तुलसीदास जीवन वृत्त : अपने विश्वविख्यात ग्रंथ रामचरितमानस के महाकवि के रूप में प्रख्यात महात्मा तुलसीदास का जन्म निर्धन ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके माता पिता तथा गोत्र आदि के संबंध में प्रामणिक रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है।
उनका जन्मस्थान राजापुर माना जाता है जो बाँदा जिले (उत्तरप्रदेश) में है। किंतु इधर सोरों, जिला एटा (उत्तर प्रदेश) में उनका जन्मस्थान होने के प्रमाण प्रकश में लाए गए हैं। पर वस्तुस्थिति यह है कि इस पक्ष के जो प्रमाण दिए जा रहे हैं, उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। तुलसीदास जी संभवत: कुछ समय तक सोरों मे रहे थे, यह रमचरितमानस के इस दोहे से निश्चित सा ज्ञात होता है --
मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकर खेत।
समुझी नहीं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत।।
किंतु यह सूकर खेत कहाँ है और उनका जन्म भी सूकरखेत (सोरों) में हुआ था, यह उनके इस आत्मोल्लेख से स्पष्ट नहीं होता। राजापुर में तुलसीदास का एक स्थान है जो वहाँ के एक उपाध्याय घराने के अधिकार में रहा है। इस उपाध्याय घराने के पास कुछ शाही सनदें और फर्मान हैं, जिनमे तुलसीदास के राजापुर के उक्त स्थान के लिये उस घराने के लोगों को कुछ राजकीय सुविधाएँ प्राप्त होती रही हैं। इसके अतिरिक्त हाथरस के संत तुलसी साहब (१८२०-१९००) ने 'घटरामायण' में लिखा है कि वही पूर्ववर्ती जन्म में 'रामचरितमानस' के रचयिता तुलसीदास थे और उनका जन्म राजापुर में हुआ था, जिससे ज्ञात होता है कि संo १८२०-१९०० के लगभग राजापुर से काफी दूर दूर तक राजापुर ही तुलसीदास के जन्मस्थान माना जाता था। इसलिये सोरों की अपेक्षा राजापुरके तुलसीदास के जन्मस्थान होने की संभावना ही अधिक लगती है।
तुलसीदास की जन्मतिथि कुछ अधिक निर्विवाद रही है। उनकी एक शिष्यपरंपरा में, जो मिर्जापुर में चली, संदृ १५८९ उनका जन्मसंवत् मानी जाती रही है। उपर्युक्त संत तुलसीसाहब ने भी 'घटरामायण' में जहाँ राजापुर को अपने पूर्ववर्ती जन्म का स्थान बताया, संo १५८९, भादों शुo १२, मंगलवार की तिथि अपने उक्त जन्म की दी है। इस तिथि का विस्तार गणना से शुद्ध आता है, इसलिये असंभव नहीं है कि यह तिथिविस्तार संत तुलसीसाहब को किसी विश्वसनीय सूत्र से प्राप्त हुआ हो, किंतु उनकी दी हुई सभी तिथियों के विस्तार गणना से ठीक नहीं उतरते, इसलिये इस तिथि के विस्तार के बारे में पूर्ण निश्चय के साथ कहना कठिन है कि यह किसी विश्वसनीय सूत्र से ही प्राप्त हुआ होगा। फिर भी तुलसीदास के जीवन के जितने भी तथ्य ज्ञात हैं, १५८९ की तिथि का उनसे पूरा सामंजस्य है। इसलिये यह तिथि वास्तविक जन्मतिथि ज्ञात होती है।
तुलसीदास का बाल्यकाल बड़ी ही कठिनाइयों में बीता। उन्होंने लिखा है :
मात पिता जग जाय तज्यौ विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई।
नीच निरादर भाजन कादर कूकर टूकनि लांगि ललाई।। (कवितावली ७।५७)
तनु जन्यो कुटिल कीट ज्यों तज्यों मातु पिता हू। (विनयपत्रिका २७५)
बारे तै ललात बिललात द्वार द्वार दीन
जानत हों चारि फल चारि ही चनक को। (कवितावली ७।७३)।
जिससे यह प्रगट है कि बाल्यावस्था में ही तुलसीदास माता पिता के आश्रय से वंचित हो गए और भिक्षा माँगकर उदरभरण करने लगे। इसी अवस्था में उन्हें किसी हनुमानमंदिर का आश्रय मिल गया, यह उनके एक आत्मोल्लेख (हनुबाहुक, छंद २९) से ज्ञात होता है। कदाचित् उस मंदिर के साथ कोई खोंची लगी हुई थी, जिसे उगाहकर वे अपना निर्वाह करने लगे थे (विनयपत्रिका ३३)। यह क्रम कब तक चलता रहा, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
गोस्वामी तुलसीदास ने बाल्यावस्था में ही अपने गुरू के मुख से रामकथा सुनी और बार बार सुनी, यह 'मानस' के ऊपर उदघृत दोहे में उन्होंने स्वयं कहा है। यह गुरु उनके कौन थे, यह भी निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। सामान्यत: यह प्रसिद्ध रहा है कि उनके गुरु का नाम नरहरि या नरहरिदास था, किंतु उस युग में, जिसमें तुलसीदास हुए, इस नाम के अनेक महात्मा मिलते हैं। इसलिये नरहरि नाममात्र से हमें उनके गुरु के बारे में कुछ अधिक नहीं ज्ञात होता। इन गुरु ने उन्हें रामकथा तो बार बार सुनाई ही, उन्हें रामभक्ति की भी दीक्षा दी--
'गरु कह्यो रामभजन नीको मोहि लगत राजडगरो सो।' (विनयo १७३)
इसके अनंतर तुलसीदास कुछ समय तक कदाचित् गार्हस्थ्य जीवन में भी रहे, किंतु बचपन से ही वैराग्य और रामभक्ति के जो संस्कार उनके मानस पर पड़ चुके थे, उनके कारण वे गार्हस्थ्य में संभवत: अधिक समय तक टिक न सके और पुन: लौटकर अपनी रामभक्ति की साधना में लग गए।
वैराग्य के अनंतर की उनकी साधनास्थली संभवत: चित्रकूट थी। अपनी १६२१ विo की रचना 'रामाज्ञाप्रशन' में तुलसीदास ने कहा है -
पय पावनि बन भूमि भलि, सैल सुहावनि पीठि।
रागिहि सीठि विसेषि थलि, विषय बिरागिहि मीठि।। (२.६.१)
यहाँ पर वे संभवत: काफी समय तक रहे, क्योंकि 'रामाज्ञाप्रश्न' में ही उन्होंने लिखा है :
पय नहाइ फल खाइ जपु राम नाम षट मास।
सकल सुमंगल सिद्धि सब करतल तुलसीदास।। (७.४.७)
'रामचरितमानस' का प्रणयन संo १६३१ में उन्होंने अयोध्या में प्रारंभ किया था : संवत सोरह सै एकतीसा। करौं कथा हरिपद धरि सीसा।
नौमी भौमवार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा। (१.३४) किंतु उसके किष्किंधाकांड की रचना उन्होंने जब की उस समय वे काशीसेवन कर रहे थे : मुक्ति जन्म महि जानि, ज्ञान खानि अघ हानि कर। जहँ बस संभु भवानि, सो कासी सेइअ कस न।। (४.१) तदनंतर कुछ अन्य तीर्थों की यात्रा समय समय पर करते हुए भी वे आजीवन संभवत: काशी में ही रहे और यहीं उन्होंने अपनी जीवनलीला समाप्त की। कहा जाता है, संo १६८० में उन्होंने देहत्याग किया।
काशी में उनका विरोध बहुत हुआ। यहाँ का ब्राह्मण समुदाय उनकी जाति पाँति के बारे में भाँति भाँति की बातें उड़ाता था और उनकी साधुता को निरा ढोंग कहता था, किंतु तुलसीदास इस विरोध से विचलित नहीं हुए। अपनी प्रसिद्ध रचनाओं -- 'कवितावली' और 'विनयपत्रिका' में उन्होंने इस विरोध का स्पष्ट उल्लेख किया है ( कविo ७.१०६, ७.१०८ तथा विनयo ७६)।
काशी में उस समय और भी कुछ उत्पात होते रहे, जिनका उल्लेख उन्होंने कवितावली में किया है। महामारी का प्रकोप हुआ था और वह शांत हुआ (कविता ७.१७३-१७६)। जीवन के अंतिम वर्षों में वे वातव्याधि से पीड़ित रहा करते थे जिसके कारण उनके शरीर भर में पीड़ा हुआ करती थी। बाहुपीड़ा से उन्हें बहुत दिनों तक कष्ट रहा, जिसके शमनार्थ उन्होंने 'हनुमानबाहुक' की रचना की। अंतिम दिनों में वे बरतोर के फोड़ों से पीड़ित रहे जो शरीर भर में निकल आए थे (हनुमानo ४०) और संभ्वत: उन्हीं की कठिन वेदना से उनका देहांत हुआ।
ऊपर दिए गए तुलसीदास के जीवनवृत्त पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होगा कि उन्हें वात्सल्य प्राप्त नहीं हुआ, स्त्री का माधुर्य प्राप्त हुआ या नहीं, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, और जिस जातिवाद का उन्होंने जोरों से समर्थन किया, उसी जातिवाद ने उनकी जाति पाँति का टेढ़ा प्रश्न उनके सामने ला खड़ा किया। इन तथ्यों ने यदि उनकी मानसिक प्रवृत्तियों को भी प्रभावित किया हो, तो आश्चर्य न होगा। जीवन के कोमल पक्षों का उनकी कृतियों में यथेष्ट विकास हुआ नहीं दिखाई पड़ता। 'गीतावली' के कुछ गीतों तथा 'कवितावली' के कुछ छंदों में ही वात्सल्य और माधुर्य के कुछ चित्र उपस्थित करने का उन्होंने यत्न किया है किंतु उन चित्रों में वह जान नहीं है जो अन्य हिंदी कवियों के वात्सल्य और माधुर्य के चित्रों में है। इस वास्तविकता के और भी कारण हो सकते हैं, किंतु इसके मूल में जीवन की उपर्युक्त परिस्थितयों का भी हाथ हो सकता है, इससे इनकार करना कठिन होगा।
रचनाएँ -- तुलसीदास के नाम से जो रचनाएँ मिलती हैं, वे निम्नलिखित हैं : (१) रामललानहछू, (२) रामाज्ञाप्रश्न, (३) जानकीमंगल, (४) रामचरितमानस, (५) पार्वती मंगल, (६) गीतावली, (७) कृष्णगीतावली, (८) विनय-पत्रिका, (९) बरवै रामायण, (१०) दोहावली, (११) कवितावली, (१२) हनुमानबाहुक, (१३) वैराग्यसंदीपिनी, (१४) सतसई, (१५) कंडलिया रामायण, (१६) संकावली, (१७) बजरंगबाण, (१८) बजरंगसाठिका, (१९) भरतमिलन, (२०) विनयदोहावली, (२१) बृहसातिकांड, (२२) छंदावली रामायण, (२३) छप्पय रामायण, (२४) धर्मराय की गीता, (२५) ध्रुवप्रश्नावली, (२६) गीताभाषा, (२७) हनुमान स्तोत्र, (२८) हनुमानचालीसा, (२९) हनुमानपंचक, (३०) ज्ञानदीपिका, (३१) राममुक्तावली, (३२) पदबंद रामायण, (३३) रसभूषण, (३४) सारणी तुलसीदास जी की, (३५) संकटमोचन, (३६) सतभक्त उपदेश, (३७) सूर्यपुराण, (३८) तुलसीदास जी की बानी और (३९) उपदेशदोहा। किंतु इनमें से केवल प्रथम बारह प्रामाणिक रूप से उनकी मानी जाती हैं, शेष रचनाएँ संदिग्ध हैं। ऐसा ज्ञात होता है कि तुलसीदास की रचनाओं की लोकप्रियता के कारण अनेक रचनाएँ उनके नाम से बनकर साहित्यक्षेत्र में आ गई। उपर्युक्त प्रथम बारह रचनाओं का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है।
रामलला नहछू -- इस रचना के दो पाठ प्राप्त हुए हैं -- एक वह जो प्रकाशित मिलता है और जिसमें २० चतुष्पदियाँ हैं तथा दूसरा उससे छोटा पाठ, जिसकी अभी तक केवल एक प्रति मिली है और जिसमें केवल १३ चतुष्पदियाँ हैं। इस रचना में सोहर छंदों में हैं राम के विवाह के नहछू -- नख काटने की एक रीति -- का वर्णन हुआ है। दोनों पाठों में एक बड़ा अंतर यह है कि जबकि बड़े पाठ में इस अवसर पर आई हुई पावनी जातियों की स्त्रियों -- लोहारिन, अहीरिन, मोचिन आदि के हाव भाव कटाक्षादि का वर्णन दिया गया है, और दूलह के पिता दशरथ को अहीरिन के जोबन पर मुग्ध हाता दिखाया गया है, छोटा पाठ इस वर्णन से मुक्त है। दूसरी ओर छोटे पाठ में नाइन के अपने नेग के लिये ठनगन करने का अच्छा वर्णन हुआ है। इस छोटे पाठ में लोकगीतों के तत्व भी अधिक मात्रा में सुरक्षित हैं। अत: संभावना यह है कि यह छोटा पाठ मूल रचना के अधिक निकट होगा। रचना बोलचाल की अवधी में है और सरस है। इसमें रचनातिथि नहीं दी हुई है किंतु यह तुलसीदास की प्रथम रचनाओं में से लगती है।
रामाज्ञाप्रश्न -- यह रचना प्रश्न संबंधी है; किसी कार्य में सफलता मिलेगी या नहीं, परिणाम सुखमय होगा या दु:खमय इस प्रकर के प्रश्नों का उत्तर देने के लिये ही इसके दोहों की रचना की गई है। इसमें सात दोहों के सप्तक और सात सात सप्तकों के सात सर्ग हैं। किंतु यह प्रश्नविचार रामकथा के एक संक्षिप्त विवरण के साथ प्रस्तुत किया गया है और प्रत्येक दोहे के प्रथम चरण में रामकथा का कोई विवरण है और दूसरे चरण में प्रश्नविचार है। प्रथम तीन सर्गों में रामजन्म से लेकर संपाती से वानरयूथ की भेंट तक की कथा देने के अनंतर परवर्ती तीन सर्गों में पुन: रामजन्म से कथा प्रारंभ कर सीता के अवनिप्रवेश तक की कथा कही गई है। इनके अनंतर सातवें सर्ग में रामकथा के स्फुट प्रसंगों को लेकर प्रश्नविचार किया गया है। इस प्रकर ज्ञात होगा कि इस कृति की रचना में काव्यत्व का दृष्टिकोण नहीं था, दृष्टिकोण प्रश्नविचार के आश्रय से रामकथा के प्रचार का था। यह रचना अवधि में है। इस रचना में सांकेतिक शब्दावली में तिथि दी हुई है, जो संo १६२१ है। 'नहछू' की तुलना में इस रचना में शैली में कुछ प्रौढ़ता है। 'रामचरितमानस' की शैली इसी का विकसित रूप है। कुछ पहले तक इसकी एक प्रति संo १६५५ विo की कवि के हस्ताक्षरों के युक्त विद्यमान थी जो पीछे अप्राप्य हो गई।
जानकीमंगल -- इस रचना में सोहर छंदों में राम सीता का विवाह वर्णित है। रचना के प्रकाशित पाठ में १९२ द्विपदियाँ और २४ हरिगीतिकाएँ हैं। इस रचना का एक अन्य पाठ भी मिलता है, किंतु वह तुलसीदास की नहीं, वास्तव में किन्हीं बालकृष्ण की रचना है। राम-सीता-विवाह का वर्णन इस रचना में उतने ही विस्तार से किया गया जितने विस्तार से वह रामचरितमानस में मिलता है। दोनों की शब्दावली और उक्तियों में भी काफी साम्य है। किंतु कथा में कुछ अंतर है। उदाहरणार्थ रामचरितमानस में परशुराम धतुर्भंग के बाद ही आ पहुँचते हैं, किंतु इसमें वे बारात के वापस होने पर अयोध्या के मार्ग में मिलते हैं। 'रामाज्ञाप्रश्न' में भी 'जानकीमंगल' की भांति ही परशुराम-राम मिलन अयोध्या के मार्ग में होता है। रचना में मिथि नहीं दी हुई है, किंतु अन्य बातों में इसके 'रामचरितमानस' के बहुत निकट होते हुए भी कथाविस्तारों में 'रामाज्ञाप्रश्न' की संनिकटता के कारण इसका रचनाकाल उक्त दोनों रचनाओं के मध्य में माना जा सकता है। यह रचना सरस है और अवधी में है।
रामचरितमानस -- तुलसीदास की सर्वप्रमुख कृति 'मानस' है। इसकी रचना संo १६३१ में प्रारंभ हुई थी। इसकी समाप्तितिथि निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। यह सात कांडों में, जिन्हें सोपान कहा गया है, विभक्त है। इनमें चौपाइयों तथा दोहों का प्रयोग मुख्य रूप से किया है, यद्यपि कुछ अन्य छंद भी बीच बीच में आते रहे हैं। प्राय: आठ या अधिक अर्धालियों के अनंतर एक दोहा आता है, और ऐसे दोहों की संख्या १०७४ है। इसमें राम की संपूर्ण जीवनगाथा छंदोबद्ध हुई है। यद्यपि रचना की सामान्य भाषा अवधी है तथापि वह बोलचाल की अवधी न होकर साहित्यिक अवधी है, जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा अर्धतत्सम शब्दों की संख्या बहुत है। आधुनिक भारतीय भाषाओं के समस्त साहित्य में जितनी लोकप्रियता इस रचना को प्राप्त हुई उतनी किसी अन्य रचना को नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण तुलसीदास की काव्यरचना संबंधी अद्भुत प्रतिभा के सथ जीवन के अत्यंत स्वस्थ और व्यावहारिक आदर्शवाद का मेल है। और इसी कारण यह रचना भारतीय साहित्य ही नहीं, विश्वसाहित्य में स्थान पाने की अधिकारिणी हुई है। (रामचरितमनस के संबंध में विशेष देखिए 'रामचरितमानस')।
पार्वतीमंगल -- इस रचना का विषय शिव-पार्वती-विवाह है। यह सोहर छंदों में निर्मित हुई है। इसमें १४८ पंक्तियाँ और १६ हरिगीतिकाएँ हैं। 'रामचरितमानस' में जो महादेव-पार्वती-विवाह वर्णित है, उससे यह कुछ भिन्न है। 'मानस' में महादेव विवाह 'शिवपुराण' के अनुसार वर्णित हुआ है और इस रचना मं वह अधिकतर कालिदास के 'कुमारसंभव' के अनुसार वर्णित हुआ है। इसकी रचना फाल्गुन शुo ५ गुरुवार, जय संवत् में हुई कही गई है। जयसंवत् संo १६४२ में था, किंतु संo १६४२ में उपर्युक्त तिथिविस्तार नहीं उतरता है, संo १६४३ में ठीक उतरता है, इसलिये संo १६४३ की फाल्गुन शुo ५ को इसकी रचना मानी गई है। यह भी अवधी में है और सरसता में जानकीमंगल की समकक्ष।
गीतावली -- यह तुलसीदास के रामकथा संबंधी ३२८ गीतों का संग्रह है। इसके कुछ गीत रामचरितमानस के पूर्व रामाज्ञाप्रश्न के रचनाकाल के आसपास रचे गए होंगे क्योंकि उनके वर्णनविचार मानस की अपेक्षा रामाज्ञाप्रश्न से अधिक मिलते हैं। उदाहरणार्थ वे गीत हैं जिनमें परशुराम मिलन विवाह के अनंतर अयोध्या लौटते समय मार्ग में होता है। इसके पुष्पवाटिका विहार तथा धनुर्यज्ञ प्रकरण प्राय: रामचरित मानस के उक्त प्रकरणों से मिलते हैं। इनमें से प्रथम 'रामाज्ञाप्रश्न' में नही है और दूसरा रामाज्ञाप्रश्न से भिन्न है। इसलिये इस पदसंग्रह का कुछ अंश 'रामचरितमानस' के रचनाकाल के आस-पास का भी होगा। इसके कुछ गीतों में रामचरितमानस के कथाविस्तारों का स्पष्ट संशोधन मिलता है; उदाहरणार्थ, मानस में अपने निर्दोष होने के संबंध में भरत ने कौसल्या के समक्ष अनेक शपथें खाई हैं, पर इसमें वे कहते हैं : क्यों हों आजु होत सुचि सपथनि कौन मानिहै साँची। (गीताo ३ ६२)। इससे ज्ञात होता है कि इस पदसंग्रह के कुछ न कुछ पद मानस के बाद के और कदाचित् काफी बाद के होंगे। 'गीतावली' के गीतों का 'पदावली रामायण' नामक एक संग्रह ऐसा मिला है जो प्रकाशित गीतसंग्रह से छोटा है। इस गीतसंग्रह की एक ही प्रति मिली है जो अत्यंत प्राचीन है, जो इसी प्रकार 'विनयपत्रिका' के प्रकाशित संग्रह के छोटे संग्रह की है, और जो इसी की भाँति अपने पाठ की अकेली प्रति है। इसलिये संभावना इस बात की यथेष्ट है कि 'गीतावली' के इस छोटे रूप की प्रति भी संo १६६६ के आस पास की होगी। यह प्रति अत्यंत खंडित है, किंतु इसका जितना अंश प्राप्त है, उतने से ही यह निश्चय हो जाता है कि यह संग्रह भी 'गीतावली के प्रकाशित रूप के पूर्व का होगा और इसी में बाद में रामकथा संबंधी अनेक पद और मिलाकर 'गीतावली' का वर्तमान रूप निर्मित हुआ। फलत: 'गीतावली' एक ऐसा गीतसंग्रह है जिसमें तुलसीदास के कवि-जीवन के अधिकांश में रचे हुए रामकथा संबंधी पद संगृहीत हैं। गीतावली की भाषा ब्रज है, और तुलसीदास की समस्त रचनाओं में जीवन का कोमल तथा मधुर पक्ष जितना इस रचना में हमें मिलता है, उतना उनकी अन्य किसी रचना में नहीं।
विनयपत्रिका -- यह तुलसीदास के आत्मनिवेदनपरक गीतों और स्तोत्रों का संग्रह है। इसमें प्रारंभ के ६३ स्तोत्रों और गीतों में गणेश, महादेव पार्वती, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान और सीता का गुणगान और वर्णन है। इस प्रारंभिक अंश में राम और विंदुमाधव के अतिरिक्त जिन देवी देवताओं के संबंध के और पद आते हैं, प्राय: सभी में उनसे रामभक्ति दिलाने की प्रार्थना की गई है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि तुलसीदास इनमें विश्वास रखते हुए भी इनकी उपयोगिता केवल रामभक्ति प्राप्त करने में मानते हैं। इस अंश के अनंतर उनके राम से आत्मनिवेदन तथा रामभक्ति संबंधी पद आते हैं। अंत के तीन पदों में राम के समक्ष अपनी विनयपत्रिका प्रस्तुत करते हैं और हनुमान, शत्रुघ्न, भरत तथा लक्ष्मण से अनुरोध करते हैं कि वे राम से तुलसीदास के अनन्य प्रेम का अनुमोदन करें। तदनंतर हनुमान आदि की सहमति देखकर लक्ष्मण तुलसी के रामप्रेम का अनुमोदन करते हैं और तुलसीदास की 'विनयपत्रिका' स्वीकृत होती है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है, 'गीतावली' की भाँति इसके भी एक अपेक्षाकृत छोटे पाठ की प्रति मिली है, जिसमें कुल १७६ गीत हैं। इसलिये इस संग्रह के जो गीत उस छोटे संग्रह में नहीं मिलते हैं, वे अवश्य ही बाद में इसमें रखे गए होंगे। इनकी रचना भी संभवत: उक्त गीतों के बाद ही हुई होगी। फलत: 'विनयपत्रिका' के गीत भी 'गीतावली' के गीतों की भाँति एक दीर्घ अवधि में रचे गए होंगे। यह इस प्रसंग में ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत संग्रह के अंतिम तीन गीत, जिनमें रचना को विनयपत्रिका का रूप दिया गया है, रचना के उक्त छोटे पाठ में नहीं है। उक्त पाठ का नाम भी 'विनयपत्रिका' नहीं 'रामगीतावली' के स्थान पर 'पदावली रामायण' है। ऐसा ज्ञात होता है कि जब इस संग्रह के अंतिम तीन गीत, जिनमें रचना को विनयपत्रिका का रूप दिया गया है, रचना के उक्त छोटे पाठ में नहीं हैं। उक्त पाठ का नाम भी 'विनयपत्रिका' नहीं 'रामगीतावली' है, जिस प्रकर 'गीतावली' के उपर्युक्त छोटे पाठ का नाम 'गीतावली' के स्थान पर 'पदावली रामायण' है। ऐसा ज्ञात होता है कि जब इस संग्रह को 'रामगीतावली' के स्थान पर विनयपत्रिका का रूप और नाम दिया गया, इसका पूर्ववर्ती नाम 'पदावली' रामायण के उक्त संग्रह को दे दिया गया। 'विनयपत्रिका' की भाषा ब्रज है। रचना और विचारों की प्रौढ़ता की दृष्टि से यह 'रामचरितमानस' के सकक्ष है। कथाप्रबंध के क्षेत्र में जो महत्व 'रामचरितमानस' का है वही गीतिकाव्य के क्षेत्र में विनयपत्रिका का है। कुछ विदेशी विद्वानों ने संसार के आत्मनिवेदन विषयक साहित्य में इसे ऊँचा स्थान दिया है।
कृष्णगीतावली -- यह तुलसीदास के कृष्णचरित्र संबंधी ६१ गीतों का संग्रह है। इसमें जीवन के कोमल और मधुर पक्षों को चित्रित करने के लिये तुलसीदास को कुछ अधिक अनुकूल क्षेत्र मिला था, किंतु वे उसके विस्तारों में नहीं गए और संक्षेप में ही उन्होंने कृष्णकथा इन पदों में कह डाली है। इस गीतावली की रचना में सूरसागर का प्रभाव संभव है, किंतु तुलसीदास फिर भी सूर की अपेक्षा अधिक संयत है। यह गीतावली छोटी होते हुए भी ललित है, और शुद्ध ब्रजभाषा में प्रस्तुत की गई है। इसका रचनाकाल निश्चित नहीं है। संभवत: इसके गीत एक छोटी ही अवधि के भीतर रचे गए क्योंकि इनमें पुनरावृत्ति नहीं दिखाई पड़ती। ये गीत शैली और भाषा की दृष्टि से प्रौढ़ हैं और असंभव नहीं कि 'गीतावली' के आस पास कृष्ण-चरित्र-गान की भी आवश्यकता समझकर रचे गए हों।
बरवा रामायण -- यह रचना उनकी ऐसी कृतियों में ज्ञात होती है जिन्हें तुलसीदास अंतिम रूप नहीं दे सके थे। कदाचित् इसीलिये इस रचना के एक से अधिक रूप प्राप्त हैं। प्रकाशित रूप में इसमें ६९ बरवै हैं, जिनमें से प्रथम ४२ रामकथा संबंधी और शेष २७ रामभक्ति संबंधी हैं। ये समस्त छंद बहुत स्फुट हैं -- इनमें न कथा का कोई सुगठित रूप बनता है, और न भक्ति विषयक उक्तियों का। ऐसा ज्ञात होता है कि कुछ बरवै उन्होंने बहुत स्फुट रूप से रचे थे, जो असंपादित पड़े रह गए थे, और उन्हें उनके देहांत के बाद भिन्न भिन्न व्यक्तियों ने विभिन्न प्रकार से संकलित किया। ये बरवै अवधी में रचे गए हैं और इनमें सरसता यथेष्ट है।
दोहावली -- यह रचना भी तुलसीदास की ऐसी कृतियों में लगती है जो स्वत: उनके द्वारा अंतिम रूप नहीं पा सकी थी। इसके भी कई रूप मिलते हैं। 'सतसई' नाम से जो इससे भिन्न रचना मानी जाती है, वह वास्तव में इसी का एक रूप है। दोनों में अनेक दोहे समान हैं, किंतु जबकि प्रकाशित 'दोहावली' के पाठ में उन समान दोहों के अतिरिक्त कवि की पूर्ववर्ती रचनाओं -- 'रामाज्ञा प्रश्न' तथा 'रामचरित-मानस' -- से अनेक दोहे लेकर उसकी आकारवृद्धि की गई है, 'सतसई' में इन्हीं दोहों के साथ एक बड़ी संख्या में प्रक्षिप्त दोहों को मिलाकर संग्रह का आकार ७०० दोहों का बना दिया गया है। इन नवीन दोहों की प्रक्षिप्तता उनकी शैली और विचारभेद के कारण संदेहातीत ज्ञात होती है। 'दोहावली' के अनेक दोहे तुलसीदास के जीवन के अंतिम वर्षों में रचे हुए होंगे क्योंकि वे ऐसी घटनाओं का उल्लेख करते हैं जो उनके जीवन के अंतिम वर्षों में ही घटित हुई थीं। इसलिये इस रचना का तुलसीदास के जीवन-वृत्त-निर्माण की दृष्टि से महत्व है। वैसे काव्य की दृष्टि से रचना बहुत स्फुट है और कुछ अंशों को छोड़कर साधारण सी है। रचना ब्रजभाषा में है।
कवितावली और हनुमानबाहुक -- कवितावली और बाहुक पर एक साथ विचार किया जा सकता है, क्योंकि बाहुक उन छंदों का संग्रह है जो कवि के द्वारा बाहुपीड़ा के शमनार्थ रचे गए थे और इस बाहुपीड़ा के समान कुछ अन्य कष्टों के संबंध के छंद कवितावली के अंत में आते हैं। ये सभी कष्ट प्राय: कवि के जीवन के अंतिम भाग के हैं। 'कवितावली' में भी दो अंश हैं, एक रामकथा का है और दूसरा रामभक्ति तथा आत्मोल्लेख का। कथा संबंधी अंश स्फुट है और उसकी रचना मुक्तक काव्यशैली पर हुई है। दूसरा अंश भी इसी प्रकार बल्कि स्फुट ढंग से रचा गया है। आत्मोल्लेख विषयक अंश के छंद तो विभिन्न समयों के रचे हैं ही। 'कवितावली' की सभी प्रतिर्यो में रामकथा तथा रामभक्ति संबंधी अंश में समानता है किंतु आत्मोल्लेख संबंधी अंश में कुछ भिन्नता है। ऐसा ज्ञात होता है कि इस रचना के अधिकांश को कवि ने अपने जीवन में ही संपादित करके निश्चित रूप दे दिया था, किंतु उसके बाद भी विभिन्न घटनाओं के अवसरों पर वह मुक्तक रचना कवित्त सवैयों में करता रहा जिन्हें उस समय वह स्वयं इस मुक्तक संग्रह में संकलित नहीं कर सका था। बाद मे विभिन्न व्यक्तियों ने इन छंदों को यथाप्राप्ति अलग अलग स्वतंत्र रूप से उस पूर्ववर्ती संग्रह में जोड़ दिया। कवितावली के छंद एक नवीन शैली की प्रारंभिक कृतियों में से हैं, जो तुलसीदास के बाद ही रीतियुग में सबसे अधिक लोकप्रिय हुई। ब्रजभाषा में मुक्तक पद्धति पर लिखे हुए 'कवितावली' और 'बाहुक' के कवित्त सवैये मुक्तक के शिल्प की दृष्टि से पूरे उतरते हैं और उनकी रचनाओं में इस दृष्टि से भी उल्लेखनीय हैं। कवितावली के अंतिम अंश की उपयोगिता इसलिये भी है कि तुलसीदास के जीवन-वृत्त-निर्माण में वह सबसे अधिक आवश्यक है। इस अंश के अभाव में यह संभव हो जाता कि हम कवि का प्रामाणिक जीवनवृत्त पुनर्निर्मित न कर सकते। 'बाहुक' के छंद पीड़ा की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिये तो उल्लेखनीय हैं ही, उनमें से कुछ मे कवि ने अपने जीवन का जो सिंहावलोकन किया है, वह भी महत्वपूर्ण है।
विशेषता -- तुलसीदास की कृतियों से ज्ञात होता है कि वे बहुमुखी काव्यप्रतिभा के कलाकार थे। उन्होंने प्रबंधकाव्य के दोनों रूपों में उत्कृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। उनका 'रामचरितमानस' संसार के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्यों में माना जाता है, 'जानकीमंगल' और 'पार्वतीमंगल' सरस खंडकाव्य हैं। मुक्तक काव्य के भी दोनों रूपों में उन्होंने उसी प्रकार उत्कृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत कीं। उनकी 'विनयपत्रिका' गीतिकाव्य का एक परमोत्कृष्ट उदाहरण है और, जैसा कहा जा चुका है, कुछ विद्वानों के अनुसार उनके विनय संबंधी गीत संसार के सर्वश्रेष्ठ आत्मनिवेदन साहित्य में स्थान पाने के अधिकारी हैं। उनकी 'गीतावली' और 'कृष्ण गीतावली' में भी कला और सुरुचिपूर्ण गीतों का अच्छा संग्रह हुआ है। पाठ्य मुक्तक काव्य के रूप में उनकी 'कवितावली' का स्थान उल्लेखनीय है; वह कवित्त-सवैया वाली उस परंपरा की पहली रचनाओं में से है जो तुलसीदास के अनंतर बहुत लोकप्रिय हुई और जिसमें रीतियुग का अधिकतर साहित्य निर्मित हुआ। मुक्तक शिल्प का अच्छा निर्वाह कवितावली के छंदों में दिखाई पड़ता है। तुलसीदास के समय में दो भाषाओं में मध्यदेश में काव्यरचना हो रही थी -- अवधी और ब्रजभाषा में। तुलसीदास ने दोनों को अपने काव्यों का माध्यम बनाया; प्रबंध काव्यों के लिये अवधी को और मुक्तक काव्यों के लिये अधिकतर ब्रज को। उनकी रचनाओं में काव्य का शिल्प भी उतना ही सबल है जितना जीवन का चित्रण। किंतु उनके शिल्प की विशेषता यह है कि उसमें सतर्क प्रयास का अभाव है तथा सहज रचनात्मक प्रतिभा के दर्शन होते हैं, और उनके जीवन के चित्रण की विशेषता यह है कि उसमें जीवन के किसी एक या दो पक्षों का नहीं बल्कि विविध पक्षों का उद्घाटन सफलता के साथ किया गया है।
पर तुलसीदास कोरे कवि नहीं थे, वे भक्त कवि थे, और उनकी रामभक्ति ने उनकी रचनाओं में ऐसे व्यावहारिक आदर्शवाद की सृष्टि की है जो उल्लेखनीय है। उनके राम शब्द के वास्तविक अर्थों में मर्यादापुरुषोत्तम हैं और मर्यादापुरुषोत्तम के रूप की तुलसीदास से बढ़कर कदाचित् कोई भी कल्पना नहीं कर सका। उनकी रामभक्ति मानवता की अति विशद कल्पना पर आधारित है, और यही कारण है कि उनका समस्त कार्य रामभक्ति के साथ साथ मानवता के उच्चतम आदर्शों और मूल्यों का निर्देशक है।
संo ग्रंo -- जीo एo ग्रियर्सन : नोट्स ऑन तुलसीदास (१८९३); शिवनंदन सहाय : श्री गोस्वामी तुलसीदास जी (१९१६); रामचंद्रशुक्ल : गोस्वामी तुलसीदास (१९२३); श्याससुंदरदास : गोस्वामी तुलसीदास (१९३१); जैo एमo मैकवी : दि रामायण आव तुलसीदास (१९३०); बलदेवप्रसाद मिश्र : तुलसीदर्शन (१९३८); श्रीकृष्णलाल : मानसदर्शन (१९४०); माताप्रसाद गुप्त : तुलसीदास (१९४२); कामिल बुल्के : रामकथा का विकास (१९५०); राजपति दीक्षित : तुलसीदास और उनका युग (१९५२)। (माता प्रसाद गुप्त)