तीर्थ और तीर्थयात्रा : हिंदू : तीर्थ संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है पाप से तारने अर्थात् पार उतारनेवाला। पुण्य पाप की भावना सभी धर्मों के साथ जुड़ी हुई है। पुण्यसंचय और पाप का निवारक ही धर्म का मुख्य उद्देश्य बताया जाता है। इसलिये मानव समाज में धर्मभावना के प्रबुद्ध होने के साथ साथ तीर्थों की कल्पना का विस्तार विशेष रूप से हुआ है। भारत के सिवा अन्य देशों में भी ऐसी ही धारणा तथा कल्पना से अनेक तीर्थों का निर्माण किया गया है।
सामान्य रूप से किसी जल या जलखंड के किनारे स्थित पुण्य स्थान को तीर्थ समझा जाता है। पद्मपुराण की इस पंक्ति 'तस्मात् तीर्थेषु गंतव्यं नरै: संसारभीरुभि: पुण्योदकेषु सततं साधुश्रेणि विराजिषु' से इसी अर्थ का बोध होता है। पद्मपुराण में लाक्षणिक आधार पर तीर्थ का व्याप अर्थ लगाकर गरुतीर्थ, माता पिता तीर्थ, पतितीर्थ, पत्नीतीर्थ, आदि का उल्लेख किया गया है गुरु अपने शिष्य के अज्ञानमय अंधकार दूर करते हैं अतएव शिष्यों के लिये गुरु ही परम तीर्थ है। पुत्रों के इहलोक तथा परलोक के कल्याण के लिये प्रयत्न करनेवालों में मातापिता से बढ़कर कोई नहीं अत: पुत्र के लिये मातापिता का पूजन ही तीर्थ है। पत्नी के लिये पति सभी तीर्थों के समान बताया जाता है। पति के दाहिने चरण को प्रयाग और बाएँ चरण को पुष्कर समझकर उसमें श्रद्धाभाव रखने को कहा गया है। इसी प्रकार व्यक्ति के कल्याण तथा उद्धार के लिये भार्या को सबसे बड़ा तीर्थ बताया गया है। ज्ञान एवं गुण से संपन्न सदाचारिणी तथा पतिव्रता स्त्री सभी तीर्थों के समान हैं और ऐसी स्त्री जिस घर में निवास करती है, वह घर तीर्थस्थान बन जाता है। श्रीमद्भागवत में भक्तों को ही तीर्थ बताकर युधिष्ठिर विदुर से कहते है कि भगवान के प्रिय भक्त स्वयं ही तीर्थ के समान होते हैं।
स्कंदपुराण के काशीखंड में तीनप्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है - जंगम, स्थावर तथा मानस। जंगम तीर्थ ब्राह्मणों को बताया गया है। ब्राह्मण पवित्र स्वभाव के होते हैं। इस कारण उनकी सेवा करने से तीर्थ का फल मिलता है, सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और कामनाओं की सिद्धी होती है। पृथ्वीतल के कतिपय पुण्य स्थानों को स्थावर तीर्थ कहा गया है। ऐसे तीर्थों में जाने से उत्कृष्ट फल की प्राप्ति होती है। सत्य, क्षमा, इंद्रिय निग्रह, दया, ऋजुता, दान, दम, ब्रह्मचर्य, विप्रवादिता, ज्ञान और धर्य आदि ऊर्ध्वमुखी मन की वृत्तियों को मानस तीर्थ कहा गया है। समस्त तीर्थों में मानसतीर्थ को ही अधिक महत्व दिया गया है, स्कंदपुराण के काशी खंड में मिलता है कि सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है। इंद्रियों पर नियंत्रण रखना भी तीर्थ है, सब प्राणियों पर दया करना तीर्थ है और सरलता भी तीर्थ है, दान तीर्थ है, मन का संयम तीर्थ है, संतोष भी तीर्थ है, ब्रह्मचर्य परम तीर्थ है और प्रिय वचन बोलना भी तीर्थ है। ज्ञान तीर्थ है, धैर्य है लेकिन तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ है अंत:करण की आत्यंतिक विशुद्धि। मानस तीर्थ के महत्व को बताते हुए लिखा गया है कि इंद्रियों और मनोविकारों के को वश में रखकर मन को शुद्ध रखना ही तीर्थ का श्रेयस्कर एवं उपयोगी स्वरूप है, वह नव तीर्थों में स्नान करके भी तीर्थो के फल से वंचित एवं मलिन रह जाता है। केवल शरीर के मल को उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता। मन के मल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से अत्यंत निर्मल होता है। जल में निवास करनेवाले जीव जल में ही जन्म लेते और मर जाते हैं किंतु उनका मल घुलता नहीं, इससे वे तीर्थ का पुण्य लाभ नहीं कर पाते। विषयों के प्रति अत्यंत आसक्ति को भी मन का मल कहा जाता है और उन विषयों में वैराग्य होना ही निर्मलता कहलाती है। चित्त के भीतर यदि रोष भरा है तो वह तीर्थ स्थान से शुद्ध नहीं होता। जैसे मदिरा से भरे हुए घड़े के ऊपर से जल द्वारा सैकड़ों बार धोया जाये फिर भी वह पवित्र नहीं होता, उसी प्रकार दूषित अंत:करणवाला मनुष्य भी तीर्थ स्नान से शुद्ध नहीं होता। भीतर का भाव शुद्ध न होने से दान, यज्ञ, तम, शौच, तीर्थसेवन, शास्त्रश्रवण और स्वाध्याय ये सभी अतीर्थ जो जाते हैं। जिसने इंद्रियसमूह को वश में कर कर लिया है, वह मनुष्य जहाँ भी निवास करता है, वहीं उसके लिये कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य, और पुष्कर आदि तीर्थफल की प्राप्ति के लिये अंत:करण की शुद्धता पर बल दिया गया है। बताया गया है कि जो श्रद्धालु पापात्मा, नास्तिक संशयात्मा और केवल तर्क में डूबे रहनेवाले हैं-इस पाँच प्रकार के मनुष्यों को तीर्थफल की प्राप्ति नहीं होती। जो काम, क्रोध और लोभ को जीतकर तीर्थ में प्रवेश करता है उसे तीर्थयात्रा से कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं रहती। गंगा आदि तीर्थो में मछलियाँ निवास करती हैं, देवमंदिरों में पक्षीगण रहते हैं किंतु उनके चित्त भक्तिभाव से रहित होने के कारण उन्हें तीर्थ सेवन और देवमंदिर में निवास करने से कोई फल नहीं मिलता। इसलिये तीर्थ की फलप्राप्ति के लिये अंत:करण की शुद्धता अनिवार्य है।
भारत के विशाल भूखंड की चारों दिशाओं में असंख्य तीर्थ फैले हुए हैं- जिनकी गणना करना दु:साध्य कार्य है। पद्मपुराण में साढ़े तीन करोड़ तीर्थो का उल्लेख मिलता है। किसी स्थानविशेष पर विशिष्ट महापुरुष के जन्म लेने, देवमंदिर होने, ऐतिहासिक महत्व, विशिष्ट प्रकार की सफलता, प्राकृतिक सुषमा, स्थानों की भौगोलिक विविधता के आधार पर अगणित तीर्थ बन गए हैं।
जब से देश स्वतंत्र हुआ है, तीर्थों की नई परंपरा प्रतिष्ठापित हो रही है। ये तीर्थ हमारी राष्ट्रीय आशाओं, आकांक्षाओं और मनोकामनाओं की सिद्धि करते हैं।
संक्षेप में तीर्थ का अभिप्राय है पुण्य स्थान, अर्थात् जो अपने में पुनीत हो अपने यहाँ आनेवालों में भी पवित्रता का संचार कर सके। कुछ ऐतिहासिक स्थानों को भी तीर्थ संज्ञा दे दी जाती है। ऐसे स्थानों को भी तीर्थ कहा जाता है जहाँ मानव जाति के कल्याण के लिये कुछ अनुष्ठान किया जाता है। वर्तमानकालीन राष्ट्रीय कल्पना के अनुसार मानव समाज अनेक राष्ट्रों में बँट गया है, इसलिये हर राष्ट्र में अपने अपने राष्ट्रीय तीर्थो की कल्पना भी की जाने लगी है। हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र निर्माण के लिये पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत अनेक निर्माण कार्यक्रम हाथ मे लिये गये हैं। हमारे स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू इन योजनाओं तथा कार्यक्रमों के पुरस्कर्ता हैं। उन्होने उन विशाल घाटी योजनाओं के स्थलों को तीर्थ संज्ञा दी है, जहाँ जल का संचय करके सिंचाई की व्यवस्था की जाती है और संभव हो तो बिजली का भी उत्पादन किया जाता है। आधुनिक दृष्टि से ये भाखड़ा, भिलाई, राउरकेला आदि भी नए तीर्थस्थल बन गये हैं।
इस प्रकार समय की आवश्यकता तथा परिस्थिति के अनुसार भी तीर्थो की नई कल्पना और नया निर्माण होता रहता है। कालांतर में उनको भी धार्मिक तीर्थ सरीखा महत्व प्राप्त हो जाता है। उदाहरण के लिये गंगा तथा अन्य नदियों के तट पर बने हुए पुराने तीर्थो का उल्लेख किया जा सकता है। गंगोत्री से गंगा जिन पर्वतीय स्थलों को काटकर मैदान में आई वहाँ देव प्रयाग, कर्णप्रयाग, ऋषिकेश तथा हरिद्वार सरीखे तीर्थ बन गए और गंगा में जहाँ कहीं दूसरी नदी आकर मिली है उसको भी तीर्थ मान लिया गया है। तीर्थो के साथ धार्मिक पर्वो का विशेष संबंध है और उन पर्वो पर की जानेवाली तीर्थ यात्रा विशेष महत्व रखती है। यह माना जाता है कि उन पर्वो पर तीर्थयात्रा और तीर्थस्नान से विशेष पुण्य अर्जित किया जा सकता हे। इसी कारण कुंभ, अर्धकुंभ, गंगा दशहरा तथा मकरसंक्राति आदि को विशेष महत्व प्राप्त है, जिस पर लाखों लोग पुण्य संचय की भावना से तीर्थयात्रा करते और निश्चित समय पर वहाँ स्नानादि करना धार्मिक कर्तव्य मानते है।
कतिपय धार्मिक संस्कारों की दृष्टि से भी कुछ तीर्थो का निर्माण किया गया है। उदाहरण के लिये हिंदू समाज में अस्थिप्रवाह, पिंडोदक क्रिया तथा मुंडन आदि के लिये विशिष्ट स्थानों को तीर्थ मान लिया गया है उनमें हरिद्वार तथा गया का विशेष रूप से उल्लेख किया जाता है। मुंडन के लिये धर्म संप्रदाय, जाति तथा बिरादरी के अनुसार सैकड़ों ऐसे स्थान हैं जिनको इस संस्कार के लिये तीर्थ मान लिया गया है। महापुरुषों के जन्मस्थान और समाधिस्थान भी कालांतर में तीर्थ का महत्व प्राप्त कर लेते हैं। अयोध्या, मथुरा, पंपापुरी, कौशांबी, सारनाथ आदि को इसी कारण तीर्थ माना गया है और उनकी यात्रा भी इसी भावना से तीर्थ स्थान माने गए हैं।
(स. दे. वि.)
बौद्ध - बौद्धधर्म में भी तीर्थयात्रा का महत्व माना गया है। महापरिनिब्बान सुत्तंत में बौद्धों के चार पवित्र स्थान स्वीकृत हुए हैं।-लुंबिनी (बुद्ध का जन्म स्थान); गया, बुद्ध का बोद्धप्राप्ति का स्थान); सारनाथ (धर्मचक्र का प्रथम प्रवर्तन-स्थान) और कुशीनगर (बुद्ध का निर्वाण-प्राप्ति स्थान)। इन चार स्थानों को तीर्थ रूप में मानने के पीछे जो महनीय दृष्टि है वह यह कि भगवान् बुद्ध ने अपने विशिष्ट कर्मो के संपादन द्वारा जिन स्थानों को सुशोभित किया, वे स्थान अवश्य ही पुण्यजनक होंगे, अत: उनका दर्शन करना साधना के उत्कर्ष के लिये अपेक्षित होता है। स्वयं बुद्ध ने भी अपने शिष्यों को उपर्युक्त चार स्थानों की तीर्थयात्रा द्वारा पुण्यार्जन करने का आदेश दिया था, ऐसी अनुश्रुति है। जिन स्थानों में बुद्ध धर्मचक्र प्रवर्तन के लिये गय या जहाँ बुद्ध ने कोई विशिष्ट कार्य किया, वे सब स्थान भी बौद्धदृष्टि में तीर्थ ही हैं। इसी से सांकाश्य, श्रावस्ती, राजगृह, कौशांबी आदि भी तीर्थ माने जाते हैं। फिर वर्षावास के निमित्त बुद्ध जहाँ प्रतिवर्ष ठहरते थे, वे स्थान भी पुण्यभूमि माने जाते हैं। ऐसे स्थानों के नाम बौद्ध ग्रंथों में सुरक्षित हैं- यथा राजगृह, वैशाली, मंकुलपर्वत, सुंसुमारगिरि, पारिलेयक, नाला, वैरज्जा आदि।
कहा जाता है कि बुद्ध की अस्थियाँ (आरंभ में आठ भागों में विभाजित) जहाँ रखी गई थीं वहाँ आठ स्तूप बने। स्तूपयुक्त ये आठ स्थान भी तीर्थ रूप से पूजित होते हैं, यथा कुशीनगर, वैशाली, कपिलवस्तु, रामग्राम, पावागढ़, बेठद्वारका और अल्लकप्प। बुद्ध की चिता के अंगारों को लेकर अंगारस्तूप बना जो पिप्पली वन में रखा गया। कुशीनगर में कुंभस्तूप (कुंभ = वह घट जिसमें अस्थियाँ रखी गई थी) बना अत: वह भी पूज्य है। प्राय: बौद्ध तीर्थो में विहार का निर्माण भी गया था। इसी तरह बौद्ध तीथों में स्तूप या चैत्य अवश्य होते हैं।
जैन - समय समय पर हुए जैन धर्म के प्रचारकों को तीर्थकंर कहते हैं। ये स्वर्ग से उत्तर कर जन्म लेते हैं अतएंव इन्हें जैन अवतार भी कहा जा सकता है। तीर्थ का कर्ता तीर्थकंर है और 'जिसके द्वारा भवसागर को पार किया जाए वह तीर्थ हैं'। 'तीर्यते भवोदधिरनेन, अस्मात् अस्मिन्निति वा तीर्थ। तत्करण: शील तीर्थकर:। अर्थात् जिन शसन (धर्म) ही वास्तविक तीर्थ है। तीर्थ से संबद्ध स्थान उपचार से तीर्थ हैं क्योकि वहाँ पहुॅचने पर श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र का विकास होता है। भारत जैन धर्म की पुण्यभूमि और पितृभूमि है क्योंकि वर्तमान युगचक्र के चौबीसों तीर्थकंरो के गर्भ, जन्म, तप, कैवल्य एवं निर्वाण यहीं हुए हैं। ये तीर्थ पूरे भारत में फैले हैं। इनको दो मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया है। सिद्धक्षेत्र एवं अतिशयक्षेत्र। जहाँ से तीर्थकरों या अन्य साधकों ने निर्वाण प्राप्त किया है, वे सिद्धक्षेत्र हैं तथा मंदिर, मूर्ति या घटनाविशेष के कारण जो धर्माचरण में उपयोगी हुए हैं वे अतिशयक्षेत्र कहलाते हैं। तीर्थों का उल्लेख सबसे पहले श्री कुंदकुंदाचार्यकृत प्राकृत निर्वाणकांड में मिलता हे। इसके बाद पूज्यपाद आशाधरादि कृत निर्वाणभक्तियों (संस्कृत) में है। मुस्लिम युग में जिनप्रभ सूरि द्वारा लिखा गया विविध तीर्थकल्प तीर्थों के विषय में अधिक सूचना देता है। उत्तरकाल में अनेक तीर्थमालाएँ लिखी गई हैं। ये यात्राविवरण का भी काम करती हैं। इनमें कुछ क्षेत्र घटे बढ़े भी हैं।
देवदर्शन, स्तवन, पूजन, पाठ आदि के सामान तीर्थयात्रा विशुद्धि का कारण है। घर का वातावरण अशांत होता है, अतएव प्रतिदिन मंदिर जाने का विधान है। कुछ लंबे समय तक गृहस्थी का मोह छोड़ कर धर्मध्यान हो सके इसलिये, तीर्थयात्रा में भी क्रोध-मान-माया-लोभादि का संवरण न किया जा सके।
तीर्थकरों के सिद्धक्षेत्र अष्टापद (कैलास) संभेदशिखरशत्रुंजय, मंदारगिरि, गिरनार और पावापुर हैं। ये पाँचों क्षेत्र दिगंबर श्वेतांबर दोनों को मान्य हैं और अष्टापद तथा गिरनार तो सर्वमान्य हैं।
१ - अष्टापद से प्रथम तीर्थकंर ऋषभदेव को निर्माण प्राप्त हुआ था। वर्तमान में इसकी मान्यता हिमाचल के उस भाग में है जहाँ पर वैदिक धर्मानुयायी शिवतीर्थ मानते है। २- संभेदशिखर-हजारीबाग जिले का वह स्थान है जो पारसनाथ पर्वत नाम से ख्यात है। पूर्व रेलवे के गिरीड़ी तथा पारसनाथ स्टेशन से यह पच्चीस मील दूर हैं। यहाँ से अजित, शंभव, अभिनंदन, श्रेयांस, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथ, अरह, मल्लि, स्व्रुात,नमि ओर पार्श्व इन तीर्थकरों ने निवार्ण पाया था। अष्टापद के दुर्गम होने तथा अपनी प्रशांत, प्राकृतिक सुषमा के कारण यह प्रमुख जैनतीर्थ बन गया है। शत्रुंजय पश्चिम रेलवे के पालीताला स्टेयान से तीन मील दूरी पर स्थित वह पहाड़ी है जो 'मंदिरनगरी' नाम से ख्यात है श्वेतांबर मान्यता में यह सबसे बड़ा तीर्थ हैं क्योकि नेमिनाथ को छोड़कर शेष तेइस तीर्थकारों का आवास रहा है। संघभेद के बाद श्वेतांबर संप्रदाय ने शत्रुंजय को प्रधानता दी थी, यद्यपि मूल संप्रदाय के समान श्वेतांबर भाई भी संभेदशिखर को मानते हैं। अपने वैभव के कारण इसकी भी ख्याति दूर दूर तक है। ३ - मंदारगिरि-पूर्व रेलवे के भागलपुर स्टेशन से तीन मील की दूरी पर छोटी सी पहाड़ी है। यहाँ से बारहवें तीर्थकर बासुपूज्य ने निर्वाण पाया था। वर्तमान में भागलपुर से नौ मील दूर चंपापुर में ही इसकी स्थापना है। ४ - गिरनार-पश्चिम रेलवे के जूनागढ़ स्टेशन से ७-८ मील की दूरी पर यह पर्वत है। इसकी पाँचवी चोटी से बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ने निर्वाण पाया था। यह पर्वत यादवों की तपस्थली था। यही कारण है कि भारतीय इतिहास में भी यह महत्वपूर्ण है। तथा मुस्लिम भी 'आदमजी' कहकर इसकी यात्रा करते हैं। ५ - पावापुर-पूर्व रेलवे के नवादा स्टेशन से यह स्थान २१ मी० दूर है। इस युग के अंतिम तीर्थकर महावीर की निर्वाणभूमि होने के कारण इसका विशेष महत्व है।
प्रधान सिद्धक्षेत्रों के विसा कोटिशिला (कलिंग और मगध में इसकी मान्यता है), गुणांखा (गया-पटना मार्ग पर), गुलजारबाग (पटना), द्रोणगिरि (छतरपुर-म० प्र०)। रेशंदीगिरि (सागर), मुक्तागिरि (विदर्भ), गजपंथ (नासिक), कुंथलगिरि (शोलापुर), मांगीतुंगी (मनमाड), गजपंथ (नासिक), कुंथलगिरि (शोलापुर), मांगीतुंगी (मनमांड), पावागढ़ (बड़ोदा), तारंगा (महीकांटा, गुजरात), चूलगिरि (बडवानल, म० प्र०), सिद्धवरकूट (बड़वारा, म० प्र०), सोनागिरि (दतिया, म० प्र०) और चौरासी (मथुरा) से भी साधकों को निर्वाण होने के कारण इसका विशेष महत्व है।
तीर्थकरों के जन्मस्थान होने के कारण अयोध्या, रतनपुर (फैजापुर) हस्तिनापुर (मेरठ), कौशांबीं (वर्तमान कुंश्व, जिला इलाहाबाद), सौरीपुर (मैनपुरी) वाराणसी, सिंपुर और चंद्रपुर (वर्तमान चंद्रवटी या चंद्रावती जिला वाराणसी), श्रावस्ती (वर्तमान सहेत-महेत, जिला गोंडा), किष्किंधा (वर्तमान खूंखद, जिला गोरखपुर), राजगिर (पटना) चंपापुर (भागलपुर), और कुंडलपुर (वसाढ़ जिला मुज्फ्फरपुर) भी बहुमान्य तीर्थ हैं। प्रयाग, प्रभास (वर्तमान पपौसा, जिला इलाहाबाद), अहिक्षेत्र (वर्तमान अहिछत्ता, जिला बरेली) और कंपिला (कायमगंज, जिला फर्रुखाबाद) तीर्थकरों की तपोभूमि, आदि रहने के कारण जन्मभूमियों के समान ही मान्य हैं।
जैन वाड्मय में लोकोत्तरता का भाव व्यक्त करने के लिये 'अतिशय' शब्द का प्रयोग हुआ है। फलत: मूर्ति, मंदिर, वातावरण की प्रभावकता और स्थापत्यकला की अद्भुतता के कारण भी अनेक तीर्थ हो गए हैं जिन्हे 'अतिशयक्षेत्र' संज्ञा दी गई है। निश्चित ही इन स्थानों ने आत्मसिद्धि में साधक होकर मुमुक्षुओं को अपनी ओर आकृष्ट किया होगा किंतु किंवदंती रूप से प्रचलित ये पुण्यगथाएँ आज भी शोधक की प्रतीक्षा हैं। इन क्षेत्रों में श्रवणबेलगोला (हसन, मैसूर) करकंडु (उस्मानाबाद), बाबानगर (बीजापुर), अंतरीक्ष (वर्तमान शिरपुर, जिला अकोला), भातकुली (अमरावती), बिजोलियाँ (भीलवाड़ा और कोटा के बीच), केशरिया (उदयपुर), श्री महावीर जी (बयाना से आगे, राजस्थान) और कुण्डलपर (दमोह, म० प्र०) अपने अपने यहाँ के मूलनायकों की मनोज्ञ एवं प्रभावक मूर्तियों के कारण प्रसिद्ध हैं। प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र बाहबली क ५७ फुट ऊँची सर्वांगसुंदर मूर्ति के कारण श्रवणवेलगोला की मान्यता सिद्धक्षेत्रों के समान है, क्योंकि बाहुबली इस युगचक्र के प्रथम सिद्ध हैं और यह मूर्ति संसार का ८वाँ आश्चर्य मानी जाती है।
आबू, अचलगढ़, गवालियर दुर्ग, चदेरी (गुना. म. प्र.), देवगढ़ (झाँसी), अहार (टीकमगढ़ म. प्र.), खजुराहो (पन्ना, म. प्र.) अजयगढ़ (कोटा राजस्थान), कारंजा (अकोला), बीजापुर, एलोरा (मनमांड), स्तवनिधि और बेलगाँव (महाराष्ट्र), बादामी (बीजापुर) हुम्मच (शिमोगा, मैसुर), वरांग (दक्षिण कानाडा), कारकल, मुडविदुरै, बेणूर बेलूर हीलाबैंड (हसन, मैसूर) और खंडगिरि (पुरी उड़ीसा) अपनी लोकोत्तर मूर्तिकला तथा स्थापत्यकला के कारण तीर्थताको प्राप्त हुए हैं। ऐल खारवेल के शिलालेख तथा विपुल ऐतिहासिक एवं पुरातत्वीय संपत्ति के कारण खंडगिरि की मान्यता सिद्धक्षेत्रों के समान है।
चांदखेडी (कोटा, राजस्थान), ऊन (नीमाड़, म. प्र.), पपौरा (टीकमगढ़, म. प्र.), पचराई एवं थुबोन (गुन, म. प्र.), रामटेक (नागपुर) और कालुबा (गया, बिहार) मंदिरों की बहुलता के कारण तीर्थ हो गए हैं। समस्त जैन तीर्थों में धर्मशालाएँ हैं। यात्री तीर्थों पर जाकर अपना पूरा समा पूजन पाठ, ध्यान और त्याग ्व्रातों में लगता है। (खु. चं. गौ.)
ईसाई - प्राचीन काल से ही ईसाई साधना में तीर्थयात्राओं को पर्याप्त महत्व दिया गया है। ईसाई साहित्य में मानव जीवन को स्वर्ग की तीर्थयात्रा के रूप में देखा जाने लगा, जहाँ ईश्वर ईसा के रूप में प्रकट हुआ था। अत: ईसाई तीर्थयात्राओं का लक्ष्य प्रारंभ ही से फिलिस्तीन देश रहा है जहाँ ईसा ने अपना जीवन बताया था और जिसे 'पवित्र देश' (होली लैंड) कहा गया। वहाँ के तीन स्थान अब ईसाई संसार के प्रधान तीर्थ माने जाते हैं - (१) बेथलेहेम, जहाँ एक गुफा में ईसा का जन्म हुआ था, (२) नाजरेथ, जहाँ वह ३० साल की उमर तक बढ़ई का काम करते रहे (३) येरुसलेम, जहाँ क्रूस पर उनका प्राणांत हुआ और बाद में वे कब्र में से जी उठे।
ईसाई तीर्थस्थानों के विकास का दूसरा सोपान है ईसा के शिष्य तथा अन्य शहीदों के मकबरे। तीन शताब्दियों तक रोम के शासकों ने ईसाइयों पर अत्याचार किया और उनमें से बहुतों को प्राणदंड दिया। अधिकांश शहीद रोम में मारे गए अत: येरुसलेम के बाद रोम प्रधान ईसाई तीर्थस्थान बन गया, वहाँ ईसा के पट्टशिष्यों -संत पीटर और संत पाल का समाधिस्थान सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ है। रोम के बाहर के मुख्य तीर्थ इस प्रकार हैं - उत्तर अफ्रीका में कार्थेज (बिशप सिप्रियन के अतिरिक्त संत फेलिसितस् और पेरपेतुआ का मकबरा) दक्षिण फ्रांस में तुर्क (संत मारतिन का समाधिस्थान), यूनान में तेसालोनिका (संत देमेत्रिओस की कब्र), एशिया माइनर में एफसस् (ईसा के पट्टशिष्य संत जोन का मकबरा)। पाँचवीं श० ई० में मिस्त्र देश की मरुभूमि में खंभों के ऊपर जीवन बितानेवाले तपस्वी, जिनमें सिमेओन स्ताइलाइतिस् प्रधान थे, बहुत समय तक तीर्थ यात्रियों की भारी भीड़ आकर्षित करते रहे। मध्यकाल में उत्तरी स्पेन का कोंपोस्तेला नामक नगर (जहाँ ईसा के पट्टशिष्य संत जेम्स का मकबरा है) रोम के बाद यूरोप का प्रधान तीर्थ बन गया। इतिहासकारों का कहना है कि क्रूसेड में भाग लेनेवाले बहुत से योद्धा उस अभियान को तीर्थयात्रा के रूप में देखते थे। प्राच्य चर्च में बहुत से मठ, जहाँ पहुँचे हुए संतों के मकबरे हैं, तीर्थस्थान बन गए, उदाहरणार्थ यूनान में मौंट अथोस, अरबी मरुभूमि में मौंट सिनाई का मठ तथा रूस में किएफ और नोफगोरोद के मठ।
आधुनिक काल में रोमन काथलिक चर्च में ईसा की माता संत मरियम के तीर्थों का बाहुल्य ईसाई तीर्थस्थानों के विकास का तीसरा सोपान कहा जा सकता है। उनमें से दक्षिण फ्रांस की लूर्द नामक नगरी सबसे विख्यात है। पुर्तगाल में फतिमा, पोलैंड में चेस्तोवा, दक्षिण अमरीका में गुआदेलूप तथा दक्षिण भारत में वैलंगानी भी उल्लेखनीय हैं। भारत में दो और ईसाई तीर्थस्थान महत्वपूर्ण हैं, मद्रास के निकट माइलापुर में संत तोमस का मकबरा तथा गोवा का गिरजाघर जहाँ संत फ्रांसिस जेवियर का शव अब तक सुरक्षित है। (फा. बु.)
मुस्लिम - प्राचीन अरब निवासियों में हज पर जाने की प्रथा थी। यह वार्षिक भोज था जो तीर्थ स्थान में होता था। इसमें तीर्थयात्री उपासना की दृष्टि से संमिलित हुआ करते थे। इन प्राचीन पवित्र भोजों या हजों में से अब वह महानहज ही शेष है जो अरब जनजातियों द्वारा प्रति वर्ष जिलहिज के महीनो में पवित्र गिरि अरथह या उसके आस पास के स्थानों में मनाया जाता था। भोज वर्ष की समाप्ति पर होता था और प्रारंभ में उसका उद्देश्य प्रचुर वर्षा तथा धूप से युक्त धन धान्यपूर्ण सुखद वर्ष प्राप्त करने की कामना होता था।
हज के समय प्रत्येक तीर्थयात्री को संयम तथा पवित्रता से कुछ विषिष्ट नियमों का पालन करना पड़ता था। वह अपने बाल या नाखुन नही कटवा सकता था और न हजामत ही बनवा सकता था। सफेद कपड़े के दो टुकड़ों (इजार तथा रीडा) को छोड़कर उसे अपना शरीर निवस्त्र रखना पड़ता था।
प्राचीन अरब में मक्का स्थित काबा की भी तीर्थयात्रा प्रचलित थी। इस तीर्थस्थान का पूर्वी अंचल विशेषरूप से पवित्र माना जाता था जहाँ जमजम की पाक दीवार के सामने वह काला पत्थर अवस्थित था जिसके प्रति समस्त तीर्थयात्रियों द्वारा अदब और इज्जत का भाव प्रदर्शित किया जाता था। काबा की तीर्थयात्रा विशेषकर रजब के महीने में की जाती थी, जब यात्रीगण वहाँ पहुँचकर भवन की परिक्रमा करते थे और ऊँटों तथा भेड़ों की प्रथमजात बच्चों की बलि चढ़ाते थे। मक्का के इस पवित्र स्थल की पूजा उमरह कहलाती थी और अरफा के वार्षिक हज से संभवत: इसका कोई विशेष संबंध न था।
इस्लाम धर्म के अंग यद्यपि पैगंबर मुहम्मद साहब किशोरावस्था से ही हज का समारोह देखते आ रहे थे तथापि शुरू में उन्होने इसे तथा अन्य अरबी रस्मों को अपने अनुयायियों के लिये धार्मिक कर्तव्य के रूप में निर्घारित करना आवश्यक नहीं समझा। हाँ, हिजरा करने के बाद अवश्य उनके विचार बदल गए और उनकी धारणा हो गई कि काबा तथा इस पवित्र देवभूमि से संबंधित विविध कृत्य मूलत: सच्चे मजहब के ही अंग थे और यहूदियों, क्रिस्तनों तथा अरबों के प्रमुख नबी इब्राहिम ने इनकी प्रस्थापना की थी। इसके परिणामस्वरूप अब मदीना के मुसलमानो के लिये मक्का की तीर्थयात्रा करना धार्मिक कर्तव्य हो गया। मक्का के 'अविश्वासी' निवासियों ने अपने पवित्र नगर में मुसलमानो को घुसने देने से इनकार कर दिया। पहला प्रयत्न बेकार हुआ। किंतु बाद में आपस की बातचीत से यह समझौता हुआ कि इस बार तो मूसलमान यात्री मदीना वापस चले जाएँ पर अगले वर्ष वे मक्का में आकर भोज का समारोह मना सकते हैं। जब हिजरी सन् आठ में मोहम्मद साहब ने मक्का को जीत लिया तब मुसलमानों के साथ कितने ही अविश्वासी अरबों ने भी हज में शरीक होने के लिये मक्का की यात्रा ही। बाद में कुरान की जिन आयतों का इलहाम हुआ, उनमें कहा गया कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जो सच्चा न हो, मक्का में या हज में नहीं जा सकता। तदनुसार हिजरी सन् दस में कोई भी गैरमुस्लिम हज के भोज में शामिल नहीं किया गया और अब स्वयं मोहम्मद साहब इसमें शरीक होने के लिये मदीने से मक्का में आए। इसके बाद से सभी मुसलमानों में अपने पैगंबर के इस कृत्य के अनुसरण का सामान्य रिवाज सा हो गया।
तीर्थयात्रा संबंधी कृत्य - भारतेतर मुस्लिम तीर्थो में मक्का का माहात्भ्य सबसे अधिक है। यह इस्लाम के पाँच तीर्थस्तंभों में से एक है। इस धर्म के अनुयायी स्त्री पुरुषों का यह पुनीत कर्तव्य है कि यदि वे इस योग्य हों तो यहाँ की यात्रा अवश्य करें। इसमें छूट मुख्य रूप से उन लोगों के लिए ही दी गई है जो सफर का खर्च उठाने में या यात्रा की अधिक अवधि तक परिवार के भरणपोषण का प्रबंध करने में असमर्थ हों। स्त्रियाँ अपने पतियों या नजदीकी रिश्तेदारों के साथ ही जा सकती है। इस यात्रा को हजयात्रा या हज पर जाना कहते हैं।
मक्का में हज के अवसर पर विश्व के विभिन्न अंचलों से आए इस्लाम धर्मावलंबियों की खासी भीड़ इकट्ठी हो जाती है। ये मुस्लिम विधिपुस्तकों के निर्देशानुसार आवश्यक कृत्यों का संपादन करते हैं।
इस पवित्र तीर्थस्थान में यात्रीगण 'उमरह' के साथ अपनी तीर्थयात्रा का शुभारंभ करते हैं। उमरह किसी समय किया जा सकता है। मक्कावासी प्राय: धार्मिक कृत्यों के लिये विशेष रूप से मान्य रमजान के महीने में इसे करते हैं। हज आरंभ करने के पूर्व जिलहिज के सातवें दिन खतीब (उपदेशक), जो सामान्यत: मक्का का काजी होता है, मक्का की मस्जिद में व्याख्यान देकर यात्रियों को उनके आवश्यक धार्मिक कृत्यों के संबंध में उपदेश देता है। दूसरे दिन यात्री अरुफा के लिये रवाना होते हैं, जहाँ ऊँट की सवारी से पहुँचने में प्राय: चार घंटे लगते हैं। धर्मनियमों के अनुसार यात्रियों को इस यात्रा के मध्य स्थित मूना में अपनी एक रात बितानी चाहिए किंतु अधिकांश यात्री सीधे अरफा पहुँचते हैं। वहाँ जिलहिज के नवें दिन वे वुकूफ करते हैं जिसमें उन्हें अरफा के मैदान में मध्याहोत्तर से सूर्यास्त के कुछ पूर्व तक खड़ा रहना पड़ता है। यह हज का एक प्रधान कृत्य है। सूर्यास्त के बाद इफादह आरंभ होता है जिसके अनुसार लोग अरफा से मुजदलिफर तक दौड़ लगाते हैं। यहाँ पहुँचकर वे अपनी दूसरी रात वहीं व्यतीत करते हैं और सूर्योदय से पूर्व तक मूना पहुँच जाते हैं। मूना में जिलहिज के दसवें दिन महान् बलिभोज मनाया जाता है। इस दिन को बलि का पवित्र दिन कहते हैं। इसके कुछ पहले जमरहअलअब: में पत्थर के सात टुकड़ों को फेंकनें का कृत्य होता है। वैसे मूना की बलि के साथ हज समाप्त हो जाता है ओर तब यात्री अपना सिर मुँड़वा ले सकते हैं। मक्का जाकर वे पेट भर आबे जमजम पीते हैं। फिर काबा की प्रदक्षिण करते हुए उसका काला वस्त्र चूमते हैं। यह कृत्य वे ही लोग करते हैं जो मक्का आकर पहले इसे पूरा नहीं किए रहते हैं। अंत के तीन दिन, जिलहिज की तारीख ११ से १३ तक, तशरीक के दिन कहलाते हैं। इन दिनों यात्री मूना में खाते पीते तथा मौज मनाते हैं और प्रत्येक दिन सात सात पत्थर तीन जिमारों में से प्रत्येक पर फेंकते हैं। हज समाप्त करते वे पुन: मक्का आकर काबा की परिक्रमा करते हैं और प्राय: मदीना होते हुए घर लौटते हैं।
जो मुसलमान मस्जिद उल नवाबी या जियारत में उपस्थित होकर घर लौटते हैं वे हाजी कहे जाते हैं। मक्का के अन्य पवित्र स्थानों में काबा जियारत तथा मस्जिद उलहरम मुख्य हैं।
भारतीय मुस्लिम तीर्थ - मक्का, मदीना और कर्बला जैसे प्रसिद्ध तीर्थस्थानों के अतिरिक्त भारतीय मुस्लिम तीर्थों में पीर, औलिया तथा शहीदों और गाजियों के मकबरे तथा दरगाह भी हैं जहाँ प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में मुस्लिम तीर्थयात्री जाते हैं। ऐसे मुस्लिम पवित्र स्थान या समाधिस्थल मुसलमानी शासनकाल की राजधानियों - दिल्ली, आगरा, लाहौर, लखनऊ, हैदराबाद में या उनके आसपास में पाए जाते हैं जहाँ मुसलमानों के अलावा निम्नवर्गीय हिंदू जातियाँ भी सम्मिलित होती हैं। कुछ मकबरे, जैसे अजमेर का मुइनुद्दीन चिश्ती का मकबरा, गोरखपुर तथा बहराइच के गाजी मियाँ शहीद, मकनपुर के शाह मदार आदि हिंदू तथा मुस्लिम दोनों संप्रदायों के तीर्थस्थानों के रूप में यात्रियों के आवागमन के केंद्र हैं। लंकिन मकबरे का निर्माण इस्लाम के धर्मनियमों तथा वहाबियों के विरुद्ध हैं। इसलिये प्राय: कट्टर मुसलमान वहाँ नहीं जाते। किंतु किसी ऐसे तीर्थ में मुसलमानों के जाने की परंपरा संभवत: हिंदू परंपरा के ढंग पर चल पड़ी हो। मुस्लिम संतों के ऐसे समाधिस्थल प्राय: कोढ़ आदि दुष्ट रोगों से विमुक्ति के लिये भी प्रसिद्ध हैं।