप फायर करती है और (३) सैल्वो फ़ायर (salvo fire), जिसमें सभी तोपें एक साथ फायर करती हैं।
समरतंत्र के आधार पर भी फायर को वर्गीकरण किया जाता है :
(क) विनाशक फायर से किलेबंदी को निकम्मा बनाया जाता और कार्मिकों को नष्ट भी किया जाता है।
(ख) आकृति के अनुसार फायर के प्रकार ये हैं :
(१) संकेंद्रित फायर, अर्थात् किसी निश्चित क्षेत्र पर फायर करना।
(२) बराज (barrages) फायर अर्थात् लाइन या लाइनों पर गोलाबारी की दीवार खड़ी करना।
(३) स्थायी बराज फायर अर्थात् शत्रु को आगे बढ़ने से रोकने के लिय समर्थित सेना (supported troops) के आगे २०० से ४०० गज तक की लाइन पर फायर स्थापित करना।
(४) बक्स फायर, शत्रु के किसी दल को विच्छिन्न करने के लिये फायर किया जाता है।
(५) लपेटवाँ (rolling) बराज फायर अर्थात् आक्रामक सेना के अग्र भाग में अनुक्रमिक लाइनों में छोटी सीमाओं (bounds) में बढ़नेवाला फायर।
(ग) अनुसूचित फायर (scheduled fire) की व्यवस्था समय सारणी के अनुसार पहले से ही की जाती है और संकेत या आह्वान होने पर संपन्न की जाती है।
(घ) सहायक फायर (supporting fire) उसे कहते हैं जो समर्थित (supported) सेना के युद्धरत होने पर संपन्न की जाती है। आक्रमण के ठीक पूर्व तोपखाने का उपक्रम फायर (preparation fire) किया जाता है। प्रतिरक्षा में प्रतिउपक्रम फायर (counter preparation fire) प्रयुक्त होता है। शत्रु के तोपखाने पर निदेशित फायर को प्रति-बैटरी फायर कहते हैं। शत्रु को विश्राम का अवसर न देने और उसका मनोबल गिराने के लिये उत्पीड़क (harassing) फायर का प्रयोग किया जाता है।
विभिन्न प्रकार के गोला बारूदों का उपयोग -- श्रैपनेल का उपयोग खुले में आक्रमण, रक्षावरण तथा उत्पीड़न के लिये किया जाता है। उसी परिस्थिति में तात्कालिक फायर के साथ उच्च विस्फोटक गोलों का भी प्रयोग किया जाता है। शत्रु के टैंकों पर, आवृत शत्रुसेना पर तथा मियादी फ्यूज़ के साथ भवनों को ध्वस्त करने में भी इसका प्रयोग किया जाता है। वायुयानों को गिराने के लिये उच्च विस्फोटक का प्रयोग किया जाता है तथा शत्रु के प्रेक्षण से बचने को अपने फायर को छिपाने के लिये सधूम गोलों (smoke shells) का प्रयोग किया जाता है। प्रकाश प्राप्त करने के उद्देश्य से कभी कभी स्टार गोलों (star shells) का प्रयोग किया जाता है। शत्रुपक्ष में बीमारी फैलाने के लिये रासायनिक गोलों तथा उसके टार्गेंटों में आग लगाने के लिये ज्वालकों, या अग्निगोलों, का उपयोग किया जाता है। शत्रु का उत्साह भंग करने के लिये गोलों में प्रचारात्मक पर्चें भी भरकर शत्रु पक्ष में फेंके जाते हैं।
हवामार और मैदानी तोपखाना दोनों की गोलाबारी का प्रभाव सांनिध्य या वीo टीo (V.T.) फ़यूज से बढ़ा है। ऐसे फ्यूज़ में एक क्षुद्र इलेक्ट्रॉनीय युक्ति होती है, जिसके कारण यह पूर्वनिर्धारित समय पर विस्फोट करता है। इनके अतिक्ति कवचभेदी तथा अंशत:कवचभेदी गोलियों का प्रयोग भी सफलतापूर्वक किया जाता है।
संकेत संचार -- रेडियो, तार, टेलीफोन, चाक्षुष संकेत तथा प्रेषण आरोही (dispatch rider) से संकेत धरती पर संचारित होते हैं तथा बेतार, टेलीफोन और रेडियों से वायुयानों में इनके संचार की व्यवस्था होती है।
फायर प्रेक्षण -- फायर का प्रेक्षण स्वयं बैटरी कमांडर द्वारा या प्रेक्षण चौकी दल या हवाई प्रेक्षण अधिकारी द्वारा वायुयान या हेलीकाप्टर से किया जा सकता है।
समरतंत्र -- आधुनिक युद्ध में शत्रु के फायर के परास के अंदर पहुँचते ही पैदल सेना के लिये फायर से ओट की व्यवस्था आवश्यक है। आगे बढ़ने के लिये समुचित फायर सहायता आवश्यक है। यह तोपखाने से ही होता है। स्थल तोपखाने मे टैंकों के प्रवेश से बड़ी क्रांति हुई है। तोपखाने के फायर की कमी को टैंक का फायर पूरा करता है; पर टैंकों को भी तोपखानों के फायर की ओट आवश्यक है।
द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद तोपखाने की यथार्थता, परास, फायरशक्ति एवं गतिशीलता में वृद्धि हुई। अधिक महत्व की प्रगति सर्वेक्षण रीति में हुई। गोला बारूद पर अत्यधिक व्यय होने से संभार तंत्र पर तनाव पड़ना मुख्य अड़चन रही है। तोपखाने की दक्षता के लिये अच्छे संकेतसंचार का होना आवश्यक है।
फायर की प्रयुक्ति -- तोपखाने का प्रयोग करते समय अकस्मात् आक्रमण, संकेंद्रण और कम मात्रा में ही सेना के प्रयोग पर विशेष ध्यान रखा जाता है। आकसिमकता के लिये तोपों के स्थलों का छिपा रखना आवश्यक है। शत्रु के वायुयान द्वारा प्रेक्षण के बचने के लिये तोपखाने की काररवाई रात में ही की जाती है। समय से पूर्व फायर कभी नहीं करना चाहिए। अप्रत्याशित समय और स्थान पर फायर करने से शत्रु का मनोबल टूटता है।
सर्वाधितक महत्व के टार्गेटों पर अधिकतम फायर निर्दिष्ट होना चाहिए। गोलाबारी तीव्र और अल्पकालिक होनी चाहिए, ऐसानहीं कि गोलाबारी हफ्तों तक चलती रहे। एतदर्थ कमान का केंद्रीकरण किया जाता है और कमांडर बदलती परिस्थितियों से संपर्क बनाए रखते हैं।
फायर का चतुरतापूर्वक प्रयोग और उपयुक्त किस्म के हथियारों के आवंटन से सेना में कमी की जा सकती है। भारी हथियारों का प्रयोग वहाँ नहीं करना चाहिए जहाँ हलके हथियारों से काम चल सकता है। खर्चे की कमी के लिये फायर की यथार्थता आवश्यकता है।
अन्य सेनाओं का सहयोग -- तोपखाना सहायक सेना है। अत: इसका कार्य अन्य सेनाओं की आवश्यकता पर निर्भर करता है। तोपखाने के अधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे जिनकी सहायता कर रहे हों उनकी योजना से अवगत रहें। इस काम के लिये संपर्क अधिकारी (liaison officers) रहते हैं। तोपखाना और अन्य सेवाओं में समन्वय भी सहयोग द्वारा ही संभव हो पाता है।
आक्रमण
तोपखाने के आक्रमण का उद्देश्य होता है अन्य सेनाओं, (जलीय, स्थलीय तथा वायु) की कार्रवाइयों में सहायता करना, जिससे वे आगे बढ़ती चलें और आक्रामक शक्ति बनाए रखें। आक्रमण प्रभावशाली होने के लिये फायर का प्राधान्य इतना होना चाहिए कि शत्रु हमारी कार्रवाइयों में न बाधा उपस्थित कर सके और न अपने तोपखाने का ही प्रयोग कर सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये शत्रु के स्थलीय अस्त्रों का नाश, या उनको प्रभावहीन, किया जाता है। सैनिकों को मारकर और उनके उत्साह और युद्ध करने की उमंग को भंग कर, ऐसा किया जाता है। इसके लिये तोपखानों को निम्नलिखित कार्य करने पड़ सकते हैं :
(क) प्रारंभिक गोलाबारी या तोपखाने की तैयारी, (ख) आवरक गोलाबारी (covering fire), (ग) रक्षात्मक फायर, (घ) उत्पीड़क फायर, (ङ) जवाबी गोलाबारी, (च) धूमावरण तथा (छ) निकट सहायता।
पहुँच कूच (Approach march) -- पहुँच कूच के समय आगे के रक्षियों (guards) को हल्का, मध्यम और मैदानी तोपखाना प्रदान किया जाता है। यदि यह अपर्याप्त सिद्ध होता है तो मुख्यांग से सहायता की जाती है। इतने पर भी यदि शत्रु को रोका न जा सके, तो कमांडर आक्रमण की योजना बनाता है।
मोर्चा (Dispositon) -- तोपखाने का मोर्चा निम्न बातों से अनुशासित होता है :
१. आक्रमण की निर्णायक अवस्थाओं में सहायता के लिये संकेंद्रण;
२. तोपखाने को बिना हटाए अधिकतम दूरी तक सहायता करने की योग्यता।
योजना (Plan) -- तोपखाने की योजना के अंतर्गत आगे बढ़ने के लिये फायर की योजना तथा तोपखाने के कमान, नियंत्रण, गति और संचार समाविष्ट हैं। तोपखाने द्वारा तैयारी में आक्रमण के प्रहार के पूर्व शत्रु से प्रतिरक्षा की बमबारी आती है। यदि टैंकों की संख्या कम हो तो शत्रु को हानि और क्षति पहुँचा कर उसका मनोबल गिराना इसका उद्देश्य होता है। इसके लिये फायर यथासंभव अल्पकालिक और तीव्र होना चाहिए। यदि शत्रु के स्थान का पता न चलता हो तो आवरक गोलाबारी के रूप में लपेटवाँ बराज़ (rolling barrage) की व्यवस्था की जाती है। आवरक गोलाबारी की व्यवस्था समयसारणी के अनुसार अपनी सेना की आगे बढ़ने की दर को दृष्टि में रखकर की जाती है।
अपनी गतिविधि गुप्त रखने के लिये उच्च विस्फोटकों के साथ साथ धूमावरण के गोले फायर किए जाते हैं। अपना अभिप्राय गुप्त रखने के लिये विभिन्न स्थानों पर धुआँ उत्पन्न किया जाता है। धुएँ का अंधाधुंध प्रयोग अपनी कार्रवाइयों में बाधक हो सकता है। कुछ परिस्थितियों में आवरक गोलाबारी अपर्याप्त हो सकती है। ऐसी दशा में निकट सहायता की व्यवस्था की जाती है।
जवाबी बमबारी या जवाबी बैटरी कार्य -- इसमें शत्रु के तोपखाने के स्थान का पता लगाकर उसको प्रभावहीन और नष्ट करना संमिलित है। शत्रु के मनोबल के गिराने और उसकी गतिविधि और कुमक को रोकने के लिये उत्पीड़क फायर किया जाता है। चलती फिरती कार्रवाई में इसका न्यूनतम प्रयोग होना चाहिए।
अनुसरण (Pursuit) -- शत्रु को पीछे हटाने के लिये अपनी सेना में आवरक गोलाबारी की व्यवस्था बराबर रहती है। यंत्रचालित तोपखाने का इसमें विशेष महत्व है।
रक्षा
अन्य सैनिकों के बचाने तथा शत्रु के आक्रमण को रोकने में सहयोग देने में तोपखाना सहायता करता है। इस संबंध में इसके कार्य निम्नलिखित होते हैं :
(क) जवाबी तैयारी, (ख) आक्रमण हटाने के लिये फायर, (ग) टैंकरोधी रक्षा, (घ) जवाबी बैटरी कार्य तथा (ङ) उत्पीड़क फायर।
मोर्चे -- चलते फिरते युद्ध में रक्षित इलाकों की शृंखलाएँ ही पैदल सेना की रक्षात्मक स्थितियाँ होती हैं। हमले को हटाने के लिये प्राय: इस पंक्ति के संमुख ही तोपखाने को गोली चलानी पड़ती है। आक्रमण के समय अधिकांश तोपें अग्रवर्ती स्थितियों में लगाई जाती हैं, लेकिन रक्षा करते समय इन दो कारणों से ऐसा नहीं किया जाता : (क) शत्रु कहीं हमारी तोपों को बेअसर न कर दे और (ख) शत्रु के हमले के पहले आवेग में ही हम कुचल न जायँ। शत्रु के तोपखाने का जवाब देने के लिये कुछ ही तोपें आगे के क्षेत्रों में रखी जाती हैं। प्रतिरक्षक का तोपखाना इस प्रकार अंतर्विस्तार में वितरित होता है।
योजना -- तोपखाने की रक्षात्मक योजना में रक्षात्मक फायर तथा बैटरी क्रिया की जवाबी कार्रवाई की नीति समाविष्ट है। इसके अंतर्गत मोर्चे भी हैं। बेखबरी में घर दबाना यहाँ भी वैसा ही महत्वपूर्ण है जैसा आक्रमण में। प्रतिरक्षक तोपों में से यथासंभव अधिक से अधिक तोपों को, शत्रु के आक्रमण के संपूर्ण रूप में प्रकट होने तक, मौन रखने की युक्ति बहुत प्रचलित है। धुएँ के प्रयोग में सावधानी अपेक्षित है।
शत्रु का आक्रमण प्रारंभ होने के पहले ही उसकी तैयारियों को शिथिल करने के उद्देश्य से किए जानेवाली गोलाबारी को जवाबी तैयारी कहते हैं। यह अग्रवर्ती संचार और विरचनाओं पर निर्दिष्ट होती है।
आक्रमण को रोकना -- एक बार जब आक्रमण प्रारंभ हो जाता है, तब आक्रमणकारी सेना पर फायर करना तोपखाने का लक्ष्य होता है। फायर का नियंत्रण प्रेक्षण से होना चाहिए, पर शत्रु की गोलाबारी के कारण बहुधा यह संभव नहीं होता। इसलिये पूर्वसूचित लक्ष्यों पर गोले बरसाए जाते हैं। यहाँ तोपखाने के फायर का समन्वय छोटे अस्त्रों, अर्थात् बंदूकों, राइफलों इत्यादि की मार से किया जाता है।
टैंकमार रक्षा -- टैंकमार से रक्षा का पर्याप्त भार तोपखाने पर पड़ता है। कुछ तोपें अग्रवर्ती क्षेत्रों में लगाई जाती हैं। ये हलकी और क्षेत्रीय किस्म की होती हैं, जिससे वे कम दूरी से शत्रु पर फायर कर सकें। जवाबी बैटरी कार्य उन रक्षकों से किया जाता है, जो वास्तविक आक्रमण के पूर्व शत्रु के तोपखाने को दुर्बल बनाने में लगे रहते हैं। यदि साधन पर्याप्त हों तो उत्पीड़क फायर द्वारा शत्रु की आक्रामक तैयारी पर चोट पहुँचाई जा सकती है।
पीछे हटना (Withdrawal) -- सेना के पीछे हटने को छिपा रखने के लिये चल तोपखाने को फैला दिया जाता है, जिसका विशेष प्रभाव पड़ता है। शत्रु सैनिकों को दूर उलझा कर रखा जाता है, ताकि वे आगे न बढ़ सकें। तोपखाना कमान को विकेंद्रित कर पैदल सेना को ब्रिगेडों, या तदनुरूपी यूनिटों में, बदल दिया जाता है। बैटरियों को एकांतरत: हटाना चाहिए।
वायुयाननाशी रक्षा -- वायुयाननाशी तोपखाने का काम लड़ाकू वायुयानों से सहयोग करना होता है। तब इसका प्रमुख कार्य होता है, शत्रु के वायुयानों की तोड़फोड़ करना और उनपर गोली चलाकर उनकी स्थिति स्पष्ट करना। स्वतंत्र रूप से भी वायुयाननाशी तोपखाना कार्य कर सकता है। तब इसका कार्य, शत्रु के वायुयानों को ध्वस्त करना और उन्हें बमबारी और प्रेक्षण का अवसर न प्रदान करना, होता है।
गैसयुद्ध -- गैस युद्ध की निंदा सभी सभ्य राष्ट्रों ने की है। (देखें रासायनिक युद्ध)। प्रथम विश्वयुद्ध में गैसगोलों की बमबारी हुई थी। इसका उद्देश्य था शत्रुओं को हताहत करना। बमबारी ऐसी द्रुतगति से एक साथ ही अनेक बैटरियों द्वारा हुई थी कि शत्रुओं के बीच गैसों का अत्यधिक संकेद्रण हो गया था और गैसत्राण प्रयुक्त करने के पूर्व ही इच्छित क्षति हो गई थी। बम में मस्टर्ड गैस सदृश गैंसें भरी रहतीथीं, जिससे उस स्थान पर अधिक समय तक टिका रहना संभव न था। कुछ बमों में ऐसी गैसें भरी थीं, जिनसे आग लग जाती थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में किसी राष्ट्र ने विषाक्त गैस का प्रयोग नहीं किया था, पर ऐसे गोले अवश्य प्रयुक्त हुए थे जिनसे धुएँ का परदा बन जाता था और आग लग जाती थी। ऐसे गोले हलके होते हैं। अत: फेंकने के लिये विशेष प्रकार की तोपें या हाउत्सर प्रयुक्त होते हैं। गोले में गैस तरल रूप में रहती है। धूप के ताप से वाष्पशील गैसें चारों तरफ फैल कर हलकी हो जाती है। तेज हवा इन्हें उड़ा ले जाती है। अत: शांत दिन और मेघाच्छादित आकश में ही ये गैसगोले प्रभावशाली होते हैं।
स्थिति युद्ध (Position warfare) -- एक स्थान पर स्थित रह कर युद्ध करने को स्थिति युद्ध कहते हैं। इसके लिये खाई खोदना, क्षेत्र कार्य करना और काँटेदार तारों से घेरा बनाना पड़ता है। ये घेरे ऐसे होने चाहिए कि शत्रु के एक आक्रमण से उनमें प्रवेश न हो सके और शत्रु की गोलाबारी से कम से कम क्षति पहुँच सके। आजकल इसका प्रचलन नहीं है।
उपसाधन तथा तोपखाने के उपकरण -- तोपखाने के कार्यों को सुगम करने के लिये कुछ उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। ये उपकरण निम्नलिखित हैं :
१. क्षेत्रीय तोपखाने के फायर नियंत्रण का आलेखक (Plotter fire control field artillery) -- ये दिङ्मान; परास और ग्रिड संदर्भों में जो समस्याएँ खड़ी होती है, उनके ग्राफीय समाधान के लिये बने होते हैं। इनके स्थान में पहले तोप के स्थल पर परंपरागत तख्ता (board) शातघ्निकी प्रयुक्त होता था।
२. गणना कुलक (Calculation set) -- असामान्य मौसमी परिस्थितियों के संशोधन के लिये यह बना है। इससे गति का संशोधन होता है।
३. रेडार -- खुले आकाश को ध्यान से देखकर स्थिति के पता लगाने का एक उपकरण है। युद्धक्षेत्र में इसके कार्य हैं : (क) मॉर्टर का स्थान निर्धारण, (ख) धरती पर या वायु में फायर का प्रेक्षण, (ग) शत्रु की गति का पता लगाना, (घ) तोप का स्थान निर्धारित करना तथा (ङ) तीव्र रेडार सर्वेंक्षण करना।
४. ध्वनि परासन उपकरण -- शत्रु की बैटरियों का स्थान निर्धारित करने में तथा अपने तोपखाने के फ़ायर को शत्रु पर लक्षित करने में ये उपकरणिकाएँ अधिकांश प्रयुक्त होते हैं।
५. स्फुलिंग द्वारा पता लगाने का उपस्कर (Flash Spotting equipment) -- यह शत्रु की बैटरियों के स्थान निर्धारित करने और अपनी तोपों के लिये परास निश्चित करने में प्रयुक्त होता है, जिससे आघात ठीक स्थान पर हो। [एस. के. गुप्त]