तीव्रग्राहिता (Anaphlaxis) अथवा तीव्रग्राहिताजन्य स्तब्धता (shock) जीवित प्राणी की शरीरगत उस विशेष अवस्था को कहते हैं जो शरीर में किसी प्रकार के बाह्य प्रोटीन को प्रथम बार सुई द्वारा प्रविष्ट करने के तत्काल बाद, अथवा कुछ दिनों के उपरांत, दूसरी बार उसी प्रोटीन को सुई के द्वारा प्रविष्ट कराते ही प्रकट होती है। दूसरें शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि तीव्रग्राहिता मनुष्यों एवं जानवरों में होनेवाली बाह्य प्रोटीन के प्रति अत्यधिक बढ़ी हुई प्रभाववश्यता (susceptibility) की अवस्था है, जो एक ही बाह्य प्रोटीन के योग को द्वितीय बार सुई द्वारा प्रविष्ट कराने के कारण स्तब्धता तथा प्रधात (assault) और मादक द्रव्यों से उत्पन्न लक्षणों के रूप में प्रगट होती है।

तीवग्राहिता का पता सर्वप्रथम चालर्स रॉबर्ट रीशे (Charles Robert Richet) ने १८८३ ई० में गिनीपिग, कुत्ते खरगोश इत्यादि पर परीक्षण करके लगाया था। तीव्रग्राहिताजन्य (anaphylactic) घटना को अनेक वियोजित अवयवों जैसे गर्भाशय तथा क्षुद्रआंत्र के कुछ भागों पर परीक्षण करके जब देखा गया तब इनमें भी विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया का नामकरण शुल्त्से डेल परीक्षण (schultz Dale Test) हो गया।

स्थानिक रूप में यह घटना तभी दृष्टिगोचर होती है जब बाह्य प्रोटीन को द्वितीय बार अधरत्वक सूई द्वारा प्रविष्ट किया गया हो। इसके लक्षणों के अंतर्गत सूई लगने के स्थान पर शोथ, दृढ़ीकरण (induration) तथा कोथयुक्त (gangrenous) परिवर्तन दिखाई देते हैं। यह प्रक्रिया सुई लगाने के ४८ घंटें बाद होती है। इस प्रकार की स्थानिक उग्र तीव्रग्राहिताजन्य प्रतिक्रिया का वर्णन सर्वप्रथम मॉरिस ऑर्थर (Maurice Arthur) ने किया।

कारण - तीव्रग्राहिता की उत्पत्ति के यद्यपि कई कारण हैं, तथापि मूल कारण हेनरी एच० डेल (Henry H. Dale) का बताया माना गया है। इन्होंने १९२८ ई० में परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध किया कि तीव्रग्राहिता की उत्पत्ति का मुख्य कारण जीव के शरीर की कोशिकाओं एवं ऊतकों में बाह्य प्रोटीन के द्वारा उत्पन्न प्रतिजन (antigen) तथा शरीर में अंदर से प्रत्युत्पन्न रोगप्रतिकारक प्रतिपिंड (antibodies) की आपस में परस्पर क्रिया है, जिसके फलस्वरूप हिस्टामिन (histamine) नामक पदार्थ की प्रत्युत्पत्ति होती है। यह देखा गया है कि यदि रक्तोद (serum) के रोगप्रतिकारक प्रतिपिंड निश्चित रूप से भ्रमण करते रहते हैं, तो प्रतिजन उनसे मिलकर निष्प्रभाव हो जाया करते हैं और जब वे कोशिकाओं में स्थिर हो जाते हैं तो प्रतिजन से मिलकर हिस्टामिन की उत्पत्ति करते हैं, जिसके कारण तीव्रग्राहिताजन्य प्रतिक्रिया होती है। हिस्टामिन की उत्पत्ति से शरीरगत अनैच्छिक मांसपेशियों में संकोच, स्थानिक ऊतकों में शोथ, सामान्य स्तब्धता, त्वचा पर पित्ति का उछलना, असह्य कंडू (खुजली), जलन तथा रक्तचाप में न्यूनता इत्यादि लक्षण प्रकट होत हैं। अन्य सामान्य लक्षणों में अत्यध्कि कमजोरी, वमन, चक्कर, भ्रम तथा संज्ञाहीनता आदि प्रधान हैं। ये लक्षण जब मृदु रूप में होते हैं तब कई घंटे तक विद्यमान रहकर धीरे धीरे कम होने लगते हैं, परंतु जब उग्र रूप के होते हैं तो कुछ ही मिनटों अथवा सेकंडों में घातक रूप धारण कर लेते हैं। अत: उपर्युक्त विकारों से बचने के लिये ऐसी ओषधियों का सेवन कराया जाता है जिनका प्रतिकारक प्रभाव होता है, जैस बेनाड्रिल पाइरोबेंजामिन एवं अन्य एंटीएलर्जिक औषधियाँ। ये औषधियाँ हिस्टामिन को निष्प्रभाव करते तीव्रग्राहिता दूर करती है।

मनुष्यों में तीव्रग्राहिता प्राय: तब देखी जाती है जब डिप्थीरिया, धनुस्तंभ इत्यादि का रक्तोद शरीर में सुई द्वारा प्रविष्ट किया जाता है और इससे आशंका, श्वासकष्ट, रक्तचाप में गिरावट तथा कभी कभी आक्षेप इत्यादि लक्षण प्रकट हुआ करते हैं।

रक्तोद संबंधी बीमारी में, जो तीव्रग्राहिता की अपेक्षा मनुष्यों में अधिक हुआ करती हैं, मुख्यत: पित्ति (urticaria), ज्वर, संधिश्लूा तथा ससिकाग्रथियों (lymph nodes) में सूजन आदि लक्षण प्रकट होते हैं। ये लक्षण रक्तोद की सूई लगाने के सात आठ दिनों के पश्चात दृष्टिगोचर होते हैं। यद्यपि रक्तोद संबंधी बीमारी एवं तीव्रग्राहिता के परस्पर संबंध का ठीक पता नहीं लग पाया है। फिर भी कुछ विद्वान रक्तोद संबंधी बीमारी को उपतीव्र (subacute) प्रकार की तीव्रग्राहिता ही मानते हैं।(प्रियकुमार चौवे)