तुर्क कुफ़क़ाज की एक बड़ी नदी का नाम है और उन तुर्की बोलनेवालों के लिये भी प्रयुक्त होता है जो रूस, चीन, इराक, बलगारिया, यूगोस्लाविया, कब्रिस, अफगानिस्तान, तुर्की तथा ईरान में बसे हुए हैं। इन सबकी सम्मिलित जनसंख्या लगभग दस करोड़ होगी। जातीय संस्कृति से अधिक देशीय इतिहास का इनकी जातीय विशेषताओं पर विशेष प्रभाव पड़ने के कारण भिन्न भिन्न देशों के तुर्कों के संस्कार में काफी विभिन्नता आ गई है। तब भी इस्लाम धर्म तथा तुर्की भाषा के प्रचार होने से इनमें किसी सीमा तक समानता बनी हुई है।

तुर्को का प्राचीन इतिहास भूतकाल के पर्दे में छिपा हआ है। चीनी इतिहास में तुर्को का अस्तित्व सन् १३०० ई० पू० से एक खानाबदेश जाति के रूप में मिलता है। दूसरी शती ई० पू० में इनके विभिन्न कबीले चीन के उत्तरी सीमा पर लूट मार किया करते थे पर छठी शती ईसवी में इनकी लूट मार का क्षेत्र बहुत बढ़ गया और पूर्वीय तथा मध्य एशिया में भी इनकी हरकतें फैल गई। इसी शताब्दी में इस जाति ने एक सशक्त राज्य स्थापित कर लिया, जो मंगोलिया तथा चीन की उत्तरी सीमा से लेकर काले सागर (बहरे अस्वद) तक विस्तृत था। इस राज्य का संस्थापक, जिसका नाम चीनियों ने तुमेन (Tumen) और तुर्की पुस्तकों में बूमिन (Bumin) लिखा है, सन् ४४२ ई० में मर गया। इसके भाई ने, जिसका नाम ईस्तमी (Istami) था, पश्चिम में कई विजयें प्राप्त कर ली थी। दोनों भाई अलग अलग राज्यों पर शासन करते थे। इन दोनों राज्यों को चीनी लोग उत्तरी तुर्कों तथा पश्चिमी तुर्कों का राज्य कहते थे। सातवीं शताब्दी ईसवी में इन दोनों राज्यों को चीन साम्राज्य की अधीनता स्वीकार कर लेनी पड़ी पर सन् ६८२ ई० में उत्तरी तुर्कों ने चीन की अधीनता से स्वतंत्र होकर अपनी पुरानी स्वतंत्रता पुन: प्राप्त कर ली। 'कुतबात उरखान', जो मंगोलिया की उरबान नदी से संबंधित है ओर तुर्की भाषा का प्राचीनतम स्मारक है, तुर्कों के इसी उत्तरी राज्य से संबंध रखता है। यह राज्य सन् ७४४ तक बना रहा। पश्चिमी तुर्कों में तुर्गेश (Turgesh) का कबीला सबसे अधिक सम्मानित था। इसके सरदारों ने सातवीं शताब्दी के अंत में 'खाक़ान' की पदवी धारण कर ली थी परंतु सन् ७३८ ई० में अरबों ने इनके शासन को भी समाप्त कर दिया था।

तुर्क खानाबदोश थे। इनके कुछ कबीले पूर्वीय तथा मध्य एशिया से निकलकर पश्चिमी एशिया तथा पूर्वीय यूरोप की बस्तियों पर भी आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर दिया करते थे। इन कबीलों में किसी प्रकार का जातीय या वंशगत प्रभाव नहीं रह गया था और न इनकी कोई मिलती हुई भाषा थी। यूराली, ईरानी तथा मंगोली भाषाएँ इनके जरगों (सार्वजनिक सभाओं) में साधारणत: बोली जाती थी। इनका आरंभिक मार्ग का आकाश पूजन या अग्निपूजन था पर क्रमश: इन्होंने शामाती, बौद्ध तथा ईसाई मत अपनाया और अंत में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।

आठवीं शती ईसवी के आरंभ में कैतब:बिन मुस्लिम तथा नसर बिन सैयार की अधीनता में अरबों ने मध्य एशिया विजय कर तुर्कों का इस्लाम से परिचय कराया किंतु तुर्कों और अरबों का संबंध खलीफा उमर बिन अब्दुल अजीज (सन् ७१७-७२०) तथा खलीफा हशाम (सन् ७२४-७४३) के राज्यशासन में बढ़ना आरंभ हुआ ओर जब खलीफा मंसूर (सन् ७५४-७७५ ई०) के समय में वे अब्बासी सेना मे लिए जाने लगे तब इनका महत्व और भी बढ़ने लगा। खलीफा अलमोतसिम (सन् ८३३-८४२) ने अरबों तथा ईरानियों और सेना में तुर्कों की टुकड़ियाँ बढ़ाई। इस प्रकार इनका महत्व दिन-प्रति-दिन बढ़ता गया और तुर्की सरदारगण तथा साधारण जन अब्बासियों की राजधानी में आकर बसने लगे। इससे इनकी शासकीय महत्ता इतनी बढ़ गई कि जब अब्बासी ऐश्वर्य अवनत होने लगा और विभिन्न प्रांतों के अध्यक्षों ने राजधानी से स्वतंत्र होकर अपने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित करना आरंभ किया, तब तुर्को ने भी वैसा ही किया। उन्होने मिस्र में तोलोनिय: तथा अख्शीदिय:, तुर्किस्तान में एलकिय: और अफगानिस्तान एवं हिंदुस्तान में ग़्ज़ानवी राज्यों की नींव डाली। ये सभी राज्य नवीं शती ईसवी के मध्य से लेकर दसवीं शती के मध्य तक स्थापित हो चुके थे।

११वीं शती ईसवी के आरंभ में तुर्कों के एक कबीले ने ईरान से सेलजुकियों के राज्य की नींव रखी। इसका संस्थापक सेलजुक बिन दक्काक था, जिसने दसवीं शती के अंत में अपने कबीले के साथ बुखारा के पास बसना स्वीकार कर लिया था और मुसलमान होकर सुन्नी शाखा का पक्षपाती बन गया था। वह क्रमश: अपना ऐश्वर्य बढ़ा गया और उसके पौत्र तुगरल बेग (सन् १०३७-१०६३) ने जैहून अर्थात आमू नदी (औक्सस) को पार करके खुरासान पर अधिकार कर जलया। इसके बाद पश्चिम की ओर घुमकर जुर्जान, तबरिस्तान, रव्वारिज्म, इस्फहान, तब्रेज, हलवान, एराक, मौसल तथा बकर प्रांत को अपने राज्य में मिला लिया। इसके उत्तराधिकारी तथा योग्य भतीजे अल्प अर्सलां (सन् १०६३-१०७२) ने सेलजुकी राज्य की नई उन्नति की और सन् १०७१ ई० में मिलाज़ कुर्द (मांज़ीकर्ट) के युद्ध में रूप में कैसर दायोजीनेस रोमानूस को परास्त कर पहले पहल एशियाई कौचक पर सेलजुकी तुर्कों का पूर्ण अधिकार जमा दिया। इसे अरब भी विजय नहीं कर सके थे। यह प्रांत शीघ्र ही तुर्कों का पालना बन गया और तुर्की भाषा तथा तुर्की जीवन की बिखरी हुई पद्धति के विकास का तीवता से आरंभ हो गया।

सेलजुकी तुर्कों का वास्तविक उत्कर्षकाल अल्प अर्सलाँ के पुत्र मलिक शाह (सन् १०७२-१०९२) ई० का राज्यकाल है। इस समय इनका शासन काशग़्रा से येरुशलम तक और कुस्तुतुनिया से कास्पिअन सागर (बहरे ख़ज़र) तक फैला हुआ था। परंतु एक ओर फात्मियों के स्वत्वाधिकारी हसन बिन सब्बाह इस्माइली की सर्दारी में फिदाइओं के प्रकट होने से इनको हानि पहुँची और दूसरी ओर मलिक शाह के पुत्र तथा उत्तराधिकारी रुकुनुद्दीन बरकयारक तथा उसके भाई मुहम्मद के बीच में ईरान तथा खुरान को लेकर गृहयुद्ध आरंभ हो गया। इससे सेलजुकी तुर्कों का शासन निर्बल पड़ गया और उनकी विभिन्न शाखाएँ भिन्न भिन्न भागों में कार्यत: स्वतंत्र हो गई। इस स्वतंत्रता के होते हुए भी ईरान के सेलजुकियों का शासन नाम मात्र को बना रहा पर जब सन् ११५७ में इनका राज्य भी ख्वारिज्म़ शाह के अधिकार में चला गया तो यह नाम मात्र का शासन भी समाप्त हो गया। क्रमश: इनकी अन्य शाखाओं के राज्यों का भी अंत हो गया, केवल अनातोलिया पर अल्प अर्संलां के दूर के संबंध के एक भाई सुलेमान इब्न कतलमश ने जो उस प्रांत का शासक नियुक्त हुआ था, सेलजुकियों का शासन बनाए रखा, जो सल्तनत सूलजुकियाने रूम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

'सेलजुकियाने रूम' ने पहले नैकाइया (वर्तमान नाम इजनिक) को अपनी राजधानी बनाया। यह बार्ज़ितैनी साम्राज्य का एक प्रसिद्ध नगर था। जब सन् १०९७ ई० के जून में सलीबी (ईसाई) सेनाओं ने इसे विजय कर लिया तो सुलेमान इब्न कतलमश के पुत्र तथा उत्तराधिकारी कुलीज अर्सलां ने आईकोनियम (वर्तमान कौनिया) को राजधानी बना लिया, जो शीघ्र ही एशियाई कोचक का सब से अधिक धनवान् तथा सुंदर नगर बन गया और सन् १३०० ई० तक राजधानी रहा। इसी काल में कुलीज अर्सलाँ के उत्तराधिकारियों में सक ग़्याािसुद्दीन कैखसरों, इज्ज़द्दीन कैकाऊस तथा अलाऊद्दीन क़ैकुबाद ने अपनी विजयों के कारण राज्य का काफी विस्तार किया और इस देश को पूरी तरह तुर्की तथा इस्लामी रंग में रंग दिया।

१३वीं शती ईसवी के आरंभ में जब चंगेज़ खाँ के तूफानी आक्रमणों ने रूवारिज्मी राज्य का अंत कर दिया तो खुरासान के तुर्कों का एक कबीला सुलेमानशाह की सर्दारी में तुर्की सुलतान की शरण लेने के लिये उनकी राजधानी कौनिया की ओर चला। दैवकोप से मार्ग मे फरात नदी पार करते हुए सुलेमान शाह डूबकर मर गया ओर उस समूह हा बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया (दे० 'चंगेज़ खाँ)। किंतु जो लोग बच गए थे सुलेमानशाह के पुत्र अर तुग़्राल बे की सर्दारी में एशियाई कोचक की ओर बढ़े और सुलतान अलाउद्दीन कैकुबाद (सन् १२१९-१२३६) के राज्य की सीमा के भीतर पहुँच गए। जिस समय अर तुग़्राल बे का जनसमूह अंगोरा (वर्तमान नाम अंकारा) के पास पहुँचा उस समय सुलतान की सेना एक मंगोली सेना से युद्ध करने में व्यस्त थी और शीघ्र ही परास्त होने को थी किंतु अर तुग़्राल बे ने ठीक अवसर पर अपने सवारों की छोटी टुकड़ी के साथ तुर्की सुल्तान की सहायता की ओर शत्रु को परास्त कर दिया। इन वीरता पर सुल्तान अत्यंत प्रसन्न हुआ ओर उसके उपलक्ष में अरतुगंरल बे को शुगत नगर (जो बार्जितैनी सीमा के पास स्थित था) और उसके आसपास की उपजाऊ भूमि जागीर में दे दी। अर तुग़्राल वे और उसके साथियों ने औजबेगी अर्थात सीमारक्षकों की हैसियत से वहाँ बसना स्वीकार कर जलया और बहुत शीघ्र पूरे प्रांत में अपनी वीरता का धाक जमा दी। अन्य बहुत से तुर्की कबीले भी, जो पहले से एशियाई कोचक से बसे हुए थे, अर तुग़्राल बे के साथ सम्मिलित होते गए।

१३वी शती ईसवी के अंत तक अनातोलिया के सेलजुकी तुर्कों की भी अवनति हो चली थी। बहुत से सेलजुकी सरदारगण ने राज्य की निर्बलता से लाभ उठाकर अपना अपना शासन स्थापित कर लिया था परंतु अर तुग़्राल वे कौनिया के सुल्तान का स्वामिभक्त बना रहा। इसकी मृत्यु पर सन् १२८१ ई० में, जब इसका बड़ा पुत्र उस्मान इसका स्थानापन्न हुआ, तो उसने भी वही चाल पकड़ी किंतु जब सन् १२४३ ई० में चंगेज़ खाँ के पौत्र हलाकू खाँ ने सेलजुकियों को 'कूए दाग' के पास कड़ी पराजय देकर एशियाई कोचक में सेलजुकियों के राज्य को समाप्त कर दिया और इस राज्य का प्रत्येक सरदार अपने अपने स्थान पर स्वतंत्र हो गया, तब उस्मान ने भी अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इसके अनंतर की सभी विजयें इसने स्वतंत्र शासक के रूप में प्राप्त कीं। इसी कारण वह उस्मानियाई ऐश्वर्य का संस्थापक तथा उस्मानिया राज्य का पहला शासक माना जाता है।

उस्मान बे के ३८ वर्षीय राज्यकाल में उस्मानिया राज्य दक्षिण में कुताहिया उत्तर में मारमोरा समूद्र और काले सागर के किनारों तक फैल गया था। उस्मान बे का राज्य बार्जितैनी राज्य की सीमा से लिया हुआ था जो दिन-प्रतिदिन निर्बल होता जा रहा था। इसलिये यह अधिकतर बार्जितेनी प्रांतों की ओर ही झुका रहा। इस बात पर इतिहासकारों का एक मत है कि तुर्कों के इस राज्य की नींव सन्१२९९ ई० में विसनिया (विथनिया) स्थान पर रखी गई थी। परंतु जब सन् १३२४ ई० में उस्मान वे के उत्तराधिकारी तथा पुत्र उरखान (सन् १३२४-१३६०) ने ब्रूसा (वर्तमान बोरसा) विजय किया तब इसी नगर को राजधानी बना लिया गया। उरखान ने कई विजयें प्राप्त करने के विचार से अपनी सेना का नए सिरे से प्रबंध भी किया। इससे पहले तुर्क प्राचीन कबीली ढंग पर सेना में भर्ती करते थे और युद्ध के बाद कबीले अपने अपने स्थानों पर लौट जाते थे। इसने नियमित तथा स्थायी रूप से वेतनभोगी पैदल तथा सवार और जागीरदार सेनाएँ संगठित कीं, जिनमें 'यनीचरी' विशेषरूप से उल्लेखनीय है। इसी सेना के कारण उस्मान तुर्कों की शक्ति बराबर बढ़ती रही और विजयों की संख्या भी बढ़ती गई। यहाँ तक कि रूम के कैसर कंटाकूज़ेन ने निरुपाय होकर केवल मैत्री का हाथ ही नहीं बढ़ाया प्रत्युत् अपनी पुत्री का विवाह भी उरखान से कर दिया।

तुर्कों के इस नए राज्य का विस्तार पश्चिम ही की ओर हुआ, जहाँ इस्लाम से भिन्न धर्म वाले बसे हुए थे और जिनसे धर्मयुद्ध करना इस्लामी कर्तव्य माना जाता था। उरखान के राज्यकाल में केवल एशियाई कोचक के उत्तरी-पश्चिमी भाग और यूरोप में जंग, गैलीपोली और ्थ्रोस के कुछ अन्य अधीनस्थ स्थान उस्मानिया साम्राज्य में सम्मिलित थे। इसका संयुक्त वितार भी लगभग २० सहस्र वर्गमील था और आबादी लगभग दस लाख थी। उरखान के उत्तराधिकारी मुराद प्रथम (सन् १३६०-१३८९) ने अपने ३० वर्षीय राज्यकाल में विस्तार को पचँगुना करके अपनी राज्य सीमा पश्चिम यूरोप में डैन्यूब नदी तक बढ़ा दी और सन १३६६ ई० में ब्रूसा के स्थान पर यूरोप में औरन: (एड्रियानोपुल) नगर को राजधानी बना लिया। इस परिवर्तन से यूरोपीय देशों में घबड़ाहट तथा भय के चिन्ह प्रकट हो गए इसलिये उन्होने उस्मानी तुर्कों को अब आगे बढ़ने से रोकने के लिये प्रयत्न आरंभ कर दिए (दे० 'ईसाई धर्म युद्ध')। परंतु मुराद के उत्तराधिकारी बायजीद प्रथम यलद्रुम (सन् १३८९-१४०३ ई०) की सैनिक चढ़ाइयाँ और भी विस्तृत रूप में आरंभ हुई। इसने मक़दूनिया, उत्तरी बलगारिया, थेसाली अैर अनातोलिया के सेलजुकी राज्यों को भी आन साम्राज्य में मिला लिया। बार्जितैनी राज्य, बलाचिया, बौस्त्रिया और यूनान के बहुत से भाग उस्मानिया साम्राज्य के करद बन गए। बायजीद ने सन् १३९६ ई० में निकोपोलिस के युद्धस्थल में यूरोप की सम्मिलित सेना को पराजित कर उस सलीबी शक्ति को भी समाप्त कर दिया, जिसने उस्मानिया साम्राज्य के दमन का बीड़ा उठाया था। इससे तुर्कों की शक्ति बहुत बढ़ गई और ऐसा ज्ञात होने लगा कि सारा दक्षिण-पूर्वी यूरोप तूर्कों के अधिकार में आ जाएगा। परंतु तैमूरलंग के आक्रमण ने इस संभावना ही को नष्ट कर दिया।

तैमूरलंग ने २० जुलाई, सन् १४०२ को अंगोरा के युद्ध में बायजीद को परास्त कर दिया और उसे कैद करके उस्मानिया साम्राज्य का सारा प्रबंध नष्ट भ्रष्ट कर दिया। सुल्तान बायजीद यलद्धुम के पुत्र ने स्वयं गद्दी के लिए गृहयुद्ध आरंभ कर दिया और यूरोप के वह सब अधीनस्थ प्रांत, जो उस्मानी साम्राज्य के अधन तथा करद थे, उस्मानी अधिकार से निकल गए। लगभग दस वर्ष की अस्तवयस्तता के अनंतर सुल्तान मुहम्मद प्रथम चलेबी ने (सन् १४१३-१४२१ ई० तक) उस्मानी राज्य का नए सिरे से प्रबंध करने का प्रयत्न किया और उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी सुल्तान मुराद द्वितीय (सन् १४२१ से सन् १४४१ ई०) की अधीनता में उस्मानी साम्राज्य पुन: संगठित हो गया।

सुल्तान मुराद द्वितीय के राज्यकाल में उसमानी तुर्कों के पैर यूरोप की भूमि पर अच्छी प्रकार जम गए थे परंतु बार्जितैनी राज्य के प्रधान नगर तथा राजधानी कुस्तुंतुनिया पर अधिकार नहीं हो सका था। यह नगर तुर्कों के विरुद्ध सारे षड्यंत्रों का केंद्र बन गया था। इसलिए सुल्तान मुहम्मद चबेली ने इसे जीत लेने का प्रयत्न किया और इसके बाद सुल्तान मुराद द्वितीय ने भी सन् १४२२ ई० में इसे घेर लिया पर सफल नहीं हो सका। किंतु जब बार्जितैनी सम्राट् कौंस्टेंटाइन मैलियोलोगसने सुलतान मुराद द्वितीय के पुत्र तथा उत्तराधिकारी मुहम्मद द्वितीय (सन् १४५१ ई० से १४८१ ई०) से कपट करके सुल्तान वायतीद यलद्रुम के एक पौत्र उरखान को उस्मानी राजगद्दी पर बैठाने का प्रयत्न किया तब सुल्तान मुहम्मद द्वितीय को भी अवसर मिल गया। इसने कुस्तुंतुनिया को घेर लिया ओर २९ मई सन् १४५३ ई० को उसपर विजय प्राप्त कर ली। इस जीत के आधार पर यह 'विजयी सुल्तान' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके कुछ ही दिनों बाद कुस्तुंतुनिया तुर्कों की राजधानी भी बन गया। इस विजय के अनंतर सुल्तान ने पश्चिम यूरोप की ओर दृष्टि फेरी। सन् १४८० ई० में इसने दक्षिण इटली में ऑट्रैट्रों विजय किया पर इसके अनंतर परिस्थितयों के साथ नहीं दिया। इसके उत्तराधिकारी सुल्तान बायतीद द्वितीय (सन् १४८१-१५१२) को मित्रों तथा संबंधियों के झंझटों, ईसाई यूरोप के षड्ंयत्रों, मिस्र के सुल्तान मलिकों के उपद्रव तथा एशियाई कोचक के विद्रोहों से इतना अवकाश ही नहीं मिला कि उस्मानी साम्राज्य की सीमाओं को आगे बढ़ाता। इसके उत्तराधिकारी सुल्तान सलीप यूबज़ (सन् १५१२-१५२०) ने उस्मानी साम्राज्य के अधीनस्थ देशों की संख्या बढ़ाई। इस समय तक उस्मानी तुर्कों की विजयों की दिशा पश्चिम ही थी, जहाँ मुसल्मानेतर लोग ही बसे हुए थे किंतु सुलतान सलामी यूबज ने इसे पूर्व की ओर भी फेरा। ईरान में शाह इस्माइल (सन् १५०२-१५२४ ई०) की राजधानी तब्रेज़ को विजय करने के अनंतर इसने मिस्र और शाम देश पर चढ़ाई की और सारे अरब राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। इससे उस्मानी साम्राज्य में मुसलमानों की संख्या काफी बढ़ गई। कहा जाता है कि जब सुलतान सलीम यूवज़ ने मिस्र को जीता तब वहाँ से खलीफा की पदवी प्राप्त कर ली। इस वार्ता की वास्तविकता चाहे जो भी हो किंतु यह तथ्य है कि उसके बाद से खलीफा के कुल अधिकार उस्मानी सुलतानों ने स्वयं ले लिए।

सुल्तान सलीम यूवज़ ने आठ साल के थोड़े समय में उस्मानी साम्राज्य के विस्तार को अपने पूर्ववर्तियों के समय से दूना कर दिया परंतु उस्मानी साम्राज्य का चरम उत्कर्ष उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी सुलेमान प्रथम (सन् १५२०-१५६६ ई०) का राज्यकाल है। इसके लिए इसको युलेमान आज़म की उपाधि से स्परण किया जाता है। इसके समय में तुर्कों का उस्मानी साम्राज्य तीन महाद्वीपों में फैल चुका था और तुर्कों का शासनधिकार बहुत बढ़ गया था। यूरोप में इनका अधिकार आस्ट्रिया के विएना नगर के पास तक पहुँच गया था। एशिया में मारमोरा समुद्र से लेकर फारस की खाड़ी तक तथा अहमर समुद्र के अरब के किनारों पर इनका अधिकार जम गया था। उत्तरी अफ्रीका में इनका साम्राज्य मिस्र से अलजज़ायर (अलजीरिया) तक फैला हुआ था। इस विस्तृत साम्राज्य का घेरा ४० सहस्र वर्गमील से अधिक था, जिसमें बीस विभिन्न जातियों के लोग बसे हुए थे और जनसंख्या लगभग पाँच करोड़ थी।

सुल्तान सुलेमान आज़म अत्यंत प्रन्नचित्त, उच्चाशय, उदारदृष्टि तथा विशिष्ट साहस वाला मनुष्य था। गद्दी पर बैठते ही उसने अत्याचार तथा कपट करनेवाले राजसेवकों को दंड देना आरंभ कर दिया और फौजदारी तथा पुलिस विधानों में संशोधन तथा संवर्धन करते विधानों का समुच्चय प्रस्तुत करवाया। इसीलिये तुर्क जाति इसे 'सुलताने कानून' की पदवी से भी संबोधित करती है। सुलतान सुलेमान अपने न्याय, सुव्यवहार, विजयों तथा सुशासन में न केवल कुल उस्मानी सुलतानों से प्रत्युत अपने समकालीन यूरोप तथा एशिया के सारे सम्राटों से बढ़कर तथा श्रेष्ठ माना जाता है। स्यात् इसी कारण उस्मानी तुर्क इससे सुलतान सलीम सूवज की तरह न केवल भयभीत रहते थे प्रत्युत सुलतान मुराद द्वितीय की तरह इस पर प्रेम भी रखते थे। सुल्तान सुलेमान आज्म कानूनी के राज्काल में उस्मानिया साम्राज्य ने धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से भी स्पष्ट उन्नति प्राप्त की थी। इस काल में उस्मानी तुर्क एक केंद्रीय यूरोपियन शक्ति बन गए थे। किंतु सुलतान आज़म कानूनी के जीवन में साम्राज्य के भीतर कुछ निर्बलताओं के सामान उत्पन्न होने लगे थे जो इसकी मृत्यु के अनंतर दिन प्रतिदिन अधिक स्पष्ट होते गए। सुलेमान के बाद जितने सुलतान गद्दी पर बैठे उनमें से कुछ को छोड़कर किसी में भी उस्मानिया साम्राज्य के स्वामित्व की जैसी योग्यता होनी चाहिए वैसी नहीं थी। इस कारण जिस प्रकार इस साम्राज्य का क्रमश: उत्कर्ष हुआ था उसी प्रकार धीरे धीरे इसकी अवनति भी आरंभ हो गई। इसकी अवनति का काल भी इसकी उन्नति के काल की तरह ३०० साल है। इनमें से अंतिम डेढ़ सौ वर्ष में उस्मानी साम्राज्य अपने से कहीं अधिक शक्तिमान् राज्यों से युद्ध करता रहा पर आंतरिक निर्बलताओं तथा कुछ बाहरी कारणें से इसको निरंतर परास्त होना पड़ा और इसके अधीनस्थ देश कम होते चले गए। फ्रांस ने सन् १८३० ई० में अल्जीरिया पर और सन् १८८१ ई० में ट्यूनिस पर अधिकार कर लिया। ब्रिटेन ने सन् १८७८ ई० में क़बरिस अर्थात साइप्रस पर और सन् १८८२ ई० में मिस्र पर अधिकार जमा लिया। सन् १९११ ई० में ट्रिपौली भी तुर्कों के हाथ से निकल कर इटली के अधिकार में चला गया। सन् १७८३ ई० में कालासागर और बलकान (बलकान) की ओर रूस ने क्रीमिया तथा जौर्जिया को ले लिया। इसे सिवा सन् १८१७ ई० में सर्विया ने, सन् १८२९ ई० में यूनान ने, सन १८६१ में रूमानिया ने और सन् १९०७ ई० में बलगारिया ने पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। जिस साम्राज्य ने सन् १५२६ ई० में हंगरी की सेनाओं को परास्त कर सारे देश पर अधिकार कर लिया था और उसके एक शती के अनंतर विएना का भी घेरा कर लिया था, सन् १९१३ ई० में उसके पास यूरोप में पूर्वीय ्थ्रोस के सिवा और कुछ नहीं रह गया। तुर्कों ने प्रथम महान् युद्ध में जर्मनी का साथ देकर अपनी रही सही सलतनत के और कुछ अधीस्थ देश भी खो दिए। इनके पूर्वीय प्रांतों में से शाम (सीरिया), एराक, फिलिस्तीन और अरब पर फ्रांस, ब्रिटेन और अरबों का अधिकार हो गया। सन् १९१८ ई० में तुर्कों तथा मित्र राष्ट्रों में अस्थायी संधि हुई थी, जिसके पहले ही मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ कुस्तुंतुनिया, दर्रए दानियाल तथा साइलेशिया पर अधिकार पर चुकी थीं और अनातोलिया भी सुरक्षित नहीं रह गया था। १० अगस्त सन् १९२० ई० की संधि के अनुसार तुर्की के अधीस्थ देश और भी कम हो गए। इस संधिपत्र में यह निश्चय हुआ कि दर्र दानियाल और कुस्तुंतुनिया पर अखिल जातीय अधिकार रहे, स्मिरना वर्तमान इज़मिर का इलमा यूनान को दे दिया जाए, रूम सागर का किनारा इटालियों तथा फ्रांसीसियों में बाँट दिया जाए और ब्रिटेन तथा अमरीका स्वतंत्र आरमीनिया की रक्षा करें।

इस प्रकार उस्मानी साम्राज्य की व्यवस्था नष्टभ्रष्ट हो गई। इसी समय उस्मानी शासन के विरुद्ध जातिसेवकों का एक ऐसा आंदोलन आरंभ हो गया, जिसके नेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क थे। यह आंदोलन विदेशियों के उपद्रव, विशेष कर यूनानियों के स्मिरना में उतर आने के विरुद्ध उठाया गया और इसमें इतनी सफलता मिली कि स्मिरना से सेनानियों को निकालने के बाद जातिसेवकों की सेनाओं ने कुस्तुंतुनिया और पूर्वीय ्थ्रोस पर अधिकार कर जलया। अंतिम उस्मानी सुलतान अपनी राजधानी छोड़कर बाहर चला गया और २० अप्रैल सन् १९२४ ई० को गणतंत्र राज्य (रिपब्लिक) स्थापना की घोषणा कर दी गई। इसके प्रथम राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल अतातुर्क नियत हुए। इनके बाद अस्मत ऐनूनू, फिर जलाल बायार, उनके बाद जमाल गुससुल राष्ट्रपति हुए। इस समय तुर्की रिपब्लिक का विस्तार ७८०५७६ वर्ग किलोमीटर है और जनसंख्या १९६० ई० गणना के अनुसार २७७७४००० है जिसमें लगभग ९९ प्रतिशत मुसलमान हैं। इनमें ६० प्रतिशत निवासी तुर्क या बने हुए तुर्क हैं। इस गणतंत्र की राजधानी अंकारा है। किंतु कुस्तुंतुनिया अर्थात् इसतंबोल अब भी संसार के बड़े नगरों में गिना जाता है।

स० ग्रं० - १. जे० नैपटन (J. Knapton) : ए जेनरल हिस्ट्री आव द टर्क्स, मुगल्स एंड टार्टस, विद् ए डिस्क्रिप्शन ऑव द कंट्रीज दे इनहैबिट (लंदन, १,१७३०); २. डबल्यू बारबोल्ड : तुर्किस्तान डाउन टु द मुगल इनवेजन (लंदन, १९२८) ३. एफ० एच० स्क्राइन एंड इ० डी० रौसे : द हार्ट ऑव एशिया (लंदन, १८४७); ४.् एच० ए० गिबन्स: द फांउडेशन ऑव द टौटोमन एंपायर, औक्सफोर्ड, १९१६); ५. पी० विटट्के: द राइज ऑव द औटोमन एंपायर (लंदन, १९३८)(एन. अकमल अययूबी)