तिलक, लोकमान्य बाल गंगाधर (१८५६-१९२०) भारतीय स्वातंत्र्याकाश के एक अत्यधिक तेजस्वी नक्षत्र, 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' इस मंत्र के द्रष्टा, भारत में राजनीतिक असंतोष के जन्मदाता, महान् राजनीतिज्ञ, पत्रकार, वेद पुराणदि प्राचीन वाड्मय के अध्येता तथा गणित ज्यौतिष के विद्वान्।
इनका जन्म रत्नागिरि में आषाढ़ कृष्ण ६ सोमवार शके १७७८ तदनुसार २३ जुलाई, १८५६ ई० को हुआ। इनका मूल नाम 'केशव' था। लेकिन घर पर सब प्यार से 'बाल' अर्थात् बच्चा कह कर पुकारा करते थे। यही नाम प्रचलित हुआ और वे 'बाल गंगाधर तिलक' कहलाए। बाद में उनके कार्यो से प्रभावित हो कर जनता ने उन्हें 'लोकमान्य' कहना शुरु किया।
तिलक की प्राथमिक शिक्षा रत्नागिरि में हुई। इसके बाद की सारी शिक्षा पूना में हुई। इन्होंने १८७६ में बी० ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, फिर एम० ए० की पढ़ाई शुरू की। लेकिन उसमें इनका मन न लगा और इन्होंनें कानून पढ़ना प्रारंभ किया। १८७८ में वे प्रथम श्रेणी में एल० एल० बी० उर्त्तीर्ण हुए।
कालेज में पढ़ते ही इन्होंने और इनके एक मित्र आगरकर ने समाज कार्य करने का निश्चय किया था। जब ये एल० एल० बी० की परीक्षा दे रहे थे उसी समय इन्हें पता चला कि विष्णु शास्त्री चिपलूणकर सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर एक स्कूल खोलने का विचार कर रहे हैं। स्कूल खोलने का उनका उद्देश्य नई पीढ़ी में सामाजिक जागृति उत्पन्न करना था। तिलक उनसे जा मिले। १ जनवरी १८८० ई० के दिन 'न्यू इंग्लिश स्कूल' की स्थापना हुई। इन लोगों को और भी तेजस्वी तथा योग्य युवकों का सहयोग मिला और स्कूल अल्पावधि में इतना लोकप्रिय हुआ कि सरकारी स्कूल बंद होने की नौबत आ गई।
न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना के एक वर्ष बाद इन तरुणों ने एक प्रेस खरीद लिया ओर 'केसरी' तथा 'मराठा' का संपादन करते थे और 'केसरी' में धर्मशास्त्र तथा कानून से संबंधित लेख लिखा करते थे। बीच बीच में 'केसरी' में वे अग्रलेख भी लिखा करते थे।
उस समय कोल्हापूर स्टेट की स्थिति बड़ी विचित्र थी। रावबहादुर माधवराव के कारण जनता में क्षोभ था। तिलक ने इस संबंध में 'केसरी' तथा 'मराठा' में कई लेख तथा पत्र व्यवहार भी प्रकाशित किए। बर्वे ने इन पर तथा अन्य कुछ लोगों पर मानहानि का मुकदमा चला दिया। बर्वे पर आरोप सिद्ध न हो सके और मित्रों के तथा हितैषियों के दबाव से तिलक ने माफी माँगी। फिर भी इन्हें चार मास की सादी कैद भोगनी पड़ी (१८८२)। इस सजा से इन्हें प्रसिद्धि मिली और जनता की सहानुभूति भी प्राप्त हुई। बड़े लोगों से जान पहचान हुई और राजे रजवाड़ों से उदार आश्रय मिलने की संभावना दिखाई देने लगी। इसका परिणाम स्कूल पर भी अच्छा हुआ। १८९४ में विद्यार्धियों की संख्या १००९ तक पहुँच गर्यी थी। यह देखकर इन लोगों का विचार कालेज खोलने का हुआ। 'डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी' के तत्वावधान में 'फर्ग्युसन कालेज' की स्थापना हुई। कॉलेज में तिलक गणित तथा संस्कृत पढ़ाने लगे। लेकिन आगे चलकर नीति और कार्यप्रणाली के संबंध में मतभेद हो जाने पर इन्होने सोसाइटी तथा कॉलेज से इस्तीफ़ा दे दिया (१८९०) और 'केसरी' तथा 'मराठा' का संपादन आरंभ कर दिया। इन पत्रों पर सात हजार रुपये का कर्ज था, वह भी इन्होने अपने जिम्मे लिया। यह कर्ज चुकाने में दस साल लग गए। ऐसी अवस्था में उन्होंने गृहस्थी का खर्च चलाने के उद्देश्य से कुछ मित्रों की सहायता से लातूर में एक रुई की जिनिंग फैक्टरी खोली और साथ ही पूना में कानून की कक्षा खोली।
कारखाना बाद में हिस्सेदारों के हाथों में चला गया लेकिन कानून की कक्षा धड़ल्ले से चल निकली। इन्हें नरसिंह चिंतामणि केलकर जैसे योग्य और मेहनती सहकारी मिले थे। उनका प्रिय विषय हिंदू धर्मशास्त्र तथा हिंदू कानून था और यह विषय वे बड़े ही उत्कृष्ट ढंग से पढ़ाते थे।
डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी छोड़ने के बाद जनता का ध्यान आकर्षित करनेवाला इनका पहला कार्य 'क्रॉफर्ड केस' था। क्रॉफर्ड नामक एक अंग्रेज उच्चाधिकारी अपने सहायक अधिकारियों द्वारा घूस लिया करता था। उस पर मुकदमा चला। दोष साबित भी हुआ लेकिन वह सजा पाए बगैर छूट गया और उसके सहायक अधिकारी (जिन्हें 'मामलेदार' कहते थे) फँस गये। इनकी संख्या काफी थी और इनमें से काफी लोगों ने क्षमा के आश्वासन पर क्रॉफर्ड पर लगाया गया हुआ इल्जाम साबित करने में सरकार की मदद भी की थी। तिलक यह अन्याय सहन नहीं कर सके और उन्होने मामलेदारों का पक्ष लिया। उन्होंने दरख्वास्तें लिखीं, सभाएँ कीं और मामलेदारों की आवाज पार्लमेंट तक पहुँचा कर 'मामलेदारी इंडेम्निटी ऐक्ट' पास करा लिया। इस ऐक्ट के कारण मामलेदारों को सरकारी कार्य में मदद करने के पुरस्कार स्वरूप पेंशनें मिलीं और उन पर के धूस लेने के मुकदमे हटा लिये गये। इस केस के कारण जनता में उनका यश और भी फैल गया।
उनका दूसरा बड़ा कार्य था 'सम्मति आयु बिल' के विरुद्ध उनके द्वारा चलाया गया आंदोलन्। बारह वर्ष की विवाहिता कन्या के साथ यदि उसका पति भी संभोग करे तो वह कानूनन दंडित होना चाहिए, यह इस बिल का मंतव्य था। परस्पर की सम्मति के लिये आयुमर्यादा बढ़ाई जानी चाहिए, इससे तत्वत: इनका विरोध नहीं था, लेकिन धार्मिक विषयों में सरकार को हाथ डालने का कोई अधिकार नहीं है, यह इनका कहना था। इस आंदोलन में एक ओर सरकार, दसरी ओर सुधारवादी और पुराने मतों के लोगों से इन्हें मोर्चा लेना पड़ा। न्यायमूर्ति रानाडे और डा० भंडारकर जैसे लोगों से भी इन्हें संघर्ष करना पड़ा। इस आंदोलन में इनकी कुशाग्र बुद्धि, कानून का ज्ञान, धर्मशास्त्र का अध्धयन और वादविवाद में कुशलता इत्यादि गुण जनता को देखने को मिले।
१८९२ से लेकर १८९४ तक हिंदु मुस्लिम दंगों का एक भयानक सिलसिला चल पड़ा था। इन दगों में सरकार पक्षपात करती थी यह जनता के सामने सिद्ध करने का इन्होंने जोरदार प्रयत्न किया और हिंदुओं में स्वाभिमान उत्पन्न करने के उद्देश्य से शिवाजी उत्सव शुरू करने की तथा गणेशोत्सव को सार्वजनिक रूप देने की सफल कोशिश की।
उस समय सारे भारतवर्ष में अकाल फैला हुआ था और उसका हल ढूँढ़ने का सरकार कोई प्रयत्न नहीं कर रही थी। जिसके कारण जनता त्रस्त थी। इसी बीच महाराष्ट्र में प्लेग की महामारी का तांडव शुरू हुआ। सरकार ने प्लेग के बंदोवस्त का कार्य सेना को सौंप दिया जिसके परिणाम स्वरूप गोरे सिपाहियों की बन आई ओर उन्होंने जनता को सताना शुरू कर कर दिया। तिलक ने 'केसरी' में उग्र लेख लिखना शुरू कर दिया ताकि जनता में जागृति हो। उन्होनें प्लेग का एक अस्पताल भी खुलवा दिया। इस कार्य से वे सरकार की निगाहों में और भी चुभने लगे। इस परिस्थिति का फायदा उठाकर कुछ लोगों ने यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि तिलक जनता को विद्रोह के लिये उकसा रहे हैं। इसी बीच पूना के प्लेग अधिकारी मि० रेंड और लेफ्टिनेंट आयर्स्ट पर किसी ने गोली दी। तिलक पकड़े गये और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला। खून के संबंध में चाफेकर बंधु पकड़े गये और आरोप सिद्ध होकर फाँसी पर चढ़ा दिए गऐ। इधर तिलक को भी राजद्रोह के मुकदमे में १८ मास की सश्रम कारावास की सजा सुना दी गई। इस पर लेटर्स पेटंट के अनुसार प्रिव्ही काउंसिल (लंडन) के सामने अपील की गई लेकिन वह नामंजूर हुई। बाद में प्रो० मैक्सप्युलर, सर विलियम हंटर, सर रिचर्ड गार्थ, विलियम केन, दादाभाई नौरोजी, रमेशचंद्र दत्त आदि ने विलायत में सरकार के पास तिलक को छोड़ देने के लिए प्रार्थनापत्र भेजा और वे १२ मास के बाद ही छोड़ दिए गए। हिंदुस्तान में इस प्रकार का यह पहला ही राजद्रोह का मुकदमा था। इसके फलस्वरूप सरकार को राजद्रोह संबंधी कानून की भाषा में संशोधन करना पड़ा और हिंदुंस्तान की जनता में तिलक के प्रति आदर की भावना बढ़ी।
सन् १८९८ में लखनऊ में राष्ट्रीय सभा (कांग्रेस) का पंद्रहवाँ अधिवेशन हुआ। उसके अध्यक्ष रमेशचंद्र दत्त थे। ये एक सरकारी सेवानिवृत अधिकारी थे। अधिवेशन में तिलक ने बंबई के गवर्नर लार्ड सैंड्हर्स्ट के बहिष्कार का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव का विरोध होते देखकर सरकार के अन्यायों का खाता कांग्रेस के सामने पढ़कर तिलक ने पूछा कि उसमें अतिशयोक्ति कहाँ है। इसपर अध्यक्ष महोदय ने नाराज होकर कहा कि यदि यह प्रस्ताव रखा जाएगा तो वे अध्यक्ष पद छोड़ देंगें। यह उस समय की राजनीति का स्वरूप था।
लॉर्ड सैंड्हर्स्ट के बाद लॉर्ड नॉथकोट बंबई के गवर्नर नियुक्त हुए (१८९९)। विलायत के 'ग्लोब' नामक अखबार ने उन्हें 'तिलक की खूनी राजनीति' पर नजर रखने की सलाह दी थी। बंबई 'टाइम्स ने उस लेख को उद्घृत किया। इस पर तिलक ने दोनों पत्रों पर मानहानि का मुकदमा चलाया और उन्हें क्षमा माँगने पर विवश किया। तिलक स्वयं अन्याय सहन नहीं कर सकते थे और जनता को सर्वदा उपदेश देते थे कि अन्याय का हमेशा प्रतिकार करना चाहिए। राजनीति में भी यदि वे कोई बात उचित समझते थे तो उसके लिये चाहे जो भी खतरा उठाने के लिये तैयार रहते थे और उस संबंध में बड़े छोटे किसी की भी परवाह नहीं करते थे। बंगभंग' आंदोलन में उन्होनें बंगाल का पूरा पूरा साथ दिया। वहाँ के शिवाजी उत्सव में (जून १९०६) शामिल हुए। और कलकत्ते की राष्ट्रीय सभा में 'स्वदेशी' के प्रस्ताव को 'विदेशी का संपूर्ण बहिष्कार' के प्रस्ताव से और भी मजबूत बनाया (दिसंबर १९०६)। यह प्रस्ताव गोखले और पं० मदन मोहन मालवीय तथा उनके पक्ष के अन्य नेताओं को नहीं रुचा। मालवीय जी और गोखले ने अपने भाषणों से स्पष्ट कह दिया कि 'यह आंदोलन जिन्हें करना हो वे करें, लेकिन कांग्रेस के नाम पर न करें।' लेकिन वह कांग्रेस कलकत्ता में हुई थी और अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी का भाषण भी कम उग्र नहीं हुआ था। उन लोगों की बात किसी ने नहीं सुनी ओर प्रस्ताव पास हो गया। मध्यम मार्गियों को ये बातें सहन नहीं हुई। अब तिलक का पक्ष 'उग्र दल' अथवा 'गरम दल' कहलाने लगा। वैसे राष्ट्रीय भावनाओं का पोषक होने के कारण उनका पक्ष 'नेशनलिस्ट' अथवा 'राष्ट्रीय' भी कहलाता था।
कलकत्ता कांग्रेस के समय से यह नरम गरम बाद अत्यंत उग्र हो उठा। उसका परिणाम सूरत कांग्रेंस (१९०७) भंग होने में हुआ। आगे मध्यम मार्गियों ने नया संविधान बनाकर राष्ट्रीय पक्षवाले कांग्रेंस में न आने पाएँ ऐसा प्रबंध किया। लेकिन इधर तिलक ने कलकत्ता कांग्रेस के चतु:सूत्री कार्यक्रम (स्वेदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा तथा स्वराज्य) पर बल देकर देश में राजनीतिक असंतांष और नवचैतन्य उत्पन्न करना प्रारंभ कर दिया।
जनता पर उनका बढ़ता हुआ प्रभाव सरकार को सहन न हो सका और २३ जून, १९०८ को उसने तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने की स्वीकृति दी। बंबई नगर के डेप्युटी पुलीस सुपरिंटेंडेंट ने दूसरे ही दिन मुख्य प्रेसिडेन्सी मजिस्ट्रेट मि० अॅस्टन के न्यायालय में तिलक के विरुद्ध दावा दायर कर दिया। दावे के लिये उन्होंने 'केसरी' १२ मई के अंक में छपे हुए 'देश का दुर्दैव' शीर्षक अग्रलेख का आधार लिया था। उसी दिन तिलक पकड़ लिए गए और २७ जून को उनके ऊपर और एक राजद्रोह का दावा दायर कर दिया गया जिसका आधार ९ जून के 'केसरी का अग्रलेख 'ये उपाय स्थायी नहीं हैं' था। २२ जुलाई, सन् १९०८ को रात १० बजे उन्हें छह साल की काले पानी की सजा सुनाई गई। सजा भोगने के लिये उन्हें मांडले जेल में रखा गया था। यहीं उन्होंने अपना सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'गीतारहस्य' लिखा।
१६ जून, १९१४ को वे छूटकर अपने घर पूना पहुँच गए और वे पुन: अपने कार्य में लग गए। २३ अप्रैल, १९१६ को होमरूल लीग की स्थापना श्रीमती ऐनी बेसेंट के सहयोग से की। २३ जुलाई, १९१६ को उनके इष्ट मित्रों और अनुयायी लोगों ने उनके षष्टयब्दि-पूर्ति का उत्सव किया और उन्हें एक लाख रुपए की थैली भेंट की। यह निधि उन्होंने उसी समय राष्ट्रकार्य के लिये दे दी।
उत्सव का कार्यक्रम संपन्न होकर लोग अपने घरों की ओर वापस जा ही रहे थे कि तिलक के हाथ में पूना के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की नोटिस आई। यह उनपर राजद्रोह का तीसरा मुकदमा था। इसका आधार होमरूल लीग के प्रचारार्थ तिलक द्वारा अहमदनगर और बेलगांव में दिए गए भाषण थे। इसमें तिलक की ओर से बैरिस्टर जिन्ना ने वकालत की। न्या मू शाहा और न्या० मू० वँचलर ने उन्हें २४ अगस्त, १९१६ को दोषमुक्त कर दिया।
इसके बाद इन्होंने पुन: कांग्रेस में प्रवेश किया और युद्धजन्य परिस्थिति से फायदा उठाने के उद्देश्य से दिसंबर, सन् १९१६ की लखनऊ कांग्रेस में हिंदू-मुस्लिम-एकता का प्रस्ताव पास करा लिया।
सर वैलेंटाइन चिरोल ने अपनी पुस्तक 'अनरेस्ट इन इंडिया' में इन्हें राजद्रोही कहा था, इसलिये इन्होंने विलायत जाकर उनके ऊपर मुकदमा चलाया लेकिन उसमें ये हार गए।
लगभग इसी समय मॉण्टर्फोर्ड रिपोर्ट प्रकाशित हुई। १९१९ के कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन ने उसे निराशाजनक करार दिया। इन्होंने अपने को प्रतिसहकारितावादी घोषित कर असहयोग पर चल रही चर्चा में भाग नहीं लिया। इतना ही नहीं, नए सुधारों का लाभ उठाने की दृष्टि से 'कांग्रेस डेमोक्रेटिक पक्ष' की स्थापना कर १९२० में निर्वाचनों में भाग लेने की योजना बनाई। लेकिन इसी समय ये बीमार हुए और ३१ जुलाई की रात को १२ बजकर ४० मिनट पर (अर्थात १ अगस्त, १९२० को) उनका देहावसान हो गया।
उपर्युक्त मोटी मोटी घटनाओं, वादों और आंदोलनों के अलावा अन्य बहुत सी छोटी मोटी घटनाओं, वादों और आंदोलानों ने बापट कमिशन ओर ताई महाराज केस जैसे कार्यो ने तथा ग्रामण्यवाद जैसे निजी मामलों ने भी उनका काफी समय लिया। १८६५ से १८६७ तक वे बंबई की लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य भी रहे।
यद्यपि उनका सारा जीवन संघर्ष तथा आंदोलन में ही बीता, यह उनके जीवन का एक पक्ष था। दूसरा पक्ष, जो इससे भी मजबूत था, वह था उनका विद्याव्यासंग। राजनीति से चाहे उन्होंने एक आध दिन कभी विश्राम भी लिया हो, लेकिन इस व्यासंग से उन्होनें कभी भी छुट्ठी नहीं ली। विविध समस्याओं तथा झगड़ों का बोझ सिर पर रहते हुए भी वेद-काल-निर्णय, पंचांगशोधन, ज्ञानेश्वर के संबंध का वाद, शिवाजी की जन्मतिथि का निर्णय जैसे संशोधनात्मक कार्य उन्होंने किए। बाहर के कामों से जब भी खाली रहते वे पढ़ते लिखते दिखाई देते। 'केसरी' के लिये वे जीवन भर लिखते ही रहे। उनके महत्व के कुछ ग्रंथ ये हैं-
दि ओरायन ऑर रिसर्चेज इंटू दि ऐंटिक्विटी ऑव दि वैदाज (१९८३) अंग्रेजी; मद्रास, सिलोन व ब्रह्मदेश येथील प्रवास (१९००) मराठी; दि आर्किटक होम इन दि वेदाज (१९०३) - अंग्रेजी, गीतारहस्य (१९१५) मराठी; चाल्डियन वेदाज (१९१८ अंग्रेजी); मिसिंग कारिका इन सांख्याज़, अंग्रेजी; हिंदुधर्माचें स्वरूप-लक्षण मराठी, वेदांग ज्योतिष (अंग्रेजी)
(बालमुकुंद गणो क्षीरसागर.)