तैल, वसा और मोम वसा अम्लों की श्रेणी के कार्बनिक अम्लों के एस्टर हैं। एस्टर कार्बनिक अम्लों और ऐलकोहलों के यौगिक होते हैं। इन दोनों के योग से एस्टर बनता और केवल पानी निकलता है। तैल और वसा में जो ऐलकोहल रहता है, उसे ग्लिसरीन या ग्लिसरोल कहते हैं। इस ऐलकोहल मे तीन हाइड्रॉक्सी (hydroxy) मूलक रहते हैं। इसके एस्टरों को ग्लिसराइड कहते हैं। तेल और वसा में अनेक वसा-अम्ल रहते हैं। मोम में वसा-अम्लों के साथ एक हाइड्रॉक्सी मूलक वाले एलकोहल संयुक्त रहते हैं।
वसा-अम्लों में से कुछ संतृप्त और कुछ असंतृप्त होते हैं। असंतृप्त अम्लों में से कुछ में दो हाइड्रोजन की कमी, कुछ में चार हाइड्रोजन की कमी और कुछ में छह हाइड्रोजन की कमी रहती है। जितना ही अम्ल असंतृप्त होगा उतनी ही अधिक हाइड्रोजन की कमी रहेगी।
ग्लिसरीन में तीन हाइड्रॉक्सी मूलक रहने के कारण यह अम्ल के तीन अणुओं से मिलकर ग्लिसराइड बन सकता है। अम्लों के तीनों प्रकार के रह सकते हैं अथवा विभिन्न प्रकार के। संतृप्त के ग्लिसराइड के गलनांक ऊँचे और असंतृप्त अम्लों के राइड के नीचे होते हैं। यदि ग्लिसरीन के तीनों हाइड्रॉक्सी मूलक टोयरिक अम्ल से संयुक्त हों, तो ऐसे ग्लिसराइड को स्टीयरिन (stearin) कहते हैं। यह ७२� सेंo पर पिघलता है, जब कि ग्लिसरो-डाइस्टीयरेट-मोनो पामिटेट ६२� सेंo पर ही पिघलता है।
श्
समूह क -- संतृप्त श्रेणी
नाम अम्ल |
अणुसुत्र |
असंयुक्त अम्ल का क्वथनाँ सें० में |
ग्लिसराइड का क्वथनांक सें० में |
प्रमुख स्त्रोत |
ब्युटिरिक कैप्रिक लॉरिक मिरिस्टिक पामिटिक स्टीयरिक कारनौविक सेरोटिक मेलिसिक |
का४ हा८ औ२ (C४ H८ O२) का१० हा२०औ२ (C१० H२० O२) का१२ हा२४ औ२ (C१२ H२४ O२) का१४ हा२८ औ२ (C१४ H२८ O२) का१६ हा३२ औ२ (C१६ H३२ O२) का१८ हा३६ औ२ (C१८ H३६ O२) का२४ हा४८ औ२ (C२४ H४८ O२) का२६ हा४२ औ२ (C२६ H४२ O२) का३० हा६० औ२ (C३० H६० O२) |
द्रव ३१.१३ ४३.६ ५३.८ ६२.६ ६९.३ ७४ ७८ ९० |
द्रव द्रव ४५.० ५६.५ ६५ ७२ - ७६.५ ८९ |
घी में ४% घी और नारियल के तेल में नारियल के तेल में ४५% घी में २२% ताड़ के तेल और सूअर के चर्बी में सब वसा में कारनौबा मोम में मधुमक्खी के मोम में मधुमक्खी के मोम में |
श्
समूह ख -- दो हाइड्रोजन की कमी वाले असंतृप्त अम्ल
नाम अम्ल |
अणुसूत्र |
अम्ल का क्वथनांक सें में |
ग्लिसराइड का क्वथनांक सें में |
प्रमुख स्त्रोत |
ओलीइक ईरुसिक |
का१८ हा३४ औ२ (C१८ H१८ O२) का२२ हा४२ औ२ (C२२ H४२ O२) |
१४ ३३ |
द्रव ३१ |
जैतून के तैल में ७० % मछली एवं तोड़ी के तैल में |
श्
समूह ग -- चार हाइड्रोजन की कमी वाले असंतृप्त अम्ल
नाम अम्ल |
अणुसूत्र |
अम्ल का क्वथनांक |
ग्लिसराइड का क्वथनांक |
प्रमुख स्त्रोत |
लिनोलीइक |
का१८ हा३२ औ२ (C१८ H३२ O२) |
- |
- |
बिनौले और सोयाबीन में |
समूह घ -- छह हाइड्रोजन की कमी वाले असंतृप्त अम्ल
नाम अम्ल |
अणुसूत्र |
अम्ल का क्वथनांक |
ग्लिसराइड का क्वथनांक |
प्रमुख स्त्रोत |
लिनोलीनिक आइसोलिनोलीनिक |
का१८ हा३० औ२ (C१८ H३० O२) का१८ हा२० औ२ (C१८ H२० O२) |
- - |
- - |
अलसी के तेल में १०% अलसी के तैल में ६०% |
�
तैल और वसा में जो अम्ल पाए जाते हैं, वे ६ से लेकर १० तक होते हैं। वे पृष्ठ ४२४ पर दी हुई सारणी में हैं।
अधिक महत्व के तैलों में अलसी, बिनौले, एरंड, मूँगफली, महुआ सरसों, तिल, नारियल, ताड़, तुंग, मक्का और तोड़ी के तैल हैं। इन सभी से तैल निकालने की रीति प्राय: एक सी ही है। बीजों को पहले फटक और चालकर साफ करते हैं। फिर उन्हें कोल्हू में पेरते हैं। पहले ठंढे में पेरकर सर्वोत्कृष्ट तैल निकाल लेते हैं, फिर गरम पेरकर कुछ और तेल निकालते और आदि आवश्यकता हुई तो अंत में विलायकों के द्वारा अवशिष्ट तेल भी निकाल लेते हैं। यदि तैल खाद्य तैल है तो ठंढा पेरा हुआ तैल खाद्य में प्रयुक्त करते और उद्योग धंधों, वार्निश, पेंट, साबुन आदि बनाने में अन्य तैलों का उपयोग करते हैं। खाद्य तैल आकर्षक हल्के रंग का, रुचिकर स्वाद का तथा दुर्गंधहीन और स्वास्थ्यकर होना चाहिए।
जांतव तैल और वसा में मछली के तैल, ह्वेल के तैल (जिनसे पाश्चात्य देशों में हाइड्रोजनीकृत वसा बनते हैं तथा जिनका उपयोग खाने और साबनु बनाने में होता है) सूअर के तैल और चर्बी, बकरी, भेड़ या गाय की चर्बी, मछली के यकृत का तैल (जो ओषधियों में काम आता है), स्पर्म तेल (जो स्नेहक में काम आता है) और घी महत्व के हैं। जांतव तैल और चर्बी निकालने की एक ही रीति है। वह है जांतव पदार्थों को पानी के साथ गरम करना। इससे तैल या चर्बी पानी के तल पर इकट्ठी हो जाती है और काछकर निकाली जाती है। मोमों में मधुमक्खी का मोम, कारनौबा मोम, चीनी कीट मोम और लाख मोम महत्व के हैं।
तैल और वसा की प्राप्ति में आसवन का सहारा नहीं लिया जाता। वायु में इनके आसवन से कुछ न कुछ विघटन अवश्य हो जाता है। तैलों को स्थायी तैल भी कहते हैं। कागज पर पड़ा तेल का दाग आप से आप नहीं हटता, जब कि गंध तैल और खनिज तैल के दाग उड़कर छूट जाते हैं, क्योंकि वे वाष्पशील होते हैं और इस कारण आसवन से अन्य पदार्थों से अलग किए जाते हैं। तैल और वसा में रसायनत: कोई अंतर नहीं है। दोनों ही ग्लिसराइड हैं। अंतर केवल उनकी भौतिक दशा में होता है। सामान्य ताप पर तैल द्रव्य होते हैं और वसा अर्ध ठोस या ठोस। यह अंतर वसा में संतृप्त वसा अम्लों के ग्लिसराइड के अधिक मात्रा में रहने के कारण होता है।
पेंट और वार्निश की दृष्टि से व्यवसायियों ने तैल को तीन वर्गों में विभक्त किया है -- शोषण तैल, अर्ध-शोषण तैल और अ-शोषण तैल। ऐसा विभाजन असंतृप्तता के कारण हुआ है। शोषण तैल या अर्ध-शोषण तैल वायु के आक्सिजन को ग्रहण कर सूख जाते हैं। द्मशोषण तैल ऐसा नहीं करते।
तैलों में रंग होता है। यह रंग बाह्य पदार्थों के कारण होता है तथा बहुत कुछ या पूर्णतया हटाया जा सकता है। ऐसा तैलों को फुलर मिट्टी, हड्डी के कोयले, अवक्षिप्त सिलिका, सक्रियकृत कार्बन या इसी प्रकार के अन्य सूक्ष्म विभाजित द्रव्यों के उपचार से किया जाता है। तैलों की गंध भी भाप द्वारा बहुत कुछ दूर की जा सकती है।
तैल और वसा के विश्लेषण महत्व के हैं। विश्लेषणांकों से उनकी प्रकृति और उनमें मिलावट का पता लगता है। साधारणतया उनके विशिष्ट गुरुत्व, वर्तनांक, श्यानता, साबुनी-करण-मान और आयोडीन मान निर्धारित किए जाते हैं। तैल और वसा के अपने विशिष्ट गुरुत्व और वर्तनांक होते हैं। साबुनीकरण मान पोटाशियम हाइड्राक्साइड का मिलिग्राम में वह भार है जो एक ग्राम वसा या तैल के निराकरण में लगता है। उच्च अणुभारवाले वसा अम्लों का साबुनीकरण मान नीचा होता है और निम्न अणुभारवाले वसा अम्लों का साबुनीकरण मान उँचा होता है। सब तैलों का अपना अपना साबुनीकरण मान होता है। आयोडीन मान से तैलों की असंतृप्तता मालूम होती है। १०० ग्राम तैल में जितने ग्राम आयोडीन का अवशोषण होता है वही उस तैल का आयोडीन मान है। विश्लेषण के इन अंकों और पुष्टिकारी परीक्षणों से तैल की प्रकृति, मिलावट और स्त्रोत का पता लगता है।
तैल और वसा के उपयोग -- तैल और वसा बहुत अधिक मात्रा में खाने और पकाने में काम आते हैं। साबुन के निर्माण में भी ये पर्याप्त मात्रा में खपते हैं। पेंट और वार्निश में शोषण तैल का उपयोग होता है। ओषधियों, केशतैलों, शृंगार सामग्रियों, अंगरागों, बरसाती कपड़े और टाट के निर्माण, स्नेहकों के निर्माण, छींट की छपाई, रंगसाजी, चमड़े की पकाई आदि में पर्याप्त तैल लगता है।
अलसी तैल -- अलसी अनेक देशों में और बड़ी मात्रा में भारत में भी उपजती है। बीज से तैल पेरकर निकाला जाता है। बीज में लगभग ३४ प्रति शत तैल रहता है। बीज को कोल्हू में साधारणतया ४०० पौंड दबाव पर पेरते हैं। इसकी खली में ५ से १० प्रति शत तैल रह जाता है। खली पशुओं को खिलाने में काम आती है। यह अच्छी खाद भी है।
अब तैल का परिष्कार होता है। प्रेस में कपड़े या फ्लानेल से छानते हैं। इस प्रकार कच्चा अलसी का तैल प्राप्त होता है। इसका रंग पीला भूरा होता है। गरम कर इसका जल निकालते हैं, फिर फुलर मिट्टी डालकर, डक कपड़े (duck cloth) या फ्लानेल या मोटे कागज द्वारा, छानते हैं। फुलर मिट्टी से रंग के साथ साथ कुछ निलंबित अपद्रव्य भी निकल जाते हैं। वार्निश के लिये तैल को भापकुंडली से गरम कर, कुछ समय तक वायु प्रवाहित कर, छान लेते हैं। ऐसे तैल में 'काय' आ जाता है।
अलसी का तैल वायु में धीरे धीरे सूखकर कड़ा होता है। वायु में इसका आक्सीकरण होता है, पर यह क्रिया बड़ी मंद होती है। तैल में यदि थोड़ा, सीस, मैंगनीज़ या कोबाल्ट के ऑक्साइड, जो उत्प्रेरक का काम करते हैं, मिलाकर गरम करें तो ऐसा तैल बहुत शीघ्र सूख जाता है। इसे उबाला हुआ अलसी का तैल कहते हैं। अलसी का ताजा तैल खाया भी जाता है। खाद्य तैल ठंढे में पेरा हुआ रहता है, बरसाती कपड़े और टाट के बनाने, मुद्रण की स्याही, मुलायम साबुन आदि में भी अलसी का तैल लगता है।
नारियल का तैल -- नारियल अनेक देशों, विशेषत: दक्षिणी भारत में विशेष रूप से उपजता है। इसकी सूखी गिरी को कहीं कही कोप्रा कहते हैं। भारत से पर्याप्त कोप्रा का निर्यात होता है। गिरी का तैल प्राय: ६०�सेंo पर निकाला जाता है। इसे कोल्हू में पेर कर, अथवा उबलते जल में रखकर पानी के तल पर इकट्ठे हुए तैल को, निकाल लेते हैं। यह मूल्यवान् खाद्य तैल है। इसका स्वाद कुछ लोगों को अधिक पसंद आता है। मिठाई बनाने में यह विशेष रूप से प्रयुक्त होता है। इसके हाइड्रोजनीकरण से वनस्पति घी तैयार होता हैं, जो उत्कृष्ट समझा जाता है। इसकी कच्ची गिरी में प्राय: ४० प्रतिशत और सूखी गिरी में ६३-६५ प्रतिशत तक तेल रहता है। तेल में ४० से ५० प्रतिशत तक लौरिक अम्ल रहता है। सोडियम लौरेट अच्छा साबुन समझा जाता है। यह अधिक घुलता और कठोर भी होता है। यही कारण है कि नारियल के तैल का साबुन उत्तम होता है। नारियल की पेरी हुई खली में आठ प्रतिशत तेल और २० प्रतिशत प्रोटीन रहते हैं।
मूँगफली का तेल -- मूँगफली समस्त भारत और अफ्रीका में उपजती है। मूँगफली के पौधे की जड़ में गाँठें होती है, जिनके ऊपर छिलका होता है और अंदर लंबी गुद्दी होती है, जिसमें ४० से ५० प्रतिशत तक तैल रहता है। ठंढी और उष्ण गुद्दी को बारी बारी से पेरकर तैल निकालते हैं। ठंढी गुद्दी में से जो तैल (प्राय: १८ प्रतिशत) निकलता है, वह खाना पकाने के लिये सर्वश्रेष्ठ होता है। उसका स्वाद भी रुचिकर होता है। उष्ण गुद्दी से निकला तैल जलाने और साबुन बनाने में खर्च होता है। इसकी खली में ८ प्रतिशत तैल और ५ से लेकर ८ प्रतिशत तक नाइट्रोजन और १ से १.५ प्रति शत तक फॉस्फोरिक अम्ल रहते हैं। इसकी खली पशुओं के लिये अच्छा खाद्य है।
बिनौले का तैल -- कपास के पौधे से प्राप्त प्रति किलोग्राम रुई के साथ दो किलोग्राम बिनौला रहता है। बिनौले की गुद्दी में प्राय: ३५ प्रतिशत तैल रहता है, जो बिनौले को पेरने से निकलता है। बिनौले में रंगीन पदार्थ रहने से तैल का रंग गहरा पीला या कुछ ललाई लिए पीला होता है। पर थोड़े से दाहक सोडे के उपचार से इसका रंग, और बहुत कुछ गंध भी, निकल जा सकती है। फुलर मिट्टी के उपयोग से भी खाद्य तैल की सफाई होती है। इस तैल के हाइड्रोजनीकरण से 'वनस्पति' प्राप्त होता है, जो खाने में काम आता है। यह अर्धशोषण तैल है। इसका साबुन कठोर होता है। खली पशुओं को खिलाई जाती है।
एरंड का तैल -- एरंड भारत और अन्य उष्ण देशों में उपजता है। ऊपर का छिलका निकाल देने पर जो गुद्दी प्राप्त होती है, उसी में तैल रहता है। बीज में ४५ से ५० प्रतिशत तक तैल रहता है। ठंढे में निकाला तैल रेचन के लिये औषधियों में प्रयुक्त होता है। यह अवशोषण तैल है। इसमें रिसिनोलीइक (ricinoleic) नामक एक हाइड्रॉक्सि अम्ल रहता है, जिससे इसकी श्यानता अधिक रहती है। खनिज अम्लों के साथ यह अच्छा स्नेहक बनता है। सैलूलॉयड और प्रलाक्षारस में सुघट्यकारी (plasticizer) का काम देता है। सांद्र सलफ्य्ूरिक अम्ल के साथ ३५ सेंo से नीचे ताप पर उपचारित करने से टरकी रेड तैल या विलेय 'एरंड तैल' प्राप्त होता है। कुछ धोकर और ऐमोनिया से अपर्याप्त निराकरण से इसे प्राप्त करते हैं। यह रंगसाजी, छींट की छपाई और चमड़े के कमाने में काम आता है।
महुआ का तैल -- इसे इलिपी तेल या महुआ मक्खन भी कहते हैं। यह महुए के पेड़ के बीज से प्राप्त होता है। यह मक्खन से प्राप्त होता है। यह खाद्य तैल है। साबुन और मोमबत्ती के लिये यह एक अच्छा समझा जाता है। इसकी खली विषैली होती है। अत: केवल खाद्य के लिये ही उपयुक्त हो सकती है।
तिल का तैल -- तिल भारत, चीन, पश्चिम अफ्रीका और अन्य देशों में उपजता है। तिल में लगभग ५० प्रति शत तेल रहता है। यह तेल खाने, पकाने और बाल में लगानेवाले तैल में खपता है। इसका साबुन भी अच्छा बन सकता है। इसकी खली पशुओं को खिलाई जाती है। विलायक द्वारा तैल निकाले तिल की खली अच्छी खाद होती है।
तोड़ी का तैल -- भारत के अनेक प्रदेशों में तोड़ी उपजती है। बीज में ४५ से ५० प्रतिशत तक तैल रहता है। कोल्हू में पेरकर, या विलायक द्वारा, तैल निकालते हैं। यह प्रधानतया खाने और पकाने में व्यवहृत होता है। दीप जलाने और स्नेहक में भी कुछ खपता है। इसकी खली खाद में काम आती है। तैल में कुछ गंध रहती है। बाजारों में कई किस्म के तोड़ी के तैल बिकते हैं।
सरसों का तैल -- सरसों दो प्रकार की होती है: (१) काली और (२) सफेद या पीली। काली सरसों में ३० से लेकर ३३ प्रति शत तक तैल रहता है तथा पीली या सफेद सरसों में २५ से लेकर ३५ प्रति शत तक। इसके तैल में विशेष गंध ऐलिलआसोथायोसायनेट (allylisothiocyanate) नामक गंधवाले कार्बनिक यौगिक के कारण, होती है। यह भोजन पकाने और खाने में काम आता है। इसकी खली पशुओं को खिलाई जाती है।
जैतून का तैल -- सुस्वाद के कारण खाद्य तैलों में जैतून का तैल सर्वोकृष्ट समझा जाता है। जैतून के वृक्ष इटली, फ्रांस, स्पेन, ऐल्जीरिया, ट्यूनिस और दक्षिणी कैलिफोर्निया में उपजते हैं। फल को ठीक पकने के पहले काट लिया जाता है। फलों में ३५ से ६० प्रतिशत तक तैल रहता है। ठंडे में पेरने से सर्वोकृष्ट खाद्य तैल प्राप्त होता है। फलों को कभी कभी गुठली के साथ और कभी कभी गुठली निकालकर पेरते हैं। फलों को मलमल की थैली में भरकर, बेलनाकार पिंजड़े में रखकर, इस्पात की चादर से घेर कर, भारी दबाव से पिंजड़े को दबाते हैं। तैल निकलकर द्रोणी में इकट्ठा होता है। तैल का रंग हल्का पीला होता है। तैल निकलने के बाद पिंजड़े में फल के बचे हुए अंश को दी तीन बार दबाकर और गरम पानी डालकर भी और तैल निकाल लेते हैं। अंत में कार्बन डाइसल्फाइड द्वारा अवशिष्ट तैल निकालते हैं। रंगीन तेल साबुन में काम आता है।
तुंग तैल -- इसे 'चीनी काठ तैल' भी कहते हैं। बीज में ५३ प्रतिशत तक तैल रहता है। यह तैल बहुत जल्द सूख जाता है। वार्निश में इस तेल का उपयोग दिन दिन बढ़ रहा है।
जांतव तैल और वसा
मछली का तैल -- मछली या मछली के कुछ अंगों को पानी में उबालने से तैल पानी के तल पर इकट्ठा होता है और निकाल लिया जाता है। अवशेष अच्छी खाद होता है। सस्ते पेंटों और साबुन में यह तेल काम आता है।
कॉड यकृत तैल -- 'कॉड' (Cod) नामक मछली के यकृत से जो तैल प्राप्त होता है उसमें विटामिन 'ए' और'डी' होने के कारण वह औषधियों में प्रयुक्त होता है।
तिमि (ह्वेल) तैल -- ह्वेल समुद्र में पाया जाता है। एक बड़े ह्वेल से ३०० से लेकर ५०० गैलन तक तैल प्राप्त हो सकता है। यह तैल दीप जलाने, चमड़े की परिसज्जा, साबुन, स्नेहक आदि बनाने में प्रयुक्त होता है।
सूअर का तैल और वसा -- सूअर के मांस पर दबाव डालने पर गरम पानी की सहायता से तैल और वसा प्राप्त होती है। अन्य पशुओं, बकरी, भेड़ आदि, की वसा भी इसी प्रकार प्राप्त होती है।
गोवसा, मक्खन और घी -- गोवसा वहीं प्राप्त होती है जहाँ के लोग गोमांस का भक्षण करते हैं। मक्खन का निर्माण हर देश में होता है। दूध के मथने से अपकेंद्री पृथक्कारक में मक्खन प्राप्त होता है। मक्खन में लगभग ८३ प्रतिशत वसा और शेष में जल और लवण रहते हैं। मक्खन का उपयोग खाने में होता है। मक्खन में विटामिन ए और डी रहते हैं।
दूध में लगभग ३.६ प्रति शत वसा रहती है, जिससे घी प्राप्त होता है। दूध से मलाई बनाने में दूध, का ३५ से ४५ प्रतिशत घी मलाई में आ जाता है। दूध से सीधे क्रीम निकालकर अथवा दूध को जमा और दही बनाकर घी निकाला जाता है। दही को मथनी द्वारा मथने से मक्खन निकलता है और उससे घी बनता है। गरमकर घी को सुखा लेते हैं ताकि वह पूतिगंधी न हो जाय। घी में एक विशेष गंध होती है, जिसका कारण 'ब्युटिरिन' बतलाया जाता है। असंयुक्त ब्युटिरिक अम्ल के कारण घी में पूतिगंधता आ जाती है। खाने में बहुत अधिक मात्रा में घी का उपयोग भारत और मिस्र में होता है (देखें घी)।
मोम
स्परमासेटि -- स्पर्म ह्वेल के मस्तक में एक तैल होता है, जिसे स्पर्म तैल कहते हैं। इस तैल को ठंढा करने से ठोस मोम, स्परमासिटि, पृथक् हो जाता है। यह औषधियों और मोमबत्ती में काम आता है। तैल स्नेहक में भी लगता है।
कारनौबा मोम -- ब्राजिल के ताड़ के पत्ते पर यह मोम पाया जाता है। पत्ते को सुखाकर, मोम को छीलकर उसकी सफाई करते हैं। सफाई में कोयला या फुलकर मिट्टी, अथवा क्रोमिक अम्ल का भी, प्रयोग कर सकते हैं। मोमबत्ती, जूते की स्याही, ग्रामोफोन के रेकार्ड, वार्निश, टाइपराइटर के कार्बन-कागज आदि के निर्माण में यह प्रयुक्त होता है। सब मोमों से यह अधिक कड़ा होता और १०५�सेंo पर पिघलता है।
मधुमक्खी का मोम -- मधु निकालने पर मधुमक्खी के छत्ते को गरम पानी में गरम करने से मोम पिघलकर निकल आता है। विभिन्न स्थानों के मोम एक से नहीं होते और उनके संघटन में भी अंतर रहता है। औषधियों, पालिशों, मोमबत्ती आदि बनाने में यह काम आता है।
इन मोमों के अतिरिक्त चीनी कीड़ों के मोम, मोंटाना मोम, कैंडेलिला मोम, पटसन मोम, बिनौला मोम, समुद्रघास मोम, लाख मोम आदि भी होते हैं।
उपर्युक्त मोम वानस्पतिक या जांतव मोम हैं। ये ऊँचे अणुभारवाले वसा अम्लों और ऊँचे अणुभारवाले ऐलकोहलों के एस्टर होते हैं। ऐलकोहलों में कार्बन के २४, २६, २८, ३०, ३२ और ३४ कार्बन परमाणु रहते हैं। वसा अम्लों में भी ऐसे ही कार्बन परमाणु के अम्ल रहते हैं। अल्प मात्रा में ऊँचे अणुभारवाले हाइड्रोकार्बन भी इनमें रहते हैं।
एक दूसरे प्रकार का मोम, जिसमें केवल ऊँचे अणुभारवाले हाइड्रोकार्बन रहते हैं, पेराफिन या पैराफिन मोम हैं। यह खनिज तैलों अथवा अन्य तैलों से प्राप्त होता है (देखें पैराफिन)।
तैलों का हाइड्रोजनीकरण
तैल द्रव होते हैं। हाइड्रोजनीकरण से उन्हें अर्धठोस, अथवा ठोस, में परिणत कर सकते हैं। ऐसे उपचारित अर्धठोस या ठोस को वनस्पति घी या केवल घी कहते हैं। ये खाना पकाने और साबुन बनाने में काम आते हैं।
वनस्पति घी बनाने में तैल की सफाई करते हैं, फिर उसमें निकल का चूर्ण डालकर १२०�-१५०�सेंo ताप तक गरम कर शुद्ध हाइड्रोजन पारित करते हैं। तैल को बराबर प्रक्षुब्ध करते रहते हैं। चूर्ण के स्थान में निकल की जाली भी प्रयुक्त हो सकती है। निकल की मात्रा तैल का ०.५ से १ प्रति शत रहती है। निकल से अधिक क्रियाशील पैलेडियम होता है। यह तेल के १:१,००,००० के बराबर डाला जाता है, पर मँहगा होने के कारण इसका उपयोग नहीं होता। इससे क्रिया संपन्न होने में समय भी कम लगता है।
निकल चूर्ण बनाने के अनेक तरीके हैं। निकल चूर्ण कई बार प्रयुक्त हो सकता है; पर इसकी सक्रियता धीरे धीरे कम होती जाती है और कुछ समय के बाद बिलकुल नष्ट हो जा सकती है। निकल चूर्ण 'कीसलगुर' नामक सरध्रं खनिज पर निक्षिप्त रहता है।
हाइड्रोजनीकरण से तैल के असंतृप्त ग्लिसराइड संतृप्त ग्लिसराइड में परिणत हो जाते हैं। यहाँ जो क्रिया होती है, वह तापक्षेपक है। क्रिया प्रारंभ होने के बाद बहुत ऊष्मा निकलती है। इस कारण तैल को कृत्रिम रीति से ठंढा रखना पड़ता है। क्रिया संपन्न हो जाने पर उत्पाद को ठंढा कर तथा छानकर निकल को निकाल लेते हैं। [फूलदेवसहाय वर्मा]